फागुन गाँव की निम्मा परी को भला कौन नहीं जानता? वह रोज हाथों में खुरपी और फावड़ा लिए, बुधना के साथ खेतों में काम करने जाती है। गाँव के बच्चे-बड़े किसी से भी पूछो, वह प्यार से निम्मा परी की ओर इशारा करके बता देगा, “देखो, देखो, वह रही निम्मा परी। अपने पति बुधना के साथ हँस-हँसकर बातें करती हुई जा रही है।”
दोनों की जोड़ी ऐसी प्यारी कि देखकर हर कोई रीझता। गाँव की बूढ़ी दादी गंगादेई तो बार-बार असीसें देतीं। कहतीं, “पति-पत्नी में ऐसा प्यार हमने तो कभी नहीं देखा, जैसा बुधना और निम्मा परी में है। दोनों एक-दूसरे पर जान छिड़कते हैं। एक के पैर में काँटा चुभ जाए तो दूसरा दर्द से अकुला जाता है।”
सुनकर रधिया मुँह में साड़ी का पल्ला दबाकर हँस पड़ती है। कहती है, “हमने तो दादी, पता नहीं क्या-क्या सुना था कि परीलोक की परियाँ ऐसी होती हैं, वैसी होती हैं। जाने कैसा-कैसा जादू जानती हैं। कैसा ऊँच-नीच, अजब-गजब करती हैं।…छड़ी उठाकर ऐसे घुमाओ तो ये हो जाएगा। वैसे घुमाओ तो वो। पर हमें तो दादी, ऐसा कुछ नजर आया नहीं।…ये तो ऐसी सीधी-सादी है, जैसे इस सुगनी की बेटी नीलो समझ लो। बिल्कुल वही तो है, एकदम धौली धार गौ जैसी…!”
“हाँ, ठीक कहा रधिया, तुमने।” सुगनी चाची बोलीं, “हमें तो ऐसा ही लगता है, जैसे अगल-बगल के किसी गाँव की छोटी है और घूमते-घामते यहाँ आ गई, अपने फागुन गाँव में…!”
“और चाची, छड़ी तो हमने कभी देखी ही नहीं अपनी निम्मा के हाथ में। लोग कहते हैं, परी है, परी।…अरे भई, परी है तो परी की छड़ी भी तो होगी। पर हमें तो नजर नहीं आई कभी…!” कमला ने भी मन की बात कही।
“चाची, मुझे लगता है, ये तो किसी और ही तरह की परी है। बड़ी अच्छी वाली परी, और खूब मेहनत करने वाली परी।” बिन्नी ने बात का सिरा पकड़ा तो उसे जरा दूर तक ले गई। बोली, “अब देखो ना, सुबह से शाम तक किस तरह अपने आदमी बुधना के साथ रोड़ी, मिट्टी के गारे और सीमेंट के तसले उठाती है।…और एकाध नहीं, एक बार में दस-दस ईंटों की ढेरी उठा लेती है। मगर मजाल है, कभी जरा सी सलवट माथे पर आ जाए तो…!”
“अरे, तुझे बताऊँ मैं, बिन्नी।” सुगनी चाची ने तनिक पास खिसककर धीरे से कहा, “एक बार हमारे पप्पू ने पूछ लिया था कभी थोड़ा मजाक-मजाक में ही कि अरे निम्मा भाभी, तुम दिन भर इतनी मेहनत-मजूरी करती हो। सिर पर रोड़ी, गारा, सीमेंट, ईंटें उठाती हो, तो कभी थकती नहीं हो क्या? इस पर तो जी, इतना हँसी, इतनी हँसी कि जैसे कोई हँसी का झरना फूट पड़ा हो। फिर कहने लगी, अरे मेरे प्यारे देवर, काश, तुम जान पाते कि मेहनत में कितना सुख, कितना आनंद मिलता है।…वह सुख बड़े-बड़े पेट वाले सेठों को अपनी तिजोरी में बंद सोने-चाँदी से नहीं मिल सकता, जो एक सीधे-सच्चे मेहनती इनसान को मेहनत करके पसीना बहाने में मिलता है…!”
“पुष्पा तो कह रही थी चाची, कि गाँव में सगरे लोग कहते हैं कि निम्मा परी है, परी है। पर मुझे तो भाई, देखकर कभी लगा ही नहीं कि परी है। बस, एक सीधी-सादी छोरी ही तो है…!”
“नहीं चाची, है तो परी ही। तभी तो ऐसी सुंदर है कि सूरज-चंदा की किरनें भी शरमा जाएँ। बातों में ऐसी मिठास कि सारी धरती पर ढूँढ़ने निकलो तो भी न मिले। और हँसी…! सच्ची, इस निम्मो की हँसी तो मुझे ऐसी लगती है, जैसे छम-छमा-छम चाँदी की घंटियाँ बज रही हों…!” कहते-कहते मोहनी हँसी तो हँसती ही रही देर तक।
“सच्ची पूछो तो हमारे बुधना की किस्मत जाग गई…!” सावितरी बोली, जो दूर के रिश्ते में बुधना की बुआ लगती थी, और उसे बहुत प्यार करती थी।
“पर बुधना भी तो लाखों में एक है। निम्मा परी है तो बनी रहे। पर हमारे बुधना जैसा सीधा-सादा मेहनती इनसान भी तो ढूँढ़ने से नहीं मिलेगा धरती पर…!”
“हाँ, बात तो तुम ठीक ही कह रही हो पुष्पा बहन…!”
यों बुधना और निम्मा की बातें चल पड़ें तो कहीं रुकने का नाम ही नहीं लेती थीं। और फिर किस्सों में से किस्से निकलते थे। उन किस्सों में से कुछ और किस्से…! और लोग जितना सोचने या समझने की कोशिश करते, उतना ही उनका अचरज बढ़ता ही जाता था।
फागुन गाँव की कोई सुबह, कोई शाम ऐसी नहीं थी, जिसमें निम्मा की चर्चा न हो। अब तो हवाओं में भी यह नाम गूँजने लगा था, निम्मा…निम्मा…निम्मा…!!
और तो और, आसपास के गाँव वालों का मेला भी रोज किसी न किसी बहाने फागुन गाँव की ओर चला ही आता था। सबके मन में एक ही गुदगुदी, जरा चलकर बुधना की घरवाली को तो देख लें। कहते हैं, परी है, परी…!
शुरू में फागुन गाँव के लोगों को अजीब लगा था। बड़ा ही अजीब। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले निपट साधारण और काले भुजंग मजदूर बुधना में परी को ऐसा क्या भा गया कि गाँव और शहर में इतने बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों के होते हुए भी उसने बुधना को ही शादी के लिए चुना।
कोई-कोई तो हँसकर कहता, “देखना, चार दिनों की बात है। फिर निम्मा परी खुद ही परेशान होकर छोड़ जाएगी बुधना को। और चल देगी अपने सुख-साज वाले परीलोक में…! भला परियाँ इतनी मेहनत-मजबूरी कर सकती हैं क्या?”
पर होते-होते साल बीता, फिर दो साल, तीन साल, चार साल…और अब तो एक-एक कर पूरे तीस साल हो गए थे। पर वही निम्मा परी, वही बुधना। वही दोनों की मेहनत-मजूरी की अकथ कहानी। सादा खाना, सादा पहनना। पर इतनी खुशी, इतनी खुशी है इनके पास कि लगता है, चारों तरफ छलछला रही है। दोनों के चेहरे पर कोई नूर जैसा नूर…!
इतने दिनों तक उन्हें प्यार से साथ रहते देख, लोग समझ गए कि परी का मन रूप, रंग, दौलत या पैसा नहीं, सच्चा मन देखता है। फिर बुधना का मन तो सच्चे मोती जैसा है, जिसने कभी किसी का बाल बराबर दिल नहीं दुखाया। ऐसा नेकदिल इंसान भला और कहाँ मिलेगा?
पर यह निम्मा परी बुधना के पास आई कैसे? फागुन गाँव में जाकर कभी पूछो, तो पता चलेगा कि वहाँ की औरतें आज भी बड़ा रस ले-लेकर इसका वर्णन करती हैं।
ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Bachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)
