sharda teacher
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

सड़क की ओर देखती हुई आराम कुर्सी पर बैठी सरला के मन में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे। मनुष्य परिवार के लिए त्याग करता है, अपना सारा सुख बच्चों के लिए तजता है। लेकन बुढ़ापे में उसके हाथ क्या लगता है? इस सवाल के साथ-साथ एक चेहरा स्मृति पटल पर उभर आया।

नारी शक्ति का प्रतीक शारदा टीचर।

सरला की आँखों के सामने एक-एक घटना चलचित्र-सी प्रकट हुई। उसने माँ से सुना था कि शारदा टीचर धोबी जात की है। उस जमाने में छुआछूत का इतना अधिक बोलबाला था कि इस जाति के लोगों के साथ गाँव में एक समान व्यवहार नहीं किया जाता था। उनके रहने की बस्ती अलग होती थी। जिसमें सभी लोग गाँव के उच्च जाति के लोगों के कपड़े धोने का कार्य किया करते थे। गाँव के बड़े जलसों में उन्हें जाने की अनुमति नहीं होती थी। वे इतने गरीब थे कि परिवार के भरण-पोषण के लिए उनके बच्चों को मजदूरी कर अपना पेट भरना पड़ता था। उनके रहने के घर कच्चे होते थे, जिनमें शौचालय भी नहीं होता था। क्यूंकि शिक्षा का अभाव था, इसलिए बाल-विवाह की प्रथा भी थी। ऐसे में शारदा टीचर ने बड़ी हिम्मत से काम लिया। उस गरीब लड़की ने गाँव की जाति-प्रथा का कड़ा विरोध किया। उसने दृढ संकल्प लिया था कि पढ़कर कुछ बनना है। परिवार को इस हीन दशा से ऊपर उठाना है।

शारदा टीचर की तीन बहनें और एक भाई था। लेकिन सब कामचोर और बेकार। केवल शारदा टीचर ही पढ़ने में लगनशील और होशियार थी। सुबह-शाम अकेली परिवार का बोझ उठाने वाली विधवा माँ की मदद करती, उस के साथ बावड़ी पर जाती और कपड़े धोने में मदद करती। वहां से दौड़-भाग करती वह पढ़ने के लिए सरकारी विद्यालय में जाती।

जाति एवं गरीबी से हीन होने पर भी उसकी पढ़ने में लगन होने के कारण सभी अध्यापक शारदा से प्यार करते थे और हर तरह से उसकी मदद भी करते थे। उन दिनों सरकारी शिक्षा निःशुल्क थी, तो भी पढ़ने हेतु अन्य आवश्यकताओं की पूर्ती करना बहुत मुश्किल था शारदा के लिए। लेकिन उसे किसी के सामने हाथ फैलाना मंजूर नहीं था। ऐसे में गाँव के संपन्न परिवार वाले अपने पहने हुए कपड़े, पुस्तक, कापियां आदि देकर उसे प्रोत्साहित करते रहते। शारदा भी सभी को बहुत सम्मान देती और उनका धन्यवाद भी करती।

अपने कठिन परिश्रम से शारदा ने दसवीं पास की। यह उसके लिए बड़ी उपलब्धि थी क्यूंकि उसकी जाति की वह पहली लड़की थी जिसने यह मुकाम हासिल किया था। अब उसके समक्ष फिर समस्या थी कि वह आगे की पढ़ाई कैसे जारी रखे।

एक दिन वह धुले हुए कपड़े लेकर गाँव के संपन्न परिवार रामन नायाक्कर के घर में गयी। जैसे ही कपड़े उनके सुपुर्द किए उनकी पत्नी ने शारदा से पूछा “सुना है शारदा तुम्हारा दसवीं का परीक्षाफल आ गया और तुम पास भी हो गयी”

“हम्म” उसने सर नीचा किये हुए कहा।

“तो अब आगे क्या?”

“मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ, पर गाँव में स्कूल नहीं न”

“आगे पढ़ कर क्या करोगी?”

“मैं टीचर बनूंगी” शारदा ने कहा।

“लेकिन टीचर की ट्रेनिंग का कोर्स तो शहर में होता है, उसके लिए मेरी अम्मा-अप्पा के पास रुपये नहीं। मेरे परिवार की स्थिति तो आप जानते ही हैं”

नायाक्कार और उनकी पत्नी की कोई संतान नहीं थी।

सो उनकी पत्नी ने कहा, “इसे पढ़ा कर शिक्षा दान कर दें तो हमें भी धर्म होगा”

नयाक्कार ने अपनी पत्नी की बात समझी और शारदा को शहर भेज टीचर ट्रेनिंग करवाने के लिए मदद करने की ठान ली।

अगली बार जब शारदा उनके घर धोने के कपड़े लेने गयी तो रामन नयाक्कार की पत्नी ने उसे कपड़े देते हुए कहा, “तुम्हें मैंने बचपन से बहुत मेहनत करते हुए देखा है। मैं चाहती हूँ कि तुम आगे अपनी पढ़ाई जारी रखो। इसलिए तुम्हारे लिए शहर में टीचर ट्रेनिंग के लिए मैं व्यवस्था कर देती हूँ”

शारदा तो उनकी बात सुन कर निःशब्द हो गयी थी लेकिन उसकी आँखों से खुशी के मारे अश्रु-धारा बहने लगी थी।

अब समस्या थी कि वह अपने अम्मा-आपा को कैसे समझाए कि वह शहर जायेगी। उन्हें तो उसके ब्याह की फिक्र लगी थी।

नयाक्कार ने उसके अम्मा-अप्पा को भी समझाया कि शहर में कोई इतनी जात-पात नहीं मानता। एक बार लड़की पढ़ जायेगी तो तुम्हारे पूरे परिवार का उद्धार हो जाएगा।

शारदा के अनपढ अम्मा-अप्पा ने नयाक्कार के भरोसे शारदा को शहर भेज दिया। उनकी मदद से शारदा टीचर-ट्रेनिंग कोर्स कर टीचर भी बन गयी।

शारदा अपने ही गाँव के विद्यालय में नौकरी करने लगी। नौकरी के बाद गाँव के धनाढ्य परिवार के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती। वहां से जो आमदनी होती, उसे वह अपने परिवार के भरण-पोषण में खर्च करती। लेकिन कमाने वाली वह एक और खाने वाला पूरा परिवार, फिर भी उसके चहरे पर कभी कोई शिकन नहीं दिखी। वह चाहती थी कि अपने छोटे भाई-बहिन को शिक्षित कर अपने पूरे परिवार को गरीबी से उबार सके।

“अब हमारे परिवार में कोई धोबी का कार्य नहीं करेगा” शारदा ने अपने भाई-बहिन से कहा।

शारदा आँख मींच कर अपनी मेहनत की कमाई उन पर लुटाती रही और कामचोर भाई-बहिन अपनी मौज-मस्ती में लगे रहे। न तो पढ़ाई-लिखाई की और धोबी का काम छोड़ दिया सो अलग।

बड़ी ही मेहनत कर शारदा ने अपनी छोटी बहिन को नर्स बनाया। भाई को एक दुकान खुलवा कर दी ताकि वह कुछ काम-धंधा कर कमा सके।

शारदा के जीवन में भी मौसम ने रंग बदला और एक दिन साथ में पढ़ाने वाले मास्टर शंकरण ने कहा, “शारदा जब से मैं यहां नौकरी कर रहा हूँ, देख रहा हूँ कि तुम अपने परिवार के लिए मधुमक्खी की तरह रात-दिन मेहनत करती हो। तुम्हारे व्यवहार और मेहनत से मैं बहुत प्रभावित हूँ। मैं तुम्हारे इस सत्कर्म में तुम्हारा हमसफर बनाना चाहता हूँ। क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?”

शारदा की उम्र तो विवाह के लायक थी। लेकिन माता-पिता गरीब एवं वृद्ध, आखिर उनका वही तो एक सहारा थी। सो उसने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया और मास्टर शंकरण को विवाह के लिए मना कर दिया।

“शारदा आखिर क्यूँ मना करती हो तुम, क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं?”

“ऐसी बात नहीं मास्टर जी, दरअसल मैं अपनी छोटी बहिन का विवाह पहले करना चाहती हूँ। आप मेरी बहिन से विवाह कर लीजिए”

कुछ महीने लगे किन्त शारदा ने मास्टर जी को अपनी बहिन से विवाह करने के लिए राजी कर लिया।

इसी तरह से शारदा ने अपने छोटे भाई का ब्याह भी किया। उसके भाई-बहिन के परिवार क्या बसे, उन मक्कारों ने तो जैसे माता-पिता एवं शारदा से नाता ही तोड़ लिया।

अब माता-पिता की पूरी जिम्मेदारी शारदा पर थी। उसने उनके बुढ़ापे का सहारा बन कर पूरा ख्याल रखा और एक-एक कर उनका भी स्वर्गवास हो गया।

अब शारदा अपनी सभी जिम्मेदारियों से निपट चुकी थी। साथी शिक्षिकाओं के घर-परिवार बस चुके थे। उनके बच्चे भी विवाह की उम्र के हो गए थे। साथी शिक्षिकाएं उसे अकसर समझाती, “शारदा तुमने सभी के लिए इतना किया, अपना घर कब बनाओगी? तुम्हें भी अपने विवाह और परिवार के बारे में सोचना चाहिए”

लेकिन उसका परिवार तो अब था ही नहीं, उस बेचारी के बारे में कौन सोचता? कौन उसके लिए इस उम्र में ब्याह के लिए लड़का देखता? अभी सोलह की कच्ची उम्र तो रही नहीं कि किसी से प्यार हो जाए”

हाँ, सभी के सलाह देने पर शारदा ने अपने कच्चे घर को पक्के घर में जरूर बदल लिया था। बढ़ती उम्र के कारण अब शरीर भी साथ नहीं देता था, सो गाँव की ही महिला को अपनी देख-रेख के लिए रख लिया था। वैसे भी शारदा टीचर का अब गाँव में बहुत सम्मान था।

सरला भी शारदा टीचर की प्रिय विद्यार्थी थी। वह भी दसवीं के बाद उच्च शिक्षा पाने हेतु शहर गयी थी। जब वह शिक्षा पूरी कर लौटी तो अपनी टीचर से मिलना चाहती थी। शारदा टीचर अब अवकाश प्राप्त कर चुकी थी सो सरला उसके घर गयी। उनका पक्का घर देख उसे बहुत खुशी हुई। लेकिन जब वह अन्दर गयी तो देखा शारदा टीचर शरीर से बहुत कमजोर नजर आ रही थी।

दोनों ने एक-दूसरे के हालचाल पूछे। शारदा टीचर ने अपने बारे में बताते हुए कहा, “सरला देखो अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास जरूर करो। लेकिन उसके लिए स्वयं को न भूल जाओ। मेरा कितना भरा-पूरा परिवार था कि अपने बारे में सोचने को तो फुरसत ही नहीं मिली। लेकिन सभी के पर निकले और वे फुर्र कर उड़ गए। उन्होंने अपने घौंसले बना लिए, अब मैं बिलकुल अकेली हूँ। इसलिए सब कुछ करते हुए तुम अपना घर बसाना न भूलना। मेरे भाई-बहिन कभी मेरे पास भी नहीं फटकते। हालचाल से भी कोई मतलब नहीं, लेकिन इस घर पर सभी की नजर है” इतना कहते हुए उनकी आँखें छलछला आयीं।

थोड़ा समय बीता, शारदा टीचर ने घरवालों से बात गोपनीय रखते हुए अपने छात्रों की मदद से एक ट्रस्ट बनवा लिया और अपनी वसीयत भी तैयार की। जिसमें लिखा था “यह घर मजबूर और असहाय महिलाओं के लिए शरणालय की तरह इस्तेमाल किया जाए। मेरे ब
ैंक में जमा पूंजी से आये सूद से उन महिलाओं के खाने-पीने की व्यवस्था की जाए”

कुछ ही दिनों बाद सरला अपनी टीचर से मिलने गयी और उसने इनके पक्के घर के बाहर एक तख्ती लगा दी जिस पर लिखा था “शारदा निवास”

कुछ समय बाद शारदा टीचर की मृत्यु हो गयी। अब उनके रिश्तेदार गिद्ध की तरह उनके घर मंडराने लगे थे। लेकिन वकील ने जब वसीयत पढ़ी तो उनके चेहरे ऐसे हो गए मानो सांप सूंघ गया हो। एक-एक कर सभी वहां से रवाना हो गए।

सरला भी वहां गयी थी, अपनी टीचर से अंतिम मुलाकात को याद कर उसकी आँखें भर आयीं थीं।

तभी कार का जोर से हॉर्न बजा जिससे उसकी तन्द्रा टूटी। सरला ने देखा उसके पति आये हैं, वह चाय बनाने रसोई की तरफ बढ़ गयी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’