Special Parenting: ऑटिज्म कोई बाधा नहीं, बस एक अलग तरीका है दुनिया को देखने और अनुभव करने का।
यदि सही समय पर सही मार्गदर्शन, धैर्य और प्रेम मिले तो ऑटिज्म वाले बच्चे भी समाज में
आत्मनिर्भर और खुशहाल जीवन जी सकते हैं। जरूरत है कि हम उन्हें ‘सुधारने’ की कोशिश न
करें, बल्कि उन्हें ‘स्वीकारें’- जैसे वे हैं।
वे लोग एक जैसे होते हैं उनके साथ जिंदगी एक आम सी होती है। एक नॉर्मल बच्चा अपनी उम्र के
हिसाब से अपने माइल स्टोंस को पूरा करता है जैसे समय पर घुटने चलना, उठनां-बैठना सीखना और तय उम्र के बाद सही से बातों को समझकर लोगों के साथ बातचीत करना। लेकिन सभी बच्चों के साथ ऐसा नहीं होता। कुछ बात खास होते हैं और उनकी परवरिश के तरीके भी आम बच्चों से जुदा और अलग। इस लेख में हम जानेंगे कि ऑटिज्म वाले बच्चों की देखभाल कैसे की जाए, उनके विकास में कैसे सहयोग किया जाए और उन्हें एक सुरक्षित, सहायक और प्रेमपूर्ण वातावरण कैसे दिया जाए।
ऑटिज्म बीमारी नहीं है
ऑटिज्म एक न्यूरोलॉजिकल स्थिति है, जिसमें बच्चों के व्यवहार, सामाजिक संपर्क, संवाद शैली और सीखने के तरीके में कुछ विशेषताएं होती हैं। हर ऑटिज्म से ग्रस्त बच्चा अलग होता है- कुछ बच्चे बोल नहीं पाते, कुछ दूसरों के साथ घुलनेमिलने में हिचकते हैं, तो कुछ बहुत ही ज्यादा संवेदनशील होते हैं। ऐसे में इन बच्चों की देखभाल करते समय सिर्फ शारीरिक जरूरतें नहीं बल्कि मानसिक और भावनात्मक पहलुओं पर भी विशेष ध्यान देना जरूरी होता है। ऐसा नहीं होता कि
स्पेशल होना कोई नेगेटिव बात है। अगर आपका बच्चा भी स्पेशल है तो आपको हताश होने की नहीं बल्कि मोटिवेट होने की जरूरत है। अगर आप अपने बच्चे की इस स्पेशल जर्नी में कुछ बातों का ध्यान रखेंगी तो ना केवल आप उसके डवलेपमेंट और भी सुधारेंगी बल्कि लोगों के लिए एक
प्रेरणा बनकर उभरेंगी।
स्वीकार करें कि वो अलग है
यह सच है कि जब आप स्वीकार करेंगी की आपका बच्चा औरों से अलग है तो ही समाज स्वीकार करेगा। अक्सर देखा गया है कि अगर बच्चे को बहुत गंभीर समस्या नहीं है तो पेरेंट चाहते हैं कि बच्चे की हाइपर एक्टिविटी या माइल्ड ऑटिज्म किसी को पता नहीं चले। इस बात को अच्छे से समझ लें कि छिपाना समस्या का हल नहीं होता। उस समस्या का समाधान जरूरी है साथ ही आप इस बात को स्वीकार करें कि बच्चा स्पेशल है जब आप एक पेरेंट के तौर पर स्वीकार करेंगी तो ही समाज स्वीकार करेगा।
थेरेपिस्ट पर भरोसा लेकिन ब्लाइंड फेथ नहीं
अक्सर इस तरह की समस्याओं का इलाज किसी दवाई से नहीं होता। ऑटिज्म, हाइपर एक्टिविटी और एडीएचडी जैसी समस्याओं के लिए ऑक्यूपेशनल, बिहेवियर और स्पीच थेरेपी सजेस्ट की जाती है। अच्छी बात है कि आजकल के पेरेंट अवेयर हैं और अपने बच्चों को थेरेपी सैशंस दिलवा रहे हैं। थैरिपी कोई दवाई नहीं है इसमें जो सुधार आते हैं वो बहुत धीरे-धीरे आते आते हैं। आप जिस भी थेरेपिस्ट के पास जा रहे हैं उन पर भरोसा करें। लेकिन अंधा विश्वास हरगिज ना करें। वो लोग जो साल दो साल से थैरेपिस्ट से थैरिपी करवा रहे हैं उनसे बातचीत करें। जब थैरिपी चल रही हो तो
अपना इंवॉल्वमेंट और इंट्रेस्ट भी दिखाएं। जब आप थेरेपिस्ट के साथ बातचीत करेंगे
तो वह भी समझ जाएंगे कि आप सचेत हैं।
छोटे गोल सेट करें

अपने बच्चे के लिए छोटे-छोटे गोल सैट करें। उन्हें अचीव करने की कोशिश करें, यानी अपना एक मंथली प्लान बनाए। जैसे मान लीजिए कि आप उसे एक लक्ष्य दें कि आपका बच्चा और आप जब भी बाहर जाएंगे वो आपका पर्स आपको उठाकर देगा या पानी की बोतल पर्स में रखेगा। आप एक महीने तक उसे ऐसा ही करने को कहें और जब वो इसका पालन करने लग जाए तो समझ जाएं कि आप सही राह पर चल रहे हैं। जब आपका एक गोल अचीव हो जाए तब ही दूसरा गोल सोचें और उसे
हासिल करने की योजना बनाएं।
धैर्य बनाए रखें
आप भी एक इंसान हैं बच्चों को स्कूल लेकर जाना, फिर थेरिपी सैशन लेकर जाना फिर घर में उसके लिए स्पेशल मील बनाना आपको थकाएगा। अक्सर स्पेशल बच्चों के पेरेंट इमोशनली, फिजिकली और फाइनेंशिली टूट जाते हैं। लेकिन आप अंदर एक चीज विकसित करें कि
आपको किसी भी लेवल पर मायूस नहीं होना है। आपको इस बात को समझना होगा कि हर किसी का अपना एक नॉर्मल होता है। हम मछली से तो उम्मीद नहीं कर सकते कि वो उड़ने लगे। ऐसे ही हमें समझनी होगी अपने बच्चे की क्षमताओं को।
डाइट पर भी दें ध्यान
जितनी जरूरी थेरिपी और आपका इंवॉल्वमेंट है उतनी ही जरूरी डाइट भी है। आप थेरेपिस्ट से पूछकर ही डाइट को प्लान करें। अमूमन स्पेशल बच्चों को मीठा मना होता है। खासतौर पर चॉकलेट और पैकेट वाले चिप्स मना किए जाते हैं। इसकी वजह है इनसे बच्चों की एनर्जी और भी बढ़ती है। आप इस बात को गांठ बांध लें कि जो मना किया जा रहा है वो आपको नहीं देना है। इसकी जगह आप उन्हें पौष्टिक आहार दें। मिनरल और विटामिन से भरपूर सब्जियां और मौसमी फल खिलाएं।
रोजमर्रा की दिनचर्या बनाएं
ऑटिज्म वाले बच्चों को रूटीन बहुत पसंद होता है। अगर उनके दिन का एक तयशुदा ढांचा हो, जैसे- कब खाना है, कब खेलना है, कब पढ़ाई करनी है, तो उन्हें सहजता महसूस होती है। चार्ट बनाएं और चित्रों या रंगों के माध्यम से दिनचर्या समझाएं।
अचानक बदलाव से बचें, अगर बदलाव जरूरी हो तो पहले से बता दें।
संचार के वैकल्पिक तरीकों को अपनाएं

सभी ऑटिज्म ग्रस्त बच्चे बोलचाल में कुशल नहीं होते। कुछ बच्चे बोल नहीं पाते, कुछ एक ही शब्द दोहराते हैं। बच्चे से चित्रों की मदद से बात करें या संकेतों या इशारों से उसके साथ संवाद करें। कुछ
मोबाइल एप्स बच्चों की भाषा विकास में मदद करते हैं। बच्चे के पसंदीदा माध्यम को अपनाकर उसके साथ जुड़ना जरूरी है।
सेंसरी जरूरतों को समझें

कई बार ऑटिज्म वाले बच्चों को ध्वनि, गंध, रोशनी या स्पर्श से बहुत ज्यादा परेशानी हो सकती है। ऑटिज्म वाले बच्चे अक्सर तेज आवाज से घबराते हैं।
“वह कुछ कपड़ों की बनावट, कुछ खाने की बनावट से भी चिढ़ जाते हैं। ऐसे में बच्चे की सेंसरी जरूरतों को समझें और वातावरण को उनके अनुसार अनुकूल बनाएं।”
