ऑटिस्टिक बच्चों को जरूरत है स्मार्ट केयर और प्यार की: Autistic Children Care
Autistic Children Needs Smart Care

Autistic Children Care: ऑटिस्टिक बचपन से ही पाया जाने वाला न्यूरो-बिहेवियरल डेवलपमेंट स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर है। जो बच्चे में मस्तिष्क के विकास में विकार होने की वजह से होता है और जिंदगी भर चलता है। यह विकार बच्चे के मानसिक विकास को अवरुद्ध कर देता है, उनके व्यवहार और रोजमर्रा की गतिविधियों को प्रभावित करता है। जिसकी वजह से इन बच्चों के लिए जिंदगी बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाती है। नाॅर्मल बच्चों की अपेक्षा इनका व्यवहार अलग होता है जिसकी वजह से दूसरों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते। ऑटिज्म का नाम सुनकर अक्सर पेरेंट्स परेशान होने लगते हैं। लेकिन अगर वो उनके अलग व्यवहार को पहचाऩ लेते हैं और यथाशीघ्र उपचार शुरू करवाते हैं तो समुचित कदम उठाने पर ऑटिस्टिक बच्चे को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

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ऐसे विशिष्ट बच्चों और उनकी समस्याओं के प्रति माता-पिता को ही नहीं, समाज को भी जागरुक करने की जरूरत है। ताकि ऑटिस्टिक बच्चे उनके साथ सामंजस्य बिठा पाएं और बेहतरीन जीवन जी सकें। इसी उद्देश्य से 2 अप्रैल को विश्व आत्मकेंद्रित जागरूकता दिवस (वर्ल्ड ऑटिस्टिक अवेयरनेस डे) मनाया जाता है।  डब्ल्यूएचओ के हिसाब से बच्चों में पाई जाने वाली विकासात्मक विकलांगता के प्रमुख कारणों में ऑटिज्म डिसऑर्डर तीसरे स्थान पर आता है। 2018 के आंकड़ों के हिसाब से दुनिया भर में 59 बच्चों में से एक बच्चा ऑटिज्म से पीड़ित है। हमारे देश में करीब एक करोड़ बच्चों में यह विकार देखने को मिलता है।

क्या है रेड फ्लेग साइन

आमतौर पर 2-3 साल की उम्र के बच्चों में ऑटिस्टिक का पता चलता हैं जब वे दूसरो के साथ बोलना-समझना शुरू करते हैं। लेकिन इनमें छुटपन से ही बचपन से ही कुछ विशिष्ट व्यवहार देखने को मिल जाते हैं जिन्हें पेरेंट्स को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए-

Red Flag Sign
Red Flag Sign

डेवलेपमेंट माइलस्टोन्स न पाना: पेरेंट्स को अपने 1-2 साल के बच्चे के डेवलेपमेंट माइलस्टोन्स के बारे में जानकारी होना जरूरी है। अगर बच्चा इन माइलस्टोन्स पर खरा न उतर रहा हो, तो उन्हें डेवलेपमेट इंटरवेंशन के लिए जल्द ले जाना चाहिए। जैसे- उम्र के हिसाब से बच्चा बोलना, उठना-बैठना-चलना जैसी एक्टिविटीज को नहीं कर पा रहा हो। या 6 महीने के हिसाब से अपनी समझ, बोलने या भाषाई विकास और दूसरों के साथ कम्यूनिकेशन कर पा रहा है या नहीं।

सोशल चैलेंज: सोशल कम्यूनिकेशन में अगर 3-5 महीने का बच्चे का आई काॅन्टेक्ट नहीं करता या उन्हें देख नहीं रहा या पेरेंट्स के पुचकारने के बावजूद वापिस सोशल स्माइल नहीं देता। या फिर जब बच्चा पेरेंट्स के साथ ठीक तरह से ट्रैकिंग नहीं करता यानी बच्चे के साथ खेलने पर वह मूवमेंट पर ध्यान नहीं देता। दूसरी तरफ देखता रहता है। 12-16 महीने का होने पर जब बच्चा कोई नई चीज़ या खिलौना देने पर कोई रिस्पांस नहीं देता। खुशी जाहिर नहीं करता या स्माइल तक नहीं करता।

कम्यूनिकेशन में देरी: पैदा होने के साथ ही बच्चे को भूख लगने पर चिल्लाने या रोने के रूप में पेरेंट्स के साथ कम्यूनिकेशन करता है। 6 महीने का होते-होते म-ब-ब जैसी आवाजें निकालना या बड़बड़ाना शुरू कर देता है। इसी तरह 12-16 महीने तक अगर अपने परेंट्स को पहचानकर मम्मा-पापा जैसे 20-30 मीनिंगफुल शब्द बोलना शुरू कर देता है। बच्चा अपनी दुनिया में ही खोया रहता है। अगर बच्चा आपको देखकर या आपके बुलाने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता, किसी तरह की आवाज नहीं निकालता या बड़बड़ाता नहीं है या कोई मीनिंगफुल शब्द नहीं बोल पाता- तो यह ऑटिज्म होने का संकेत देता है।

रिपीटिटिव बिहेवियर या रिस्ट्रिक्टिव पैटर्न: आमतौर पर बच्चे किसी भी खिलौने से खेलते वक्त पूरे खिलौने के साथ खेलता है। जबकि ऑटिस्टिक बच्चे पूरे खिलौने के साथ न खेलकर उसके किसी हिस्से के साथ खेलते रहते हैं जैसे खिलौने में बने आंख या कान के साथ। या फिर खिलौने के साथ एक पेटर्न में ही खेलता रहता है। कुछ बच्चे अपनी उंगलियों के साथ ही खेलते रहते हैं। सबसे बड़ी बात कि वो इतना ध्यानमग्न होकर खेलता है कि उसे आसपास होने वाली एक्टिविटीज या हमारे बुलाने का भी पता नहीं चलता।

लिमिटिड इंटरस्ट: ऑटिस्टिक बच्चे किसी एक खिलौने के साथ ही खेलते रहते हैं या एक  पेरेंट के पास रहना पसंद करते हैं। अगर पेरेंट उससे वो खिलौना बदल देते हैं या बहला-फुसला कर दूसरे पेरेंट के पास जाने के लिए कहते हैं, तो वह उसका प्रतिरोध करता है। किसी भी तरह के बदलाव को स्वीकार नहीं करते, रोने-चिल्लाने लगता है।

सेंसरी सेंसिटीविटी: ऑटिस्टिक बच्चे या तो हाइपो-सेंसेटिव होते हैं या हाइपर सेंसेटिव। उनके सेंस ऑर्गन इतने सेंसिटिव होते हैं कि वो तेज आवाज या तेज रोशनी को बर्दाश्त नहीं कर पाते। डरने और रोने लगते हैं।

क्या है कारण

हालांकि अभी तक ऑटिज्म होने के पीछे कोई मेडिकल मार्कर नहीं हैं जिससे सामान्य जांच से इसका पता चल सके। फिर भी अध्ययनों से पता चला है कि ऑटिज्म के पीछे जेनेटिक या जीन्स में क्रोमोसोम की गड़बड़ी की वजह से होता है। न्यरोइमेजिंग अध्ययनों से पता चला है कि ऑटिज्म बच्चों में ब्रेन वाॅल्यूम में गड़बड़ी की वजह से होता है। बच्चे की बिहेवियरल-डेवलेपमेंटल मूल्यांकन करके ही ऑटिज्म की स्थिति का पता चलता है।

कैसे होता है डायग्नोज

मेडिकल प्रोटोकाॅल के हिसाब से बच्चों में ऑटिज्म सिंड्रोम डायगनोज करने के लिए डाॅक्टरों की मल्टीडिस्पलनरी टीम होनी जरूरी है जिसमें डेवलेपमेंटल पीडियाटीशियन, साइकोलाॅजिस्ट, स्पेशल एजुकेटर, ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट, स्पीच थेरेपिस्ट और काउंसलर को शामिल करना जरूरी है। सबसे पहले ऑटिज्म की आशंका वाले बच्चे की स्क्रीनिंग की जाती है। उसके बाद बच्चे के विकासात्मक विलंब और अलग व्यवहार को विभिन्न तरीकों से परखा जाता है। डाॅक्टरों की टीम के मूल्यांकन के बाद यह पता चलता है कि ऑटिज्म किस स्टेज (माइल्ड, माॅडरेट या सीवियर) पर है। ये विशेषज्ञ बहुत प्यार और दुलार के साथ विभिन्न थेरेपी के जरियेे आत्मकेंद्रित बच्चे के व्यवहारए सीखने-बोलने की क्षमता में सुधार लाकर समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करने योग्य बनाते हैं।

क्या है उपचार

चूंकि ऑटिज्म एक सिंड्रोम है। अर्ली डायग्नोज होने पर मल्टी-डिस्पेलिनरी इंटरवेंशन थेरेपी की मदद से उपचार शुरू किया जाता है, तो ये बच्चे आत्मनिर्भर हो सकते हैं। खासकर जिन बच्चों में 0-3 साल की उम्र में ऑटिज्म डायगनोज हो जाता है, और जल्दी उपचार शुरू हो जाता है तो बहुत अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। क्योंकि इस उम्र में बच्चे के मस्तिष्क का विकास हो रहा होता है, उनमें बड़े बच्चों की तुलना में सुधार की गुंजाइश ज्यादा होती है।

बच्चे का डेवलेपमेंट-लेवल और ऑटिज्म की गंभीरता के आधार पर टारगेट तय किया जाता है। मल्टी-डिसिप्लिनेरी एप्रोच अपनाई जाती है। बच्चे की उम्र, स्थिति और जरूरत के हिसाब से लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं। उनके हिसाब से वैज्ञानिक तरीके से अलग-अलग पैटर्न अपनाए जाते हैं। बच्चे के एक-एक बिहेवियर में सुधार  लाकर अगली स्किल सिखाई जाती है। धीरे-धीरे डेवलेपमेंट-माइलस्टोन प्राप्त करने में मदद की जाती है। इसके लिए ऑक्यूपेशनल, स्पीच थेरेपी, बिहेवियरल, एजुकेशनल जैसी थेरेपी की मदद ली जाती है।

बच्चे को ऑटिज्म की स्थिति से निकालने के लिए स्मार्ट केयर जरूरी है। हालांकि ऑटिस्टिक बच्चे का लालन-पालन करना उनके लिए चुनौतीपूर्ण होता है। भावनात्मक रूप से कमजोर पड़ने के बजाय उनके लिए पहले अपना ध्यान रखना और मानसिक रूप से मजबूत होना जरूरी है। सकारात्मक रवैया अपनाते हुए बच्चे की देखभाल के लिए समुचित कदम उठाने चाहिए। पूरे धैर्य के साथ बच्चे के साथ समय बीताना चाहिए और छोटी-छोटी चीजें सिखानी चाहिए ताकि वह आत्मनिर्भर हो सके और समाज में सामंजस्य स्थापित करने योग्य बन सके। 

(डाॅ इमरान नूरानी, डायरेक्टर, माइंड मेडो, चाइल्ड डेवलेपमेंट सेंटर, दिल्ली)