बच्चों में जन्मजात विकारों का बड़ा कारण है देर से शादी और फैमिली प्लानिंग: Birth Anomalies in Children
Birth Anomalies in Children

Birth Anomalies in Children: हाल ही में हंगरी की सेमेल्विस यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने रिसर्च से इस बात का खुलासा किया है कि बच्चा पैदा करने के लिए मां की सही उम्र यानी सेफ एज 23-32 साल के बीच है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ऑब्स्टेट्रिक एंड गाइनाकोलॉजी में प्रकाशित लेख में भी लेट मैरिज और गैर-आनुवांश्कि जन्मजात विकारों के बीच संबंध की पुष्टि की गई है। कुछ समय पहले भारत के आईसीएमआर ने भी महिलाओं के लिए यह गाइडलाइन जारी की थी कि उन्हें समय पर शादी और 28 साल से पहले अपनी फैमिली पूरी कर लेनी चाहिए, वरना कई समस्याएं होने की आशंका रहती है।

जिंदगी में सफल मुकाम हासिल करने की दौड़ में हमारे समाज में युवा वर्ग में देर से शादी का चलन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऊपर से कई शादीशुदा जोड़े 2-3 साल एक-दूसरे के साथ और घर-परिवार से सामंजस्य बिठाने, स्थाई नौकरी पाने के लक्ष्य पाने के लिए निकाल देते हैं। कई दम्पतियों में इस बात की जागरूकता नहीं होती कि फैमिली प्लानिंग का उपयुक्त समय क्या है। बड़ी उम्र में बाहरी तौर पर फिट होने के बावजूद जरूरी नहीं उनकी प्रजनन क्षमता खरी हो। जिसकी वजह से कई बार या तो महिलाएं गर्भधारण नहीं कर पाती या फिर उनके बच्चे में गैर-आनुवांशिक जन्म विकार देखने को मिलते हैं। समाज के पढ़े-लिखे तबके बढ़ती उम्र के साथ आए बदलावों के कारण कई शादीशुदा जोड़े इंफर्टिलिटी का शिकार हो रहे हैं और संतान-सुख से महरूम रह जाते हैं। या फिर मां की बढ़ती उम्र के कारण बच्चे में जन्मजात विकार होने की संभावना भी रहती है। 35-40 साल तक की महिलाओं में 20-25 प्रतिशत और 40 साल से अधिक उम्र की महिलाओं में यह रिस्क 30 प्रतिशत तक रहता है।

क्या होता है असर

Birth Anomalies in Children
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देर से शादी करने पर सबसे ज्यादा बढ़ती उम्र का प्रभाव स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है। यानी स्त्री-पुरूष दोनों की फर्टिलिटी पर असर पड़ता है। उनके स्पर्म और एग्स की क्वालिटी और क्वांटिटी प्रभावित होना शुरू हो जाती है जिसकी वजह से प्रेगनेंसी में मुश्किल आने लगती हैं। महिलाओं में गर्भधारण करने और गर्भावस्था के दौरान कई तरह की जटिलताएं आने लगती हैं। महिलाओं में जेस्टेशनल डायबिटीज, हाइपरटेंशन, कार्डियोवस्कुलर डिजीज होने का खतरा रहता है और बच्चे में क्रोमोसोमल एब्नॉर्मिलिटी या जन्मजात विकार देखे जा सकते हैं।

असल में महिलाओं की फर्टिलिटी का पीक टाइम 22-25 साल की उम्र में होता है। 25 साल की उम्र के बाद एग-काउंट कम होना शुरू हो जाता है। जन्म के समय नवजात महिला शिशु की ओवरी में अपनी मां से एक मिलियन एग्स मिलते हैं, जो प्यूबर्टी स्टेज (10-11 साल की उम्र) तक आते-आते प्राकृतिक रूप से आधे रह जाते हैं। हर महीने महिला की ओवरी से एक एग ओव्यूलेट होता है, लेकिन इस प्रक्रिया में 300-400 एग्स खत्म हो जाते हैं। देर से शादी होने पर महिला के शरीर के विभिन्न सेल्स में मौजूद माइटोकॉन्ड्रिया कमजोर पड़ने लगते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया सेल्स को एनर्जी प्रदान करता है। बढ़ती उम्र के साथ माइटोकॉन्ड्रिया कमजोर पड़ने सेे सेल्स डिजनरेट होने लगते हैं। महिलाओं की ओवरी में मौजूद एग्स पर भी असर पड़ता है। एग्स के माइटोकॉन्ड्रिया सेल्स में एजिंग होनी शुरू हो जाती है जिसकी वजह से माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए डिसऑर्डर होने की समस्या होनी शुरू हो जाती है। एग्स की संख्या में ही नहीं, क्वालिटी भी खराब हो जाती हेै।

देर से शादी होने का असर पुरूषों पर भी होता है। उम्र बढ़ने के साथ पुरूष के डीएनए स्पर्म काउंट विघटित होना शुरू हो जाता है। ऊपर से जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव, अव्यवस्थित जीवनशैली और सिगरेट, एल्कोहल जैसी गलत आदतें भी पुरूषत्व को प्रभावित करती हैं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के हिसाब से आज से तकरीबन 3 दशक पहले पुरुषों का स्पर्म-काउंट 120 मिलियन/मिलीलिटर था। जो वर्तमान में केवल 15 मिलियन/मिलीलीटर रह गया है और यह लगातार घटता जा रहा है। स्पर्म की संरचना में विकृति आने पर पुरूषों की फर्टिलिटी प्रभावित होती है और उन्हें पिता बनने के लिए स्पर्म डोनर की जरूरत पड़ती है।

गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है असर

शिशु में 2 तरह के डिसऑर्डर होने की समस्या आती है-

जेनेटिक डिसऑर्डर- जिन्हें क्रोमोसोम के नंबर का डिसऑर्डर या न्यूमैरिकल क्रोमोसोमल डिसऑर्डर कहा जाता है जिसमें एक क्रोमोसोम बढ़ जाता है तो डाउन सिंड्रोम हो जाता है जबकि एक कम होने पर टर्नल सिंड्रोम हो जाता है।

न्यूरो डेवलेपमेंटल डिले डिसऑर्डर- मां के एग्स के माइटोकॉन्ड्रिया सेल्स में एजिंग होने लगती है जो एग का पॉवरहाउस होता है और एग को एनर्जी प्रदान करता है। इससे एग की मेटाबॉलिज्म धीमी हो जाती है। जिसका असर गर्भ में पल रहे भ्रूण पर पड़ता है। उसका विकास भी धीमा हो जाता है और शिशु में बिहेवियरल डिसऑर्डर हो जाते हैं। कई तरह के न्यूरो डेवलेपमेंटल डिले डिसऑर्डर होने की संभावना बढ़ जाती है जैसे- ऑटिस्टिक स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर। बच्चों में माइल्ड से लेकर सीवियर लेवल तक का ऑटिज्म देखने को मिलता है। कई बच्चों में हाइपर एक्टिविटी सिंड्रोम भी हो जाते हैं। इन बच्चों के क्रोमोसोम नॉर्मल होते हैं, लेकिन इनसे बच्चों केे ब्रेन के विकास पर असर पड़ता है, न्यूरो डेवलेपमेंट डिसऑर्डर होने की संभावना बढ़ जाती है।

कैसे होता है डायगनोज

Birth Anomalies in Children
Birth Anomalies in Children-diagnose

देखा जाए तो यूटरस में पल रहे भ्रूण के विकास पर असर पड़ता है। शिशु की सरंचना में दो तरह की एब्नार्मेलिटीज देखी जाती है-क्रोमासोमल और न्यूरो। इनमें क्रोमोसोमल एब्नार्मेलिटीज का पता गर्भावस्था के दौरान 20वें सप्ताह में किए जाने वाले अल्ट्रासाउंड से पता चल सकता है। जिससे गर्भ में पल रहे शिशु के सॉफ्ट मार्कर्स से पहचाना जा सकता है जैसे- हार्ट में इकोजेनिक इंट्राकार्डियक फोकस हो, या आंतों में हाइपर इकोजेनिक फोकस हो या सिंगल अम्बिलिकल आर्टरी है। आशंका होने पर डॉक्टर क्रोमोसमल एब्नॉमेर्लिटी की जांच करने के लिए एम्नियोसेंटेसिस करके भ्रूण के सेल यूटरस के एमियोनोटिक फ्ल्यूड से निकाल लेते हैं। उसका डीएनए अलग करके जीनोम परीक्षण किया जाता है जिससे शिशु के डिसऑर्ड का पता चल जाता है।

लेकिन ऑटिस्टिक स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर पैदा होने के 1-2 साल बाद ही पता चलता है। नींद न आना, बच्चा बात न करना, सोशल इंटरेक्ट नहीं कर रहा हो या असामान्य बिहेवियर होने पर डॉक्टर को कंसल्ट करने पर पता चल पाता है। ऐसे बच्चों का आईक्यू लेवल सामान्य बच्चों की तुलना में कम होता है। अपनी उम्र के लिहाज से समुचित माइल स्टोन्स पर खरे नहीं उतर पाते। व्यवहार और विकास के नियत मानक पूरे न कर पाने की वजह से दूसरे बच्चों से पिछड़ जाते हैं। ऐसे बच्चों का इलाज स्पेशल केयर और रिहेबलिटेशन थेरेपी से किया जाता है और दैनिक जीवन उनकी दूसरों पर निर्भरता को कम किया जाता है।

कैसे करें बचाव

  • देर से शादी न करें। अगर करते भी है तो ठीक टाइम पर फैमिली प्लानिंग कर लें।
  • अगर गर्भवती हों, तो पहली तिमाही में जरूरी टेस्ट और अल्ट्रासाउंड कराएं। जिससे यह पता चल जाए कि गर्भ में पल रहा शिशु नॉर्मल है या नहीं। वर्तमान में गर्भवती महिलाओं का नॉन इनवेसिव प्रीनेटल टेस्टिंग, एनआईपीटीद्ध नामक ब्लड टेस्ट भी किया जाता है जिसमें ब्लड से भी पता चल सकता है कि बच्चा नॉर्मल है या नहीं।
  • बड़ी उम्र में महिलाओं को हाई-रिस्क प्रेगनेंसी की संभावना बढ़ जाती है। कई महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान प्रेगनेंसी इंड्यूस्ड हाइपरटेंशन, जेस्टेशनल डायबिटीज होने की संभावना ज्यादा रहती है। इसका पता लगाने के लिए पहली तिमाही में महिलाओं की स्क्रीनिंग की जाती है और उन्हें इन्हें कंट्रोल करने के लिए दवाइयां दी जाती है।
  • इन परिस्थितियों में बच्चे में इंटरा युटराइन ग्रोथ रिस्ट्रक्शन हो जाता है। मां का ब्लड समुचित मात्रा में गर्भ में पल रहे बच्चे तक नहीं पहुंच पाता जिससे बच्चे का विकास ठीक तरह नहीं हो पाता। बच्चे की ग्रोथ कम होने पर बच्चे का शारीरिक-मानसिक विकास ठीक तरह नहीं हो पाता। 10-15 प्रतिशत बच्चों में स्पाइन या हार्ट में छेद होना जैसे संरचनात्मक विकार भी काफी देखे जाते हैं। गर्भपात होने की संभावना भी रहती है।

(डॉ नीता सिंह, सीनियर प्रोफेसर, प्रसूति और स्त्री रोग विभाग, एम्स, नई दिल्ली)