चौका -चूल्हा, बच्चे-गृहस्थी आदि औरत की ही जिम्मेदारी होती थी और पिता सिर्फ कमाने भर तक ही सीमित रहता था। बच्चों से उसका नाता औपचारिक रूप से ही होता था, इसलिए लाड़-प्यार, दुलार-देखभाल आदि मां की जिम्मेदारियों से जुड़ती गई और मां, मातृत्व एवं वात्सल्य की मूर्ति बनती चली गई। लेकिन आज वक्त बदल रहा है, ममता एवं वात्सल्य जैसे शब्दों का अर्थ पिता के खाते में भी दर्ज होने लगा है।
पिता आज र्सिफ दो जून की रोटी की दौड़ में ही नहीं बच्चों की परवरिश में भी योगदान दे रहा है। समय के चलते पिता के भीतर स्त्री का हृदय एवं मां की ममता भी उभर कर सामने आने लगी है। आज पुरूष खाना बनाने से लेकर बच्चों की देखभाल करने तक सब कुछ हंसी -खुशी करता है। उसकी मर्दानगी काम और जिम्मेदारियों में विभाजित नहीं होती। शायद यही कारण है कि आज पुरूष भी दफ्तर के साथ-साथ घर की ओर भी उन्मुख हो रहा है और बच्चों के सैरेलेक के डिब्बों के साथ-साथ उनकी नैपी का भी ख्याल रख रहा है।
आज का पुरूष स्त्री की जिम्मेदारियों को समझता है, उसकी मेहनत एवं जीवन में उसके महत्व तथा योगदान को पहचानता है, उसे इस बात का बोध होने लगा है कि एक अच्छे संबंध एवं जीवन में स्त्री-पुरूष रथ के पहिए के समान हैं, जिसमें दोनों का एक साथ चलना बेहद जरूरी है।
आज पुरूष पिता होने का अर्थ जानता है। इस उपलब्धि में छिपी अपनी भूमिका व जिम्मेदारियों को न केवल उठाने का दम रखता है, बल्कि उसमें आनंद भी पाता है। अब इसे परिस्थितियों की मांग कहें या समय की जरूरत, मगर यह सच है कि आज आदमी भी घर का काम-काज करने व बच्चों की परवरिश में अपनी पत्नी को सहयोग दे रहे हैं। इतना ही नहीं वह इस बात को गर्व से स्वीकारते हैं व अपनी सहमति भी जताते हैं कि बच्चा केवल मां की जिम्मेदारी नहीं, पिता की भी है।
जब से परिवार सिमटकर छोटे हुए हैं या संयुक्त से एकल हुए हैं तथा महिलाएं भी घर के बाहर गृहस्थी के लिए कमाने जाने लगी हैं, तब से पुरूषों में घर एवं बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों में भी परिवर्तन आया है।
पुरूष ने काम को काम की तरह लेना शरू कर दिया है, उसे किसी लिंगभेद में नहीं बांटा। फिर उसे अपने बच्चे के लिए दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़े या जल्दी घर आना पड़े या बाथरूम में उसके गंदे कपड़े धोने पड़े। रात को लोरी गाकर सुलाना पड़े या फिर गोद में घंटो तक बच्चे को चुप करना पड़े, सब कुछ पुरूष हंसते-हंसते कर रहा है।
यहां तक कि ब्याह-शादियों में भी आज पुरूषों को बच्चा संभालते हुए आम देखा जा सकता है ताकि बच्चे की मां आराम से खाना खा सकें व पार्टी का मजा लें सके। बस, ट्रेन, सिनेमाघरों, मेलों आदि की कतारों एवं भीड़-भाड़ के इलाकों में एक पुरूष मां से ज्यादा अपने बच्चे की सुरक्षा की चिंता करते हैं। कितने पुरूष तो ऐसे हैं जो बच्चे की जरा-सी चोट या तकलीफ से व्याकुल हो उठते हैं और बेचैन हो जाते हैं। अपने बच्चे से दिन भर की दूरी उन्हें शाम को घर लौटने के लिए न केवल मजबूर कर देती हैं, बल्कि थके-हारे चेहरे पर मुस्कान भी बिखेर देती है।
बच्चे के प्रति पुरूष की यह स्थिति एवं लक्षण पिता में आए बदलाव एवं छिपी ममता को दर्शाते हैं।
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