पिता-पुत्री संबंधों में मधुरता हो, निकटता हो, वैचारिक खुलापन हो तो यह पुत्री के व्यक्तित्व के लिए हर दृष्टिकोण से बेहतर होता है। पुरुषों की मानसिकता में परिवर्तन आया है और अब वे अपनी बेटियों की परवरिश में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

एक समय था, जब यह माना जाता था कि एक बेटी का पालन-पोषण और व्यक्तित्व विकास पूरी तरह मां की जिम्मेदारी है, क्योंकि स्त्री होने के नाते मां ही बेटी की भावनाओं को समझ सकती है और उसकी समस्याओं को सुलझाकर सही दिशा दे सकती है। लेकिन अब पिता की भूमिका बदल रही है, वे अपने बच्चों की परवरिश में बराबर का योगदान दे रहे हैं। दिनों-दिन बढ़ते हुए सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक तनाव को देखते हुए पिता की पूरी भागीदारी सही मायने में आवश्यक हो गई है।

विमहंस के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. जितेंद्र नागपाल कहते हैं, ‘एक लड़की के आत्मसम्मान जैसे गुणों के विकास में पिता की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है। जन्म के समय और पहले चार-पांच साल तक बच्चे (बेटा या बेटी) के जीवन में मां ही सब कुछ होती है, क्योंकि बच्चा अपनी हर जरूरत के लिए मां पर ही आश्रित होता है। लेकिन इसके बाद, खासकर किशोरावस्था में पिता को हर समय अपनी बेटी के लिए मौजूद रहना ही चाहिए। उम्र का यह समय पूरे जीवन की नींव है। इन वर्षों का साथ ताउम्र दिलों में फासले नहीं बनने देता।’ डॉ. नागपाल आगे कहते हैं, ‘हालांकि महानगरीय जीवन में पिता-पुत्री संबंधों में करीबी दिख रही है, लेकिन यहां भी स्थिति भ्रमपूर्ण है। पापा, अपनी बेटी को खूब दुलारते-पुचकारते हैं, लेकिन जब करियर और शादी से जुड़े फैसले करने का समय आता है तब पिता इतने आजाद ख्यालों के नहीं रह पाते। ऐसे में बेटी के विकाास को बड़ी ठेस लगती है। यही कारण है कि आजकल लड़कियां अपनी मां को ही रोल-मॉडल मानती हैं। परिपक्वता आने पर यह बात बेटी भली प्रकार से देख पाती है कि मां अपनी सभी जिम्मेदारियां बिना विचलित हुए कितने सही तरीके से निभा रही है।’

काउंसलर अरूणिमा बनर्जी कहती हैं, ‘एक लड़की के जीवन में पहला पुरुष पिता ही होता है। इसलिए पुरुषों के बारे में कोई भी राय कायम करते समय लड़की अपने पिता की छवि से, अनचाहे ही सही, प्रभावित जरूर होती है। अपने प्रेमी या पति में अपने पिता का प्रतिबिंब तलाशना, कहीं-न-कहीं इसी मानसिकता का प्रभाव है। पिता द्वारा मां को सम्मान दिया जाना, बेटी को बिना सिखाए ही रिश्तों में आत्मसम्मान बनाए रखने की सीख है। अगर घर में पिता का अंदाज हिटलर जैसा है तो लड़कियां हर पुरुष में तानाशाही की प्रवृत्ति ढूंढ लेती हैं, वहीं अगर पिता असभ्य लहजे में बातें करता है, उसमें शराब पीने या हाथ उठाने जैसी आदतें हैं तो लड़की के नजरिये में पुरुष जाति ही क्रूर हो जाती है। कई मामलों में ऐसा भी होता ६८ साधना पथ जून 2019 है कि अपने पिता के दुर्व्यसनों व दुर्व्यवहार से आहत लड़की अपने जीवन में किसी अन्य पुरुष से रिश्ता ही नहीं बनाना चाहती।’

यह सही है कि हर इंसान का व्यवहार उसके पालन-पोषण के परिवेश से ही निर्धारित होता है। एक पुरुष अगर ऐसे माहौल में बड़ा हुआ है, जहां स्त्री और पुरुष में असमानता रही है तो वह ऐसा ही व्यवहार अपने बच्चों से भी करने लग जाता है। लेकिन अपने बच्चों, खासकर बेटी के ह्रश्वयारे से भविष्य के लिए आपको बदलना ही होगा।

डॉ. नागपाल कहते हैं, ‘बेटी को केवल आर्थिक सुख-सुविधाएं नहीं चाहिए, उसे पिता का समय चाहिए, करीबी चाहिए। उसकी बात सुनिए, उसके दोस्तों के बारे में जानिए। उसकी जिंदगी में हस्तक्षेप मत कीजिए, लेकिन किसी मोड़ पर उसे अकेला मत छोड़िए।Ó

डॉ. बनर्जी कहती हैं, ‘बड़ी होती बेटी के मानसिक व शारीरिक बदलावों के कारण पिता-पुत्री में अक्सर दूरियां बन जाती हैं। पिता अक्सर इस दुविधा में रहते हैं कि वे क्या करें और क्या न करें। इस नाजुक उम्र में पिता का साथ बेटी के आत्मविश्वास को बनाए रखने में सहायक होता है।’ इस उम्र में लड़कियां अपनी लुक्स व बढ़ते हुए वजन को लेकर ज्यादा सचेत व संवेदनशील हो जाती हैं। इस बारे में पिता की कोई भी प्रतिक्रिया उसके लिए मायने रखती है। इसलिए बिटिया के पूछे जाने पर भी उसके बाहरी व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी हास्यास्पद न कहें।

छोटी उम्र से ही अपनी बेटी का विश्वास जीतने की कोशिश कीजिए। उसे लगना चाहिए कि आप उसकी बातों को गंभीरता से ले रहे हैं। अगर वह अपने स्कूल की और दोस्तों की बातें आपसे शेयर करती हैं तो इसे अपने तक ही रखिए। उसकी बातों को ध्यान स  सुि नए, सनु ने का दिखावा मत कीजिए।

मां का काम भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि पिता का, यह बात बेटी को बोलकर सिखाना संभव नहीं है। यदि आप घर के कामों में, खाना बनाने में, पत्नी का हाथ बंटाते हैं, तभी यह बात बेटी को समझ में आएगी। बच्चों के लिए रोल मॉडल आपको ही बनना होगा। यह थोड़ा मुश्किल लग सकता है, परंतु इससे आपकी ह्रश्वयारी बिटिया का भविष्य जुड़ा हुआ है।

पुरुषों में छिपा ममत्त्व

आज की पीढ़ी को जानकर अचरज होगा कि आज से पहले चार-पांच पुरानी पीढ़ी वाले पुरुष अपने बच्चे की देखभाल तो दूर उन्हें गोद में उठाना तक अपनी मर्दानगी के खिलाफ समझते थे। उनके लिए पुरुष से पिता होने का सफर घर को एक चिराग या वारिस देने से ज्यादा और कुछ नहीं था। पुरुष कमाता और औरत घर चलाती। पुरुष का पुरुष होना उसके पिता होने तक ही सीमित था और वही उसकी मर्दानगी का सबूत था, इसके अलावा घर के भीतर किसी भी कार्य को करना उसके शान के खिलाफ माना जाता था।

जहां चौका-चूल्हा, बच्चे-गृहस्थी आदि औरत की ही जिम्मेदारी होती थी और पिता सिर्फ कमाने भर तक ही सीमित रहता था। बच्चों से उसका नाता औपचारिक रूप से ही होता था, इसलिए लाड़-ह्रश्वयार, दुलारदे खभाल आदि मां की जिम्मेदारियों में जुड़ती गई और मां मातृत्व एवं वात्सल्य की मूर्ति बनती चली गई। लेकिन आज वक्त बदल रहा है, ममता एवं वात्सल्य जैसे शब्दों का अर्थ पिता के खाते में भी दर्ज होने लगा है।

पिता आज सिर्फ दो जून की रोटी की दौड़ में ही नहीं बच्चों की परवरिश में भी योगदान दे रहा है। समय के चलते पिता के भीतर स्त्री का ह्मदय एवं मां की ममता भी उभर कर सामने आने लगी है। आज पुरुष खाना बनाने से लेकर बच्चों की देखभाल करने तक सब कुछ हंसी-खुशी करता है। उसकी मर्दानगी काम और जिम्मेदारियों में विभाजित नहीं होती। शायद यही कारण है कि आज पुरुष भी दफ्तर के साथ-साथ घर की ओर भी उन्मुख हो रहा है और बच्चों के सैरेलेक के डिब्बों के साथ-साथ उनकी नैपी का भी खयाल रख रहा है।

आज का पुरुष स्त्री की जिम्मेदारियों को समझता है, उसकी मेहनत एवं जीवन में उसके योगदान को पहचानता है, उसे इस बात का बोध होने लगा है कि एक अच्छे संबंध एवं जीवन में स्त्री-पुरुष रथ के पहिए के समान हैं, जिसमें दोनों का एक साथ चलना बेहद जरूरी है।

आज पुरुष पिता होने का अर्थ जानता है। इस उपलब्धि में छिपी अपनी भूमिका व जिम्मेदारियों को न केवल उठाने का दम रखता है, बल्कि उसमें आनंद भी पाता है। अब इसे परिस्थितियों की मांग कहें या समय की जरूरत, मगर यह सच है कि आज आदमी भी घर का काम-काज करने व बच्चों की परवरिश में अपनी पत्नी को सहयोग दे रहे हैं। इतना ही नहीं वह इस बात को गर्व से स्वीकारते हैं व अपनी सहमति भी जताते हैं कि बच्चा केवल मां की जिम्मेदारी नहीं, पिता की भी है।

जब से परिवार सिमटकर छोटे हुए हैं या संयुक्त से एकल हुए हैं तथा महिलाएं भी घर के बाहर गृहस्थी के लिए कमाने जाने लगी है, तब से पुरुषों में घर एवं बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों में भी परिवर्तन आया है। पुरुष ने काम को काम की तरह लेना शुरू कर दिया है, उसे किसी लिंगभेद में नहीं बांटा। फिर उसे अपने बच्चे के लिए दफ्तर से छुट्ट लेनी पड़े या जल्दी घर आना पड़े। उसके लिए किचन में दूध गरम करना पड़े या बाथरूम में उसके गंदे कपड़े धोने पड़े। रात को लोरी गाकर सुलाना पड़े या गोद में घंटो चुप कराना पड़े, सब कुछ पुरुष हंसतेहसते कर रहा है। यहां तक कि ब्याह-शादियों में भी

आज पुरुषों को बच्चा संभालते हुए आम देखा जा सकता है ताकि बच्चे की मां आराम से खाना खा सके व पार्टी का मजा ले सके। बस, ट्रेन, सिनेमाघरों, मेलों आदि की कतारों एवं भीड़-भाड़ के इलाकों में एक पुरुष मां से ज्यादा अपने बच्चे की सुरक्षा की चिंता करते हैं। कितने पुरुष तो ऐसे हैं जो बच्चे की जरा-सी चोट या तकलीफ से व्याकुल हो उठते हैं और बेचैन हो जाते हैं। अपने बच्चे से दिन भर की दूरी उन्हें शाम को घर लौटने के लिए न केवल मजबूर कर देती है, बल्कि थके-हारे चेहरे पर मुस्कान भी बिखेर देती है। बच्चे के प्रति पुरुष की यह स्थिति एवं लक्षण पिता में आए बदलाव एवं छुपी ममता को दर्शाते हैं।

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