Life Lesson: जिन महात्माओं पर भारतवर्ष उचित गर्व कर सकता है, जिनके उपदेश हजारों वर्ष की कालावधि को चीरकर आज भी जीवंत प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं, उनमें जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर भगवान् अग्रगण्य हैं। उनके पुण्य स्मरण से हम निश्चित रूप से गौरवान्वित होते हैं।
भगवान् महावीर एक महान युगदृष्टा महापुरुष थे। उन्होंने अपने समय के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, बौद्धिक आदि सभी क्षेत्रों में व्याप्त विभिन्न दोषों, विषमताओं को दूर किया। स्वयं राजघराने में जन्म लेकर राजसी ऐश्वर्य को पूर्णत: अस्वीकार कर संयम, त्याग और तपस्या में जीवन व्यतीत करते हुए व्यक्ति और समाज को विभिन्न प्रकार के आडम्बरों के भूल-भूलैया से निकालकर धर्म और नैतिकता का पाठ पढ़ाया।
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महावीर का जीवन परिचय

भगवान् महावीर स्वामी का जन्म वैशाली (बिहार) के कुण्डलपुर में, राजा सिद्धार्थ एवं त्रिशला देवी के घर चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को हुआ। महावीर के जन्म से परिवार में समृद्धि बढ़ने लगी। इसे ध्यान में रखकर शायद माता-पिता ने कुमार का नाम वर्द्धमान रखा। साधना काल में उनकी सहिष्णुता को देखकर देवों ने उनको नाम दिया- महावीर। विजय और संजय नामक दो चारणऋद्धि धारी मुनियों ने महावीर को देखा और दर्शन मात्र से इनकी शंका का समाधान होने से उन्होंने नाम दिया सन्मति। भयानक मायामयी भुजंग को वश में करने पर मायावी देव ने प्रकट होकर उन्हें नाम दिया- वीर। बेकाबू हाथी को ऐेसे समय अपने वश में करना जब वह अपनी पूरी ताकत से नगर में उत्पात मचा रहा था, इसके कारण नाम पड़ा- महावीर।
महावीर जैसे-जैसे युवा होते गए उनका मन संसार से विरक्त होने लगा। साधक महावीर ने जहां एक ओर शरीर की आसक्ति को जीतने और भूख प्यास, रोग-शोक जैसी शारीरिक व्याधियों को मिटा देने का प्रयास प्रारंभ किया, एक-एक और दो-दो मासों का गहन उपवास करके इन्होंने अनासक्ति को मूर्तमान बनाया, तो वहीं दूसरी ओर उन्होंने आत्मवत सर्वभूतेषु को भी अपने जीवन में साकार बना देने का अनुष्ठान किया था। मनोविज्ञान की सूक्ष्म गति और गहरे प्रभाव को उन्होंने अपने रोम-रोम में विकसित कर लिया था। मौन रहकर ही वे अपने आंतरिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव से जन-जन की कष्टदायक विषमताओं का अंत करने में सफल हुए थे। उनके शरीर से ऐसा तेजोमयी प्रभावमंडल उद्भूत हुआ करता था। कि उनकी छाया में जो भी जाता, वह बैर और विरोध को खो देता था।
भगवान् महावीर की साधना विसर्जन की साधना थी।
मुनि दीक्षा स्वीकार करते समय उन्होंने संकल्प किया। मैं इस शरीर को आत्मा के लिए समर्पित करता हूं। शरीर मेरा नहीं है, इस भावना के साथ शरीर का उपयोग करूंगा। नदी को पार करने के लिए नौका की जरूरत है। एक नौका की भांति उसे काम में लूंगा। कोई भी कष्ट आए, उसे आत्मा में रखकर सहन करूंगा।
महावीर के सिद्धांत

तीर्थंकर महावीर ने मानव-मानव के बीच समता के लिए परस्पर दयामय व्यवहार करने और संयम यापन करने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा था कि तुम बाहरी शत्रुओं से क्यों लड़ते हो, अगर लड़ना है, तो अपने अंतरंग के शत्रुओं से लड़ो। महावीर का नाम यदि आज किसी खास कौम या फिर किसी के लिए जाना जाता है, तो वह है- ‘अहिंसाÓ का संदेश ‘जियो और जीने दोÓ का संदेश मानवता व इंसानियत को सृदृढ़ बनाने के लिए उपयोगी व कारगर साबित हुआ। उनके सिद्धांत केवल जैनों तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि उनके सिद्धांतों ने संपूर्ण प्राणी तक पहुंचकर उन्हें एक नया जीवन दिया। तीर्थंकर महावीर की अहिंसा का संदेश ईरान से आगे फिलिस्तीन, मिश्र और यूनान तक पहुंचा था। फिलिस्तीन के एक्सेन लोग कट्टर अहिंसावादी थे। मिश्र में भी शाकाहार को आश्रय दिया गया।
भगवान् महावीर ने ‘अहिंसा परमो
धर्म: यतो धर्मस्ततो जय:Ó मूल सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इस परम वाक्य को भारत ने ही नहीं, अपितु सारे विश्व ने माना है। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मïचर्य का ही उपदेश प्राणी मात्र को दिया।
भगवान् महावीर ने समाज कल्याण के लिए और उसकी व्यवस्था बनाए रखने के लिए मूल समाज व्यवस्था का संदेश दिया। उन्होंने कहा है कि मनुष्य जो भी कर्म करता है उन्हीं कर्मों के करने से वह शूद्र, ब्राह्मïण, क्षत्रिय, वैश्य कहलाने का पात्र बनता है। जन्म से कोई भी मनुष्य जाति बंधन से युक्त नहीं होता, परंतु कर्म करने से ही उच्च संज्ञा प्राप्त करता है।
क्रांति के अग्रदूत भगवान् महावीर
क्रांति वैयक्तिक होती है, सामाजिक नहीं। व्यक्ति से समाज बनता है, समाज से व्यक्ति नहीं। इसलिए वैयक्तिक क्रांति ही सामाजिक क्रांति की पृष्ठभूमि है। वैयक्तिक शुद्धि, सामाजिक शुद्धि का आधार है। व्यक्ति में चेतना होती है, बोध होता है। भीड़ चेतना विहीन रहती है। उसके पास आत्मा नाम का तत्त्व नही है। इसलिए क्रांतियों की वास्तविकता स्टालिन, माओ और टीटो के खूनी कदमों में नहीं, महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुषों की अहिंसक पदचापों में हैं। महावीर की क्रांति, बोध की क्रांति रही है जहां दिए जले और उन्होंने अंधकार को यथाशक्ति दूरकर व्यक्ति का रूपांतरण किया।
वर्धमान महावीर क्रांति के अग्रदूत थे। उन्होंने सर्वप्रथम व्यक्ति के चरित्र को संवारकर समाज की चारित्रिक क्रांति पर बल दिया और अध्यात्मसूत्र के आधार पर व्यक्ति और समाज को मिलाने की अनूठा प्रयास किया है।
भगवान् महावीर में स्वास्थ्य, समाज निर्माण और आदर्श व्यक्ति निर्माण की तड़प थी। यद्यपि स्वयं उनके लिए समस्त ऐश्वर्य और वैलासिक उपादान प्रस्तुत थे तथापि उनका मन उसमें नहीं लगा। वे जिस बिंदु पर व्यक्ति और समाज को ले जाना चाहते थे उसके अनुकूल परिस्थितियां उस समय नहीं थी। धार्मिक जड़ता और अंध श्रद्धा ने सबको पुरुषार्थरहित बना रखा था। इस विषय और चेतना रहित परिवेश में महावीर का दायित्व महान था।
भगवान् महावीर ने प्रमुख रूप से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक व बौद्धिक दृष्टि से अभूतपूर्व क्रांति की है।
धार्मिक क्रांति- भगवान् महावीर ने देखा कि धर्म को लोग उपासना की नहीं प्रदर्शन की वस्तु समझने लगे हैं। उसके लिए मन के विकारों और विभावों का त्याग आवश्यक नहीं रहा, आवश्यक रहा यज्ञ में भौतिक सामग्री की आहूत देना, यहां तक कि यज्ञ में पशुओं का बलिदान करना। धर्म अपने स्वभाव को भूलकर एकदम क्रियाकांड बन गया था। अत: भगवान् महावीर ने प्रचलित धर्म उपासना पद्धति का तीव्र शब्दों में खंडन किया और बताया कि ईश्वरत्व को प्राप्त करने के साधनों पर किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं है। वह तो स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त और निर्विकार है। उसे हर व्यक्ति चाहे वह किसी जाति, वर्ग, धर्म या लिंग का हो मन की शुद्धता और आचरण की पवित्रता के बल पर प्राप्त कर सकता है।
महावीर ने ईश्वर को इतना व्यापक बना दिया कि कोई भी आत्मसाधक ईश्वर को प्राप्त ही नहीं करे वरन स्वयं ही ईश्वर बन जाए। इस भावना ने असहाय, निष्क्रिय जनता के हृदय में शक्ति, आत्मविश्वास और आत्मबल का तेज भरा। इस प्रकार धर्म के क्षेत्र से दलालों और मध्यस्थों को बाहर निकालकर, महावीर ने सही उपासना पद्धति का सूत्रपात किया।
सामाजिक क्रांति- महावीर यह अच्छी तरह जानते थे कि धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप जो नई जीवन-दृष्टि मिलेगी उसका क्रियान्वयन करने के लिए समाज में प्रचलित रूढ़ि मूल्यों को भी बदलना पड़ेगा। इसी संदर्भ में महावीर ने सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। इस समय समाज में वर्ण भेद अपने उभार पर था। ब्राह्मïण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की जो अवधारणा कभी कर्म के आधार पर सामाजिक सुधार के लिए, श्रम-विभाजन को ध्यान मे रखकर की गई थी, वह आते-आते रूढ़िग्रस्त हो गई और उसका आधार अब जन्म रह गया। जन्म से ही व्यक्ति ब्राह्मïण, क्षत्रिय और वैश्य और शुद्र कहलाने लगा। फल यह हुआ कि शुद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई। नारी जाति की भी यही स्थिति थी। अत: महावीर ने बड़ी दृढ़ता और निश्चितन्तता के साथ शूद्रों और नारी जाति को अपने धर्म में दीक्षित किया और यह घोषणा की कि जन्म से कोई ब्राह्मïण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि नहीं होता, सब कर्म से ही होता है। महावीर ने कहा था व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है।
आदर्श समाज कैसा हो? इस पर महावीर की दृष्टि रही। इसीलिए उन्होंने व्यक्ति के जीवन में व्रत साधना की भूमिका प्रस्तुत की। श्रावक के बारह व्रतों में समाजवादी समाज-रचना के आधारभूत तत्त्व किसी न किसी रूप में समाविष्ट हैं। व्रतों को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति, जिस समाज के अंग होंगे, वह समाज कितना आदर्श, प्रगतिशील और चरित्रनिष्ठ होगा। शक्ति और शील का एवं प्रवृत्ति का यह सुंदर सामंजस्य ही समाजवादी समाज रचना का मूलाधार होना चाहिए। महावीर की यह सामाजिक क्रांति हिंसक न होकर समन्वयमूलक है।
आर्थिक क्रांति- आवश्यकता से अधिक संग्रह करने पर दो समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। पहली समस्या का संबंध व्यक्ति से है और दूसरी का समाज से। अनावश्यक संग्रह करने पर व्यक्ति लोभीवृत्ति की ओर अग्रसर होता है और समाज का शेष अंग उस वस्तु से वंचित रहता है। फलस्वरूप समाज में दो वर्ग हो जाते हैं एक संपन्न, दूसरा विपन्न और दोनों में संघर्ष प्रारंभ होता है। कार्ल मार्क्स ने इसे वर्ग संघर्ष की संज्ञा दी है, और इसका हल हिंसक क्रांति में ढूंढा है। पर महावीर ने इस आर्थिक वैषम्य को मिटाने के लिए अपरिग्रह की विचारधारा रखी है। इसका सीधा अर्थ है- ममत्व को कम करना, अनावश्यक संग्रह न करना। जितनी अपनी आवश्यकता हो, उसे पूरा करने की दृष्टि से प्रवृत्ति का मर्यादित और आत्मा को परिष्कृत करना जरूरी है। श्रावक के बारह व्रतों में इन सबकी भूमिकाएं निहित हैं। मार्क्स की महावीर की यह आर्थिक क्रांति चेतनामूलक है। इसका केंद्र बिन्दु कोई जड़ पदार्थ नहीं वरन व्यक्ति स्वयं है।
बौद्धिक क्रांति- महावीर ने यह अच्छी तरह जान लिया था कि जीवनतत्त्व अपने में पूर्ण होते हुए भी वह कई अंशों की अखंड समाप्ति है। इसलिए अंशों को समझने के लिए अंश को समझना जरूरी है। सामान्यत: समाज में जो झगड़ा या वाद-विवाद होता है, वह दुराग्रह, हठवादिता और एक पक्ष पर अड़े रहने के ही कारण होता है। यदि उसके समस्त पहलुओं को अच्छी तरह देख लिया जाए तो कहीं न कहीं सत्यांश निकल आएगा। इस बौद्धिक दृष्टिकोण को ही महावीर ने स्याद्वाद या अनेकांतवाद दर्शन कहा। उन्होंने स्यादवाद (सापेक्षता), अनेकांतवाद (विचारों की बहुलता) एवं अपरिग्रह के सिद्धांत (कोई भी वस्तु संचित ना करना) दिए। आचार में अहिंसा की और विचार में अनेकांत की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी क्रांतिमूलक दृष्टि को व्यापकता दी।
विभिन्न क्रांतियों के मूल में महावीर का वीर व्यक्तित्व झांकता है। वे वीर ही नहीं, महावीर थे।

भगवान् महावीर का उपदेश
किसी भी प्राणी का घात मत करो। जिस प्रकार दुख सुख का अनुभव होता है उसी प्रकार दूसरे प्राणी भी दुख का अनुभव करते हैं। अहिंसा-हिंसा मत करो। उन्होंने अहिंसा का प्रयोग समग्र जीवन के लिए बताया। उन्होंने हिंसा नरक का रास्ता और अहिंसा स्वर्ग का रास्ता बनाया है। महात्मा गांधी ने अहिंसा के इसी सिद्धांत को ग्रहण कर समाज को ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व को प्रभावित किया है।
भगवान् महावीर का कहना, ‘अपने इष्ट मित्रों से एवं दुश्मनों से भी प्रियवचन बोलो, जिससे उनके अंतरंग में स्नेहता, मधुरता प्रफुल्लित हो।’ मधुर वचन जितना आनंद प्रदान करता है उतना चन्द्रमा की शीतल किरणें भी आनंद नहीं दे सकती, इसलिए उन्होंने सत्य हितकर प्रिय वचन बोलने का उपदेश दिया। इससे समाज में एक दूसरे के प्रति कल्याण की भावना का समावेश होता है। यही आज के युग में व्यवहार धर्म है। उनका कहना था मधुर वचन बोलने से आश्रय एवं सहयोग की प्राप्ति होती है।
महावीर की महावीरता का स्वरूप आत्मागत अधिक था। उसमें दुष्टों से प्रतिकार या प्रतिशोध लेने की भावना नहीं थी वरन दुष्ट के हृदय को परिवर्तित कर उसमें मानवीय सद्गुणों दया, प्रेम, सदाशयता, करूणा आदि को प्रस्थापित करने की प्रेरणा अधिक है और यही कारण है कि इतने वर्षों बाद अहिंसा का संदेश देने वाले महावीर को पूरी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ स्मरण किया जाता है। ईसा पूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक माह की अमवस्या को 72 वर्ष की आयु में महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया।
