नाथों के नाथ भगवान शिव का मंदिर -केदारनाथ मंदिर: Kedarnath Temple
History of Kedarnath Temple

Kedarnath Temple: जून 2013 के दौरान भारत के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश राज्यों में अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन के कारण केदारनाथ सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा। मंदिर की दीवारें गिर गईं और बाढ़ में बह गईं। इस ऐतिहासिक मन्दिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे लेकिन मन्दिर का प्रवेश द्वार और उसके आसपास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया।

भगवान शंकर कामनाओं की पूर्ति करने वाले महादेव शिव शंकर हैं। भगवान शिव की पूजा, अर्चना, अभिषेक और उपासना की प्राचीनता सर्वमान्य है। जो इनके 16 सोमवार के व्रत, भक्ति-भावना के साथ रखता है, उसकी कामना कभी अधूरी नहीं रहती है। शिव पुराण में उल्लेख किया गया है कि श्रावण मास में किए गए पूजन और जल धाराओं से न केवल भगवान शिव की कृपा होती है, बल्कि साधक पर मां गौरी, गणेश और लक्ष्मी की कृपा भी बनी रहती है। भगवान शिव शुद्ध, सनातन, परब्रह्मï हैं। उनकी उपासना परम लाभ के लिए ही या उनका पुनीत प्रेम प्राप्त करने के लिए ही करनी चाहिए। भगवान शंकर की शरण लेने से कर्म शुभ और निष्काम हो जाएंगे, जिससे आप ही सांसारिक कष्टों का नाश हो जाएगा। भगवान शिव की उपासना और साधना की प्राचीनता, प्रचुरता और चमत्कार सर्वमान्य है। देवताओं के अलावा दानवों में भी असुरराज शिव भक्त रावण, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, लवणासुर, भस्मासुर, गजासुर, बाणासुर आदि राक्षसों और दानवों ने भी, देवाधिदेव भगवान शिव की आराधना कर, उनसे अपना अभ्युदय किया।

कथा

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनकी प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है। पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे।

भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतर्ध्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ़ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।

केदारनाथ की महिमा व इतिहास

Kedarnath Temple
Kedarnath Temple History

यह मन्दिर एक छह फीट ऊंचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर के मुख्य भाग में मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हां ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी। यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था लेकिन वक्त के थपेड़ों की मार के चलते यह मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने एक नए मंदिर का निर्माण कराया, जो 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12वीं-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था। उत्तराखंड में स्थित बारह ज्योतिर्लिंग में से एक केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति और मंदिर के निर्माण को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। इस मंदिर को सर्वप्रथम किसने बनाया इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन ज्ञात इतिहास अनुसार 3500 ईसा पूर्व पांडवों ने इसका निर्माण किया, फिर 8वीं सदी में शंकराचार्य ने और बाद में 10वीं सदी के मध्य में इसका पुन:निर्माण कराया मालवा के राजा भोज ने। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ मंदिर का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुन: निर्माण कराया था। कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा। राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं। उन्होंने समरांगण सूत्रधार, सरस्वती कंठाभरण, सिद्धांत संग्रह, श्राजकार्तड, योग्यसूत्रवृत्ति, श्री विद्या विनोद, युक्ति कल्पतरु, आदित्य प्रताप सिद्धांत, आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, श्रृंगार मंजरी, भोजचम्पू, कृत्यकल्पतरु, तत्त्वप्रकाश, शब्दानुशासन, श्राज्मृडाड आदि ग्रंथों की रचना की। भोज प्रबंधन नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात् उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्य-काव्य के लिए विख्यात है। आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्व मंदिर करीब 1000 वर्ष पुराना है। यहां स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। पौराणिक प्रमाण के अनुसार केदार महिष अर्थात् भैंसे का पिछला अंग (भाग) है। केदारनाथ मंदिर की ऊंचाई 80 फुट है, जो एक विशाल चौकोर चबूतरे पर खड़ा है। पुराणों के अनुसार भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अन्तर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग कल्पेश्वर में जटाओं के रूप में प्रतिष्ठित है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और केदार में बैल के धड़ के रूप में। इसलिए इन चार स्थानों सहित केदारनाथ को पंचकेदार भी कहा जाता है। शिव पुराण अनुसार केदारतीर्थ में पहुंचकर, वहां केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का पूजन कर जो मनुष्य वहां का जल पी लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। स्कंद पुराण में भगवान शंकर माता पार्वती से कहते हैं, हे प्राणेश्वरी! यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है, जितना कि मैं हूं। मैंने इसी स्थान पर सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्म के रूप में परब्रह्मïत्त्व को प्राप्त किया, तभी से यह स्थान मेरा चिर-परिचित आवास है। यह केदारखंड मेरा चिरनिवास होने के कारण भूस्वर्ग के समान है।

केदारनाथ की संरचना

यह उत्तराखंड का सबसे विशाल शिव मंदिर है, जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे 80वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से पोली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं। 85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई हैं।
मंदिर को 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ तो दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां। मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ को काल्पनिक माना जाता है। इस इलाके में मंदाकिनी ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किए बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मïी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। 1882 के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियां हैं। पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है। इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान हैं। जबकि पुजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं।

मन्दिर की पूजा

श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात् धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मïण ही होते हैं। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन प्रात: चार बजे, श्री केदार को घृत, कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गांधी सरोवर व वासुकीताल हैं। भगवान की पूजाओं के क्रम में प्रात:कालिक पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिषेक, लघु रुद्राभिषेक, षोडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पाण्डव पूजा, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वती जी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम आदि प्रमुख हैं।

समस्त कष्टों के निवारणार्थ शिव अभिषेक

जन्मपत्री में ग्रह अपनी दशाओं, अंतर्दशाओं या कला-विकला के आधार पर परेशान कर रहे हैं, तो शिवरात्रि के दिन, शिवलिंग पूजन अपने ग्रहों के आधार पर करते हैं, तो कष्टों से निवृत्ति मिल सकती है। यदि जन्मपत्रिका में सूर्य से संबंधित कष्ट है, तो शिवलिंग पूजन, आक के पुष्पों-पत्तों एवं बिल्व पत्रों से करने से 3 जन्मों के पापों का नाश हो जाता है। जन्मपत्रिका में मंगल से संबंधित बिमारियां, जैसे रक्त संबंधित रोग हों, तो गिलोय जड़ी-बूटी के रस से अभिषेक करें। यदि जन्मपत्रिका में बुध से संबंधित बिमारियां (चर्म रोग, गुर्दे की बीमारी आदि) हैं, तो विदारा जड़ी-बूटी के रस से अभिषेक करें। यदि जन्मपत्रिका में बृहस्पति से संबंधित बिमारियां (जैसे चर्बी, आंतों, लिवर की बीमारी आदि) है, तो शिवलिंग पर हल्दी मिश्रित दूध चढ़ाएं। यदि जन्मपत्रिका में शुक्र से संबंधित (वीर्य, मल-मूत्र, शारीरिक शक्ति) बिमारियां हैं तो पंचामृत, शहद, घृत से शिवलिंग का अभिषेक करें। यदि कुंडली में शनि से संबंधित (मांसपेशियों का दर्द, जोड़ों का दर्द, वायु रोग, लाइलाज रोग) बिमारियां हैं, तो गन्ने के रस और छाछ से शिवलिंग का अभिषेक करें। राहु-केतु से संबंधित बिमारियों (सिर चकराना, मानसिक परेशानी, अधरंग आदि) के लिए, उपर्युक्त सभी वस्तुओं के साथ, मृत संजीवनी का सवा लाख जाप करा कर भांग-धतूरे से शिवलिंग का अभिषेक करें। यदि पति-पत्नी में प्रेम न हो, गृह क्लेश हो, ब्याह-शादी में रुकावट आ रही हो, तो मक्खन मिस्री मिला कर, बिल्व पत्र पर रख कर, 108 बिल्व पत्र चढ़ाएं। यदि धन की इच्छा हो, तो खीर से अभिषेक करें। यदि सुख-समृद्धि की इच्छा हो, तो भांग को घोट कर अभिषेक करें। मारकेश या मारक दशा चल रही हो, तो मृत संजीवनी या महामृत्युंजय का सवा लाख मंत्रों का जाप करवाएं और अभिषेक करवाएं। काल सर्प के लिए भी शिव पूजा विशेष फलदायी है। शत्रु विनाश के लिए सरसों के तेल का अभिषेक कराएं। अगर पुत्र की प्राप्ति करनी है, तो मक्खन से शिवलिंग का अभिषेक कराएं। धन प्राप्ति हेतु स्फटिक के शिवलिंग पर दूध से अभिषेक करें। आयु वृद्धि के लिए गौ घृत से अभिषेक करें। ऋषि-सिद्धि प्राप्ति के लिए पारद शिवलिंग का पूजन और अभिषेक करें। धन प्राप्ति हेतु स्फटिक के शिवलिंग पर दूध से अभिषेक करें। आयु वृद्धि के लिए गौ घृत से अभिषेक करें। मकान, भूमि, भवन, वाहन आदि की प्राप्ति के लिए शहद से अभिषेक करें। सर्वार्थ मनारेथ के लिए 108 बिल्व पत्र पर श्री राम लिख कर 108 दिन चढ़ाएं। कलियुग में पार्थिव शिवलिंग, अर्थात् बांबी, गंगा, तालाब, वेश्या के घर और घुड़साल की मिट्टी, मक्खन-मिस्री मिला कर बनाएं और सभी प्रकार की मनोकामना के लिए इसका अभिषेक करें। लेकिन सायं काल सभी शिवलिंगों को जल में प्रवाहित कर दें। फूलों से बनाए गए शिवलिंग के पूजन से भू-संपत्ति प्राप्त होती है। जौ, गेहूं, चावल तीनों का आटा समान भाग मिला कर, जो शिवलिंग बनाया जाता है, उसकी पूजा स्वास्थ्य, श्री और संतान देती है। मिस्री से बनाए हुए शिवलिंग की पूजा रोग से छुटकारा दिलाती है। सुख-शांति की प्राप्ति के लिए चीनी की चाशनी से बने शिवलिंग का पूजन होता है। बांस के अंकुर को शिवलिंग के समान काट कर पूजन करने से वंश वृद्धि होती है। दही को कपड़े में बांध कर निचोड़ देने के पश्चात् उससे जो शिवलिंग बनता है, उसका पूजन लक्ष्मी और सुख प्रदान करने वाला होता है। गुड़ में अन्न चिपका कर शिवलिंग बना कर पूजा करने से कृषि उत्पादन अधिक होता है। किसी भी फल को शिवलिंग के समीप रख कर उसका रुद्राभिषेक मुक्तिप्रदाता होता है। दूर्वा को शिव लिंगाकार गंूथ कर उसकी पूजा करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है। कपूर से बने शिवलिंग का पूजन भक्ति और मुक्ति देता है। मोती के शिवलिंग का पूजन स्त्री की भाग्य वृद्धि करता है। लोहे से बने शिवलिंग का पूजन सिद्धि देता है। स्वर्ण निर्मित शिवलिंग का रुद्राभिषेक समृद्धि का वर्धन करता है। चांदी के शिवलिंग का रुद्राभिषेक धन-धान्य बढ़ाता है। पीतल के शिवलिंग का रुद्राभिषेक दरिद्रता का निवारण करता है। लहसुनिया के शिवलिंग का रुद्राभिषेक शत्रुओं का नाश करता है और विजयदाता होता है। पारद से बने शिवलिंग का पूजन सर्वकामनाप्रद, मोक्षप्रद है। क उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था। राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती के मंदिरों का भी निर्माण किया।

KEDARNATH TEMPLE

केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। मान्यता है कि समूचा काशी क्षेत्र शिव के त्रिशूल पर बसा है। त्रिशूल हिमालय की तीन चोटियों के समूह का नाम भी है। उत्तरकाशी को प्राचीन काशी माना जाता है। एक काशी उत्तरप्रदेश में स्थित है जिसे वाराणसी भी कहा जाता है। यह काशी भी शिव के त्रिशूल पर बसी हुई है। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में एक गुप्तकाशी स्थान भी है। गुप्तकाशी का वही महत्त्व है जो महत्त्व काशी का है। मंदिर के पास से ही मन्दाकिनी नदी बहती है।