Spiritual Thoughts: परमात्मा को केवल महसूस किया जा सकता है। उसे हथेली पर नहीं दिखाया जा सकता है। उसे महसूस करो। वह तुम्हारी हर धड़कन में धड़क रहा है, तुम्हारे भीतर ही है। उसे कहीं बाहर तलाशने की जरूरत नहीं है। बस खुद में खोजने की और खोदने की जरूरत है।
एक नाव है। जहाज है। समुद्र में चलता है। नदी पार चला जाता है। डूबता नहीं है। क्यों? क्योंकि उसमे छिद्र नहीं होता है। इसी प्रकार जिसने अपनी चेतना को निश्छिद्र बना लिया, वह संसार-रूपी समुद्र में रहते हुए भी डूबता नहीं है। उसके भीतर ऌपाप रूपी जल प्रवेश होता ही नहीं है। संसार में रहो पर ध्यान रहे कि मन में संसार न घुस पाए। नाव जल में रहे पर जल नाव में नहीं घुस पाए। जल नाव में घुस गया तो नाव भी डूब जाएगी, नाव में सवार लोग भी डूब जाएंगे। कमल कीचड़ में रहे पर कीचड़ कमल पर नहीं चढ़ना चाहिए। ठीक इसी तरह आदमी भी दुनिया में रहे पर दुनिया मन पर नहीं चढ़नी चाहिए।
गऊ निकसि वन जाहीं,
बाछा उसका घर ही माहीं।
तृण चरहि सुत ऌपासा, गहि
जुक्ति साध जग कसा॥
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गाय चरने के लिए जंगल जाती है, जाना पड़ता है, उसका बछड़ा घर रहता है। बछड़े को छोड़कर जंगल की तरफ जाती है, पर पीछे मुड़-मुड़कर अपने बछड़े को देखती है। जंगल में घास चरते समय भी हर पल ख्याल अपने बछड़े का बना रहता है। घास भी चरती है तो बछड़े के लिए ही चर रही है, उसे दूध जो पिलाना है। बछड़े से दूर रहती है पर एक पल के लिए भी बछड़े को भूलती नहीं है। उसके भीतर-भीतर उसका स्मरण बना रहता है।
कबीर से किसी ने कहा- दुनिया आपको वैरागी कहती है, साधु मानती है लेकिन मुझे तो आपमें साधु का कोई लक्षण नहीं दिखता। आप कैसे वैरागी हैं? दिनभर पत्नी से, अपने बच्चे से बातचीत करते रहते हो, जुलाहा हो, कपड़े बुनते रहते हो फिर भगवान का भजन कब करते हो? उसका नाम स्मरण कब करते हो? पूछने वाला कबीर का कोई पड़ोसी ही था। ध्यान रखना कि दुनिया तुम्हारी कीमत भले आंक ले और तुम्हें जगद्गुरु मानने लगे लेकिन तुम्हारी पत्नी, पुत्र और पड़ोसी कभी तुम्हारा मूल्यांकन नहीं कर सकते।
बड़े से बड़ा विवेकानन्द क्यों न हो दुनिया में जिसके ज्ञान की तुती बजती हो लेकिन घर जब आएगा तो पत्नी का यही डायलाग सुनने को मिलेगा- पप्पू के पापा! तुम में तो अक्ल नहीं आई। पत्नी तुम्हारे महत्त्व को कभी नहीं समझ सकती। पुत्र तुम्हारे महत्त्व को कभी नहीं समझ सकता और पड़ोसी? अब पड़ोसी के बारे में क्या कहना? जगद्गुरु बन जाओ। दुनिया में तुम्हारे नाम का डंका पिट रहा हो और अपने गांव आओ तो तुम्हारा पड़ोसी यही कहेगा कि चलो अपना रामू आया है, मिलकर आते हैं। दुनिया के लिए जगद्गुरु होंगे पर भी पड़ोसी के लिए तो रामू ही रहोगे। वह कभी तुम्हारा महत्त्व नहीं समझ सकता। तो कबीर ने कहा, ‘भैया! बाहर में यह सब करना पड़ता है पर भीतर-भीतर में नाम स्मरण चलता रहता है। युवक ने कहा: हमको बेवकूफ मत बनाओ। कबीर ने उस नौजवान से एक प्रश्न पूछा- एक लड़की है। अभी-अभी उसकी शादी हुई है। चार दिन अपने ससुराल में रहकर आई है। अब वह लड़की अपने पीहर में है। उसका तन पीहर में है लेकिन उसका मन? उसका तन तो पीहर में है लेकिन उसका मन कहां है? इस प्रश्न का उत्तर यही होगा कि उसका मन ससुराल में है। अब अगला प्रश्न कबीर पूछते हैं कि ससुराल में भी उसका मन कहां है? ससुर जी के पास? ना बाबा ना। सासू के पास? ना बाबा ना। देवर के पास? ना। जेठ के पास? बिल्कुल नहीं। तो क्या देवरानी-जेठानी के पास? ना बाबा ना। तो फिर किसके पास है? उसका मन हर वक्त अपने पति में ही खोया रहता है। खाते-पीते, उठते-बैठते, बतियाते, सोते हर समय उसका मन अपने पति की यादों में खोया रहता है। ठीक इसी तरह प्रभु का भक्त होता है। संसार में रहता है। संसार के हर काम को करता
है पर भीतर ही भीतर सुमरण भी चलता रहता है।
सांस, भूख और नींद है लेकिन दिखते नहीं हैं। ठीक इसी तरह परमात्मा भी है लेकिन दिखता नहीं है। परमात्मा को केवल महसूस किया जा सकता है। उसे हथेली पर नहीं दिखाया जा सकता है। उसे महसूस करो। वह तुम्हारी हर धड़कन में धड़क रहा है, तुम्हारे भीतर ही है। उसे कहीं बाहर तलाशने की जरूरत नहीं है। बस खुद में खोजने की और खोदने की जरूरत है।
