धर्म तो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, वेदोक्त ईश्वर का आज्ञापालन, परोपकार, सब आश्रमियों का अर्थात् सब मनुष्यमात्र का एक ही है, परन्तु संन्यासी का विशेष धर्म यह है कि-

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। सत्यपूतां वदेद्वाचं मन:पूतं समाचरेत्॥1॥

क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुध्येदाकु्रष्ट: कुशलं वदेत्। सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्॥2॥

जब संन्यासी मार्ग में चले, तब इधर-उधर न देख कर, नीचे पृथ्वी पर दृष्टि रख के चले। सदा वस्त्र से छान के जल पिए, निरन्तर सत्य ही बोले, सर्वदा मन से विचार के सत्य का ग्रहण कर असत्य को छोड़ देवे।

जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे, उस पर कभी क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याण का उपदेश करे। मुख के दो नासिका के, दो आंख के और दो कान के छिद्रों में बिखरी हुई वाणी को, किसी कारण से मिथ्या कभी न बोले।

अपने आत्मा और परमात्मा में स्थिर, अपेक्षारहित, मद्यमांसादि वर्जित होकर, आत्मा ही के सहाय से सुखार्थी होकर, इस संसार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिये सदा विचरता रहे।

इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग-द्वेष को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्त्तकर, मोक्ष के लिये सामर्थ्य बढ़ाया करे।

कोई संसार में उसको दूषित वा भूषित करे तो भी जिस किसी आश्रम में वर्त्तता हुआ पुरुष अर्थात् संन्यासी सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर, स्वयं धर्मात्मा और अन्यों को धर्मात्मा करने में प्रयत्न किया करे

और यह अपने मन में निश्चित जाने कि दण्ड, कमण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिह्न धारण धर्म का कारण नहीं है, सब मनुष्यादि प्राणियों की सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है।

यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीसकर गदरे जल में डालने से जल का शोधक होता है, तदपि बिना डाले उसके नामकथन व श्रवणमात्र से उसका जल शुद्ध नहीं होता।

इसलिये ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मवित् संन्यासी को उचित है कि ओङ्कारपूर्वक सप्तव्याहृतियों से विधिपूर्वक प्राणायाम जितनी शक्ति हो, उतनी करे, परन्तु तीन से न्यून कभी न करे, यही संन्यासी का परमतप है।

क्योंकि जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातु के मल नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राण के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं। इसलिये संन्यासी लोग नित्यप्रति प्राणायामों से आत्मा, अन्त:करण और इन्द्रियों के दोष, धारणाओं से पाप, प्रत्याहार से संगदोष, ध्यान से अनीश्वर के गुणों को अर्थात् हर्ष, शोक और अविद्यादि जीव के दोषों को भस्मीभूत करे।

इसी ध्यानयोग से जो अयोगी अविद्वानों के दु:ख से जानने योग्य, छोटे-बड़े पदार्थों में परमात्मा की व्याप्ति को और अपने आत्मा और अन्तर्यामी परमेश्वर की गति को देखे।

सब भूतों से निर्वैर, इन्द्रियों के दुष्ट विषयों का त्याग और वेदोक्त कर्म से इस संसार में मोक्षपद को पूर्वोक्त संन्यासी ही सिद्ध कर और करा सकते हैं, अन्य कोई नहीं।

जब संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थों में नि:स्पृह कांक्षारहित और सब बाहर-भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में और मरण पाकर निरन्तर सुख को प्राप्त होता है। 

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