ऐसा कहा जाता है कि शायद 50 साल पहले बंबई के ‘जीवन जागृति केन्द्र’ को ओशो ने कॅापीराइट अधिकार दिए थे। लेकिन न तो वह दस्तावेज अब मौजूद हैं और न ही उस संस्था का कोई व्यक्ति जीवित है। 20 जुलाई 1978 को ‘जीवन जागृति केन्द्र’ ने पूना की संस्था ‘रजनीश फाउन्डेशन’ को अधिकार हस्तांतरित किए, जिसका नामकरण बाद में ‘निओ संन्यास फाउन्डेशन’ हुआ। फिर 1 अप्रैल 1981 को पूना के इस ट्रस्ट ने ‘चिदविलास, रजनीश ध्यान केन्द्र’ नामक अमेरिका की संस्था को इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी के अधिकार सौंपे। बिना ट्रस्टियों की मीटिंग में निर्णय लिए केवल एक ट्रस्टी, स्वामी योगेन्द्र मनु के दस्तखत द्वारा यह हस्तांतरण हुआ, जो कि अवैध है। शेष आठ ट्रस्टियों की सहमति नहीं ली गई तथा भारत के कॅापीराइट को देश से बाहर हस्तांतरित करने के लिए जिन सरकारी नियमों का पालन होना चाहिए, वह भी नहीं हुआ। चैरिटी कमिश्नर, फॅारेन एक्सचैंज डिपार्टमेंट एवं रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की अनुमति लिए बगैर इस हस्तांतरण की कोई वैधानिक मान्यता नहीं है। इसी वजह से, इस श्रृंखला में अमेरिका से पुन: भारत, फिर भारत से अमेरिका और अंतत: यूरोप में हुए हस्तांतरण, सभी गैर-कानूनी सिद्ध हो जाते हैं।

अपने पक्ष को मजबूत करने हेतु ओ.आई.एफ. ने स्पेन की अदालत में ओशो का झूठा वसीयतनामा प्रस्तुत किया- उनके महापरिनिर्वाण के 25 वर्ष पश्चात! भारत के स्वामी अनादि और स्वामी प्रेमगीत ने वसीयत पर ओशो के दस्तखत की जांच चार अलग-अलग हस्तलिपि विशेषज्ञों से कराई। वे चारों सहमत हैं, कि यह वसीयत सरासर जाली है। यह रिपोर्ट आते ही ओ.आई.एफ. ने अदालत से वसीयत वापस ले ली। अनादि एवं प्रेमगीत मुंबई में मुकद्दमा लड़ रहे हैं। जाली वसीयत के अलावा अन्य कई मुकदमे भी अधर में लटके हैं। साल पर साल गुजरते जा रहे हैं, तारीख पर तारीखें मिलती जा रही हैं। धन्य है न्याय प्रणाली!

विगत दो वर्षों से ओ.आई.एफ. ने आस्था चैनल को कानूनी धमकियां भेजकर, ओशो की आवाज सुनाना, वीडियो अथवा चित्र दर्शाना बंद करा दिया है। इसी कारण से ओशोधारा वालों ने सन 2005 से चला आ रहा अपना कार्यक्रम भी समाप्त कर दिया। इस बीच ओ.आई.एफ. ने असत्य दावे और झूठे गवाह पेश करके यूरोप में मुकद्दमा जीत लिया। यूरोपीय संघ की एक अदालत ने छोटे ट्रिब्यूनल्स के फैसलों को बरकरार रखा, जिसने ‘ओशो’ को यूरोपीय संघ में ओ.आई.एफ. के लिए एक ट्रेडमार्क के रूप में अनुमति दी थी। 28 अक्टूबर 2017 को हुए फैसले के मुताबिक अब ‘ओशो’ शब्द यूरोप में एक ब्रांड नाम हो गया है। स्मरण रखिए कि ट्रेडमार्क और कॅापीराइट, दो बिल्कुल अलग-अलग मुद्दे हैं। ओ.आई.एफ. इस प्रकार से भ्रामक प्रचार कर रहा है कि जैसे ट्रेडमार्क की स्वीकृति से उन्हें कॅापीराइट का अधिकार हासिल हो गया हो!

विधि विशेषज्ञ मा प्रेम संगीत, इसके प्रभाव और पूर्ववर्ती घटनाओं को समझातीं हैं, जिसमें विश्व के सभी संन्यासियों की गहरी रुचि है। ‘ओशो न्यूज’ में ट्रेडमार्क और कॅापीराइट के मुद्दों से संबंधित सभी लेख इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यहां एक आलेख का संक्षिप्त अनुवाद प्रस्तुत है-

इस अनुमोदन के लिए बहस में, ओ.आई.एफ. ने दावा किया कि ‘ओशो’ का ध्यान से कुछ लेना-देना नहीं है, यह केवल एक ब्रांड है। जबकि हम में से बहुत से इस कथन की अंतर्निहित भावना से नाराज होते हैं, परंतु कानूनी दृष्टि से ओ.आई.एफ. सही है और हम आनन्दित हैं कि उन्होंने रिकॅार्ड पर यह स्वीकार किया है। ट्रेडमार्क अनुमोदन का मतलब है कि ओ.आई.एफ. ओशो शब्द को उन सामानों और सेवाओं के लिए एक ब्रांड के रूप में उपयोग कर सकता है, जिसका कि ओ.आई.एफ. मालिक या नियंत्रक है। एक ट्रेडमार्क का ध्यान या आध्यात्मिक शिक्षाओं से कोई संबंध नहीं है, जैसा कि ओ.आई.एफ. ने स्वीकार किया है।

प्र. तो, सवाल यह है कि ओ.आई.एफ. क्या नियंत्रण करता है? क्या इस निर्णय का मतलब है कि ओ.आई.एफ. ओशो के बौद्धिक अधिकारों का मालिक है, जैसे कि कॅापीराइट का दावेदार है?

उ. बिल्कुल नहीं। क्या कोई गंभीरता से सोचता है कि अगर किसी कंपनी के पास एक ब्रांड है जो जॅार्ज वाशिंगटन, नेल्सन मंडेला, या विंस्टन चर्चिल जैसे किसी ऐतिहासिक व्यक्ति के नाम का उपयोग करता है तो वे उस व्यक्ति की संपत्ति के मालिक हैं? क्या जॅार्ज वॅाशिंगटन सेविंग्स एंड लोन ब्रांड के मालिक, माउंट वर्नन, जॅार्ज वॅाशिंगटन के मकान के मालिक हैं? बिल्कुल नहीं। यह सिर्फ एक ब्रांड है इसका किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति की संपत्ति पर स्वामित्व नहीं है।

प्र. क्या इस मामले में ओशो के कॅापीराइट के स्वामित्व पर चर्चा हुई थी,कि क्या एक आध्यात्मिक नेता का नाम ट्रेडमार्क बन सकता है? क्या ट्रेडमार्क न्यायाधिकरण को कॅापीराइट स्वामित्व पर फैसला देने का अधिकार है?

उ. नहीं। वास्तव में, ट्रेडमार्क की कार्यवाही की प्रक्रिया ने ओ.आई.एफ. के कॅापीराइट दावे को कम कर दिया है। ओ.आई.एफ. ने कॅापीराइट स्वामित्व के लिए तीन अलग-अलग और विरोधाभासी तर्कों का इस्तेमाल किया है। पहला प्रयास यह दावा करने वाला था कि ओशो ने सीधे आर.एफ.आई.(शीला द्वारा नियंत्रित अमेरिकी संगठन) को अधिकार देने पर हस्ताक्षर किए, लेकिन यह साबित करने के लिए कोई मूल दस्तावेज नहीं थे और फोटोकॅापी प्रमाणित करने वाला कोई जीवित व्यक्ति नहीं था।

इसलिए, ओ.आई.एफ. एक नई कहानी के साथ आया। नई कहानी यह थी कि ओशो ने आर.एफ.आई. के अधिकारों पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, जिसका ओ.आई.एफ. कई सालों से दावा कर रहा था। उन्होंने अब दावा किया है कि ओशो ने शीला को पावर ऑफ अटॅार्नी प्रदान की थी, और उसने उन्हें ओ.आई.एफ. को स्थानांतरित किया। लेकिन ओ.आई.एफ. के पास इन कथित दस्तावेजों का मूल नहीं था। अत: वे फिलिप टोलकेस (स्वामी नीरेन, अमरीकी एडवोकेट) को बीच में लाए, जिसने कहा कि 30 से अधिक साल पहले बनाये गए दस्तावेजों की उनकी याददाश्त इतनी सटीक थी कि वे इन फोटोकॅापी को सत्यापित कर सकते थे- कि ये मूल दस्तावेजों की वास्तविक प्रतियां हैं। ओ.आई.एफ. के विरोधियों ने स्वाभाविक रूप से इस दावे को चुनौती दी। तब ओ.आई.एफ. ने ओशो की वसीयत प्रस्तुत की। टोलकेस फिर से गवाही देने के लिए आया। उसने दावा किया कि यद्यपि उसे भारत में कानून का अभ्यास करने के लिए लाइसेंस नहीं था और भारतीय कानून नहीं जानता था, किंतु उसने ओशो की वसीयत तैयार की थी, और वह गवाही दे सकता है कि माइकल ओ ब्रायन (स्वामी जयेश) और जॅान एंड्रयूज (स्वामी अमृतो) ओशो के हस्ताक्षर के गवाह थे।

वसीयतनामा फोरेंसिक विशेषज्ञों को पेश किया गया, और चार विशेषज्ञों ने पाया है कि ‘वसीयत’ पर हस्ताक्षर 1970 के दशक से ओशो पुस्तक के कवर पर मिले हस्ताक्षर की एक सटीक प्रति है। किसी भी जीवित व्यक्ति के दो हस्ताक्षर कभी भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते हैं, मगर ये बिल्कुल समान हैं, जिसका अर्थ है कि हस्ताक्षर जाली है। इसके अलावा, हम सभी जानते हैं कि समय के साथ ओशो के हस्ताक्षर बदलते रहे थे। अपने आखिरी महीनों की शारीरिक कमजोरी में, उनके हस्ताक्षर 1970 के दशक से बहुत अलग थे। संक्षेप में, चार भिन्न-भिन्न स्थानों के विशेषज्ञों द्वारा ‘वसीयत’ को जाली बताया गया।

ओ.आई.एफ. ने तुरंत वसीयत छुपा ली। जब भारत में एक पुलिस जांच में ओ.आई.एफ. को वसीयत दिखाने का आदेश दिया, मुकेश सारडा ने यह प्रमाणित किया कि निर्वाणो (मा योग विवेक, ओशो की देखरेख करने वाली शिष्या) ने वसीयत को नष्ट कर दिया था। हम में से जो लोग उस समय पर पुणे में रहते थे और लाओत्जू में काम करते थे, वे जानते थे कि उस समय ओशो से जुड़े दस्तावेजों तक निर्वाणो की पहुंच नहीं थी। अगर यह कहानी किसी भी तरह से विश्वसनीय है, तो ओशो की मृत्यु से 40 दिन पहले निर्वाणो का निधन हो गया और अगर उसने वसीयत को नष्ट किया था, तो वे ओशो से दूसरी वसीयत पर हस्ताक्षर करवा सकते थे। अगर वे दावा कर रहे हैं कि ओशो की मृत्यु होने तक उन्हें नहीं पता था कि वसीयत नष्ट हो गई थी, तो वे कैसे जानते थे कि निर्वाणो ने उसे नष्ट किया था? उन्हें कैसे पता था कि ओशो ने स्वयं ही इसे नष्ट नहीं किया? संक्षेप में, वसीयत भले ही प्रामाणिक हो, ओशो की मौत के समय उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं था, इसलिए उसका कोई कानूनी मूल्य भी नहीं है। टोलकेस को यह भलीभांति पता होगा। लेकिन ओ.आई.एफ. के लोगों ने वैसे भी ट्रिब्यूनल को गुमराह करने की कोशिश की। इस समूह की सभी कहानियों की तरह, इस गड़बड़ी में कुछ भी नहीं मिला है यह समझ में आता है।

इसका अर्थ है कि ओ.आई.एफ. ‘कॅापीराइट असाइनमेंट’ की फोटोकॅापी को मान्य नहीं कर सकता है, जिसका उसने वर्षों से उपयोग करने की कोशिश की है। ओ.आई.एफ. ने स्वीकार किया कि उनका पहला सिद्धांत सही नहीं था और अब वे अपना दूसरा साबित नहीं कर सकते, क्योंकि उनके गवाह टोलकेस ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है।

ओ.आई.एफ. को अपनी तीसरी कोशिश के बारे में स्वीकारना पड़ा है कि ‘वसीयत’, कभी वैध नहीं थी। नतीजन, कॅापीराइट स्वामित्व के लिए ओ.आई.एफ. का दावा अत्यंत कमजोर पड़ गया। वे खुद के ही बनाए झूठे जाल में फंसते जा रहे हैं।

प्र. क्या ओशो ने अपने नामों का इस्तेमाल करने वालों या ध्यान तकनीकों की शिक्षा देने वालों पर अपने अधिकारों का उपयोग किया था?

उ. बिल्कुल नहीं। ओशो ने भारत में मूल जीवन जागृति केंद्र को छोड़कर, किसी भी केंद्र के साथ किसी भी तरह के समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए, और अब उस प्राचीन दस्तावेज का भी कोई अस्तित्व नहीं है। ओशो ने लोगों से कहा कि वे केंद्र शुरू करें, और उन्होंने उनसे अपना नाम इस्तेमाल करने के लिए कहा। लोगों ने उनके लिए प्यार एवं श्रद्धा से ऐसा किया। यह सब ध्यान के बारे में था, और एक ब्रांड के बारे में जरा भी नहीं।

ओशो के शरीर छोड़ने के बाद, लोगों ने उनकी शिक्षाओं से प्रेरित होकर केंद्रों को जारी रखा। लगभग 40 साल पहले ओशो ने ध्यान तकनीकों को सार्वजनिक डोमेन में रखा था। कोई भी उन्हें सार्वजनिक डोमेन से कभी भी नहीं निकाल सकता है। ओशो ने किसी भी ध्यान तकनीक में किसी को भी अधिकार नहीं सौंपा है, और लाखों लोगों को आसानी से ध्यान सिखाने के लिए अनुमति दी है।

प्र. क्या इस फैसले का अर्थ है कि ओ.आई.एफ. ओशो के बारे में अपने विचारों को पालन करने के लिए सब लोगों को बाध्य कर सकता है, जैसा कि ओ.आई.एफ. ने अपने बयान में दावा किया था?

उ. नहीं, बिल्कुल नहीं। याद रखिए, यह अदालती निर्णय ध्यान या ओशो की शिक्षाओं के बारे में नहीं, वरन केवल एक ब्रांड के बारे में है। ओ.आई.एफ. ने पहले दावा किया है कि एक ब्रांड के स्वामित्व का मतलब होगा कि वह ओशो के शिक्षण की सामग्री को नियंत्रित कर सकता है तथा ध्यान केंद्रों पर कानूनी नियंत्रण द्वारा एक फ्रैंचाइजी बनाकर, केंद्रों की बौद्धिक संपदा अधिकारों का मालिक हो सकता है।

यह सब अनर्गल बकवास है। यहां तक कि ओशो ने कभी भी केंद्रों में अपने अधिकारों का स्वामित्व नहीं किया था, इसलिए किसी भी ब्रांड के रूप में ओ.आई.एफ. अपने जेन शीर्षक का इस्तेमाल नहीं कर सकता। एक ट्रेडमार्क केवल एक ब्रांड के बारे में है, जैसा कि ओ.आई.एफ. ने स्वीकार किया है। ओ.आई.एफ. के पास वर्तमान में यूरोपीय संघ में एक ब्रांड का नियंत्रण है, जिसमें यूके (इंग्लैंड) शामिल नहीं है। इसका मतलब यह है कि वे इस बात पर ऑब्जेक्ट कर सकते हैं कि उस क्षेत्र के विपणन में ओशो शब्द का प्रयोग कैसे किया जाता है। इसका मतलब इससे अधिक कुछ और नहीं है।

प्र. अब आगे क्या होगा?

उ. आप चुन सकते हैं कि आप क्या करना चाहते हैं। किसी को भी किसी भी तरह से ओ.आई.एफ. के नियंत्रण में होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। किसी भी परिस्थिति में विचारों का स्वामित्व कभी नहीं हो सकता। कॅापीराइट के रूप में विचारों की अभिव्यक्ति का स्वामित्व असंभव है। लेकिन ऐसे ब्रांड, जिनका विचारों से कोई लेना-देना नहीं है, ट्रेडमार्क के रूप में उन पर स्वामित्व हो सकते हैं। लेकिन विचारों एवं विचारों की व्याख्याएं कभी भी स्वामित्व नहीं रख सकती हैं। ओशो से बेहतर कौन जानता है, जिन्होंने सैकड़ों मनीषियों के विचारों की सुंदर व्याख्या की है। यदि स्वेच्छा से यूरोप का कोई व्यक्ति अथवा ध्यान केंद्र चाहता है तो वह ओ.आई.एफ. फ्रैंचाइजी में शामिल हो सकता है। किंतु ऐसा करना कानूनी मजबूरी कतई नहीं है। 

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