स्वभाव को बदला जा सकता है, इतना रूपान्तरण किया जा सकता है कि आदमी का पूरा व्यक्तित्व ही बदल जाता है। अनेक घटनाएं हैं, उदाहरण हैं। अनेक डाकू संत बन गए और अनेक संत डाकू बन गए। केवल बुरा स्वभाव ही नहीं बदलता, अच्छा स्वभाव भी बदलता है। दोनों में परिवर्तन होता है। परिवर्तन क्यों होता है, इस पर भी हमें विचार कर लेना चाहिए।

परिवर्तन का एक कारण है-भोजन। जब भोजन असंतुलित होता है तब आदतें बिगड़ जाती हैं। एक आदमी बहुत चिड़चिड़े स्वभाव का है। मनोचिकित्सक चिकित्सा से पूर्व उसके भोजन पर ध्यान देगा वह जानता है कि जब भोजन में विटामिन ‘ए’ की कमी होती है तब स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। पोषक तत्त्वों का संतुलन नहीं होता तो स्वभाव बदल जाता है। 

एक कहानी है- एक साधु किसी घर में ठहरा। उसने वहां भोजन किया। कुछ ही समय पश्चात् उसकी दृष्टि अलमारी में पड़े हुए हार पर गई। उसके मन में हार को चुराने की भावना जागी। उसने हार अपने पास रख लिया। अनेक विकृत विचार उसके मन में आते रहे। अचानक ही उसे वमन हुआ, खाया हुआ सारा भोजन निकल गया। उसे ज्ञान हुआ- मैंने चोरी कर कितना बड़ा पाप कर डाला। उसने तत्काल हार को मूल स्थान पर रख दिया उसका मन अनुताप और पश्चाताप से भर उठा।

भोजन उस चोरी का कारण बना। भोजन निकला और भाव बदल गया।

रंग और स्वभाव

एक क्रोधी व्यक्ति यदि सूर्यरश्मि-चिकित्सक के पास जाएगा तो वह सबसे पहले इस बात पर ध्यान देगा कि इस व्यक्ति में किस रंग की कमी हुई है, जिससे इसमें क्रोध बढ़ा है। वह विश्लेषण करके जान लेगा कि इसमें नीले रंग की कमी हुई है या लाल रंग की मात्रा बढ़ी है, इसलिए क्रोध बढ़ा है। वह चिकित्सक लाल रंग को घटाता है, नीले रंग को बढ़ाता है और उस व्यक्ति का क्रोध कम हो जाता है। रंग-चिकित्सा (कलर थेरेपी) में दो रंग गर्म माने जाते है- लाल और पीला। दो रंग ठंडे माने जाते हैं- नीला (ब्लू) और हरा।

आयुर्वेद- स्वभाव परिवर्तन की प्रक्रिया

आयुर्वेद में कहा गया- जब व्यक्ति में पित्त का प्रकोप होता है तब क्रोध का प्रकोप बढ़ जाता है। कफ का प्रकोप होता है तो लोभ बढ़ जाता है। अपान वायु दूषित होता है तो भी क्रोध बढ़ जाता है। क्रोधी व्यक्ति को पित्तशामक औषधि का सेवन कराया जाता है तो क्रोध की मात्रा कम हो जाती है। लोभ भी एक बीमारी है। बीमार व्यक्ति को यदि कफ-शामक औषधि दी जाती है।  एक आदमी को काम-वासना अधिक सताती है। वह सोचता है, यह सब उसके कर्म का उदय है किन्तु उसमें केवल कर्म का ही उदय नहीं है, शरीर के रसायन का भी उसमें योग है इस बात को समझ लेने पर इस आदत में परिवर्तन आ सकता है।

जिसमें वायु की प्रधानता होगी, वह अधिक डरेगा। नींद में भी भय लगेगा। स्वप्न भी दूषित आएंगे, और भी अनेक विकृतियां आएंगी। ज्यों ही वायु शांत होगी, भूत भाग जाएगा। आयुर्वेद में वायु का नाम है ‘भूतÓ। वायु का प्रकोप ही भूत-भूतनियों का प्रकोप है।

स्वभाव-निर्माण के तत्त्व

स्वभाव-निर्माण और स्वभाव-परिवर्तन के चार मुख्य कारण हैं-

1. आनुवांशिकता

2. वातावरण

3. परिस्थिति

4. कर्म-संस्कार।

भगवान महावीर ने कहा- ‘जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा’ जो आश्रव हैं, वे ही परिश्रव हैं और जो परिश्रव हैं, वे ही आश्रव हैं। जो आने के द्वार हैं वे ही जाने के द्वार हैं और जो जाने के द्वार हैं, वे ही आने के द्वार हैं। जिन कारणों से स्वभाव का निर्माण होता है, वे ही कारण स्वभाव-परिवर्तन के सूत्र बनते हैं। 

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