शिष्य के कल्याण के लिए। जगत को, जीव को इस अज्ञान की नींद से जगाने के लिए। पहले तो साधना से स्वयं को जाना, मैं कौन हूं, यह पहचाना। देह से परे, मन-बुद्धि से परे, पंचकोष से परे, पंचकोश कौन से? अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश। इन सभी कोशो से मैं अतीत हूं। इन पांच कोश को समझने के लिए थोड़ा और आसान मैं कर दूं।
प्याज देखा, ओनियन। अब प्याज क्या है? सिर्फ तहें हैं। बाहर की तह खोलो, तो अन्दर एक और तह, उस तह को खोलो, तो अंदर एक और तह, उसको खोलो, तो फिर एक और तह। तह खोलते जाइए, खोलते जाइए और अंत में अंदर कुछ भी नहीं निकलता। बात समझ गए?
ऐसे ही अगर जीवोऽहं भाव की बात करें, तो ये पंचकोष मुझ जीवात्मा के बाहरी पर्दे हैं। फिर अगर मैं आत्मरूप से कहूं, मुझ आत्मदेव के ये पांच पर्दे हैं। बाहर वाला पर्दा है अन्नमय कोष, उसके भीतर दूसरा प्राणमय अंतर का, फिर तीसरा मनोमय, फिर चौथा विज्ञानमय और फिर पांचवा आनन्दमय कोश।
अब प्याज की तहों के बारे में तो हमने देखा कि बाहर की एक-एक तह निकालते गए, तो अंदर कुछ नहीं मिलता। लेकिन जब इन कोषों से जैसे जैसे तुम पीछे हटते जाते हो, वैसे ही तुम स्वयं ही अपने आप को ढूंढ पाते हो। और जिसने स्वयं को ढूंढा, उसी ने इसी स्व में ब्रह्मï को पाया।
भक्ति मार्ग सारा जीवोऽहं के भाव पर चलता है और तत्त्वज्ञान सारा शिवोऽहं के भाव पर चलता है, आत्मोऽहं के भाव पर चलता है। सीधे शिवोऽहं की समझ न आती हो, तो आत्मोऽहं के भाव पर चलता है। मैं देह नहीं, मैं मन नहीं मैं, बुद्धि नहीं। आत्मा हूं मैं।
भगवान बुद्ध ने अपने दस हजार जन्मों का जिक्र किया है जातक कथाओं में। उसमें उन्होंने अपने दस हजार जन्मों का विवरण दिया है कि इस ग्राम, इस शहर, इस देश में मैं पैदा हुआ था।
जन्म हुआ, शरीर मरा। जन्म हुआ, फिर शरीर मरा। जन्म हुआ फिर मरा। जन्म हुआ, फिर मरा। कितनी बार मर-मर के, मर-मर के भी तुम नहीं मरते हो क्योंकि तुम्हारा स्वरूप ही है अजर, अमर, अविनाशी अब जब गीता पढ़ोगे न आनन्द आएगा। जब जब देखोगे न दूसरा अध्याय खोल के, आनन्द आएगा।
शरीर के मर जाने पर जो नहीं मरता है, ऐसा अजर, अविनाशी, शाकात रूप-स्वरूप है मेरा। मौत छू नहीं सकती मुझको।
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