ये संसार हमारा सांझा घर है। जीव की अनंत यात्रा में ये जन्म एक पड़ाव से ज्यादा नहीं। जैसे पुराने समय में बैलगाड़ियों पर लोग यात्रा करते थे, महीनों चलते थे काफिले, तब जाकर उनकी मंजिल आती थी। उस मंजिल पर चार दिन रुकना, फिर वापिस लौट आना।

ठीक ऐसे ही प्रभु के घर से तुम लोग भी निकले, निकले अपनी यात्रा पर। ऐसे ही न जाने कितने पड़ाव तुम भी डाल चुके हो। गौतम बुद्ध, अपने भिक्षुओं को, अपने साधकों को एक साधना करवाते थे, जिसका नाम था, ‘जाति स्मरण’ और ये बड़ी आवश्यक होती थी। और सही पूछे जाति स्मरण के ध्यान की सफलता जब तक हो नहीं जाती थी, तब तक उस भिक्षु को बुद्ध से संयस्त हुआ है, ऐसा माना ही नहीं जाता था।

जाति स्मरण किसको कहते हैं? जिसके बिना संन्यास अधूरा है? जबकि संन्यास अपने आपमें कितनी बड़ी छलांग है। ये इतनी बड़ी अपूर्व अन्जाने परमात्मा को जिसका न कभी कानों से सुना, न कभी आंखों से देखा, सिर्फ शास्त्रों के कहने पर विश्वास कर लिया, सिर्फ गुरु के लिए वचन पर श्रद्धा कर ली कि परमात्मा है और मुझे इसको प्राप्त करना है। मेरे जीवन का लक्ष्य वही है। मेरे जीवन का ध्येय वही है। मात्र ये एक इच्छा लेकर के, दिखाई दे रहे संसार को तिलांजलि दे देना।

जिसे तुम छू न सको, जो शब्द से तुम्हें सुनायी न देगा। अदृश्यम्ï जो कभी दृश्य बनकर तुम्हारी आंखों के सामने आने वाला नहीं है। ऐसा सूक्ष्म, अति सूक्ष्म परमात्मा की सत्ता के बोध के लिए, अनुभव के लिए संन्यास है।

एक गुरु का भरोसा लेकर शिष्य छलांग लगाता है संन्यास में। तभी तो संसार इन संन्यासियों को पागल समझता है, इन संतों को पागल समझता है। वो कहते हैं, अरे ये जो संसार दिख रहा है। उसे छोड़कर, जो नहीं दिख रहा है उस परमात्मा की तलाश कर रहे हैं। दिख रहा घर-परिवार, दिख रहा संसार और तुम किसकी खोज करते हो? किसे खोजते हो? जिसका न तो कोई पता है।

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