ध्यान के द्वारा चिन्तन में सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है। उसका साधन बनता है- अनावेश। यह है आवेश का अभाव। चिन्तन का एक दोष है- संदेह। आदमी संदेह करता है। एक कहावत है- दूध से जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। इसमें सच्चाई है। आदमी जब ठगा जाता है तब हर बात में संदेह करने लग जाता है। यदि प्रवंचना के तत्त्व समाज में नहीं होते तो आदमी में संदेह पैदा नहीं होता। प्रवंचना के तत्त्व हैं, इसलिए संदेह होने लगा।
प्रवंचना संशय को पैदा करती है। प्रवंचना के बिना संदेह उत्पन्न ही नहीं होता। आज सामाजिक वातावरण ही ऐसा बन गया है कि हर आदमी विश्वसनीय बात में भी अविश्वास करता है। वह किसी का भरोसा नहीं करता। बेटा बाप का भरोसा नहीं करता और बाप बेटा का भरोसा नहीं करता। नेपोलियन ने एक बार कहा था-मेरे शब्दकोश में असंभव जैसा शब्द ही नहीं है, वैसे ही आज के शब्दकोशों से विश्वास जैसे शब्द को निकाल देना चाहिए। सर्वत्र संशय ही संशय। जब आदमी संशय के आधार पर चिन्तन करता है तब चिन्तन विधायक नहीं होता, त्रुटि रहित नहीं होता। वह कभी संतुलित चिन्तन नहीं हो सकता।
जीवन में आस्था का स्थान बहुत ऊंचा है। जिस जीवन में आस्था नहीं होती, वह जीवन आधारशून्य होता है। उस जीवन में सफलता का वरण नहीं हो सकता। आस्था के तीन स्तंभ हैं- क्षमता, कर्तृत्व और सार्वभौम नियमों की ज्ञप्ति।
पहला तत्त्व है- क्षमता। प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास होना चाहिए कि उसमें असीम क्षमता है।
दूसरा तत्त्व है- कर्तृत्व। हर आदमी में यह भरोसा होना चाहिए कि वह उस कार्य को कर सकता है। उसमें कर्तृत्व शक्ति है।
तीसरा तत्त्व है- सार्वभौम नियमों का ज्ञान। शक्ति के सार्वभौम नियमों का ज्ञान और उन पर विश्वास होना चाहिए।
आस्था का अर्थ किसी पर भरोसा करना नहीं होता। उसका अर्थ है अपने आप पर भरोसा करना। कोई किसी पर भरोसा नहीं करता। सब स्वयं पर भरोसा करते हैं। हम जानते हैं कि हमारे में असीम शक्ति है, अनन्त शक्ति है। हम यह भी जानते हैं कि यदि आदमी स यक पुरुषार्थ और प्रयत्न फलवान होते हैं। यदि कोई आदमी इस दिशा में प्रयत्न और पुरुषार्थ करें कि मनुष्य मरे ही नहीं, उसे मौत आए ही नहीं तो यह सार्वभौम नियम को न जानने का परिणाम होगा। कोई यह कह सकता है, मैं संकल्प शक्ति का प्रयोग करूंगा, ध्यान का प्रयोग करूंगा और फिर यह घोषणा करूंगा कि मैं कभी नहीं मरुंगा, पर ऐसा होगा नहीं। एक दिन आएगा, आदमी मर जाएगा। क्यों! क्योंकि उसने सत्य को समझा ही नहीं। कोई भी इसका अपवाद नहीं हो सकता।
यह भी यह एक सार्वभौम नियम है कि बिना बदले इस दुनिया में कुछ भी नहीं रह सकता। जिसने एक आकार लिया है, उसे दूसरा आकार लेना ही पड़ेगा। जिसने एक परिणमन किया है उसे दूसरा परिणमन करना ही पड़ेगा। बदलने और परिणत होने की सीमा हो सकती है, हजार और लाख वर्ष की हो सकती है, असं य काल की हो सकती है। पर यह अटल नियम है कि बदलना ही पड़ेगा। हम एक परमाणु को लें। वह आज काले रंग का है। एक निश्चित अवधि के बाद उसे अपना रंग बदलना ही होगा। रंग स्वत: बदल जाता है। बदलने वाला दूसरा कोई नहीं है। यह एक नियम है। यह एक ऐसी नियति है कि जिसे कभी टाला नहीं जा सकता। जो एक रंग में अभिव्यक्त हुआ है तो उसे दूसरा रंग भी लेना होगा। एक स्पर्श में आया है तो उसे दूसरा स्पर्श भी लेना होगा। जितने पर्याय हैं, वे सारे बदलते हैं। उन पर्यायों को बदलने से नहीं रोका जा सकता। उन्हें कभी शाश्वत नहीं बनाया जा सकता। जन्म एक पर्याय है। मृत्यु भी एक पर्याय है। जिसने जन्म लिया है, उसे मरना ही पड़ेगा।
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