हिन्दू समाज में सनातन-धर्म परंपरा से आने वाले लोग अपने आराध्य देवी-देवताओं की मूर्तियां या चित्र लगाकर उनकी पूजा करते हैं, जिनमें से अधिकतर स्थायी होते हैं, जैसे मंदिरों में स्थापित मूर्तियां या घरों के पूजा-घर में लगे चित्र। ये मूर्तियां व चित्र जबतक ठीक अवस्था में रहते हैं, इनकी पूजा की जाती है, परन्तु मूर्तियों के खंडित हो जाने अथवा चित्रों के फट जाने के पश्चात इनकी पूजा नहीं की जाती, बल्कि इन्हें बहते जल, जैसे नदी आदि में प्रवाहित कर दिया जाता है। जब से इन मूर्तियों व चित्रों में कृत्रिम रंगों का प्रयोग अधिक होने लगा है, कुछ पर्यावरण-विदों की पहल पर इन्हें एक निर्धारित स्थान पर धरती में विसर्जित भी किया जाने लगा है।
परन्तु यहां मेरा उद्देश्य इस व्यवस्था पर टिप्पणी करना न होकर, प्रबुद्ध पाठकों का ध्यान मंदिर या पूजाघर से इतर देवी-देवताओं के उन चित्रों की स्थिति की ओर आकृष्ट करना है, जिन्हें इरादतन तो हम पूजना चाहते हैं, परन्तु असावधानी या अज्ञानता-वश अपमानजनक स्थिति में पहुंचा देते हैं। ऐसा क्यों व किस प्रकार होता है तथा इसे रोकने के लिए हम क्या कर सकते हैं? आइए विचार करते हैं।
निमंत्रण पत्रों पर छपे चित्र
जब भी हम विवाह आदि किसी शुभ कार्य हेतु निमंत्रण-पत्र छपवाते हैं, सामान्यत: सबसे पहले उसपर विघ्नहर्ता गणेशजी का चित्र छपवाया जाता है। उसके पश्चात निमंत्रण-पत्र के लगभग सभी पृष्ठों पर निमंत्रक के किसी अन्य इष्ट देवी या देवता जैसे भगवान शिव, मां दुर्गा, माता लक्ष्मी या हनुमानजी का चित्र व स्तुति का कोई मंत्र, यन्त्र या दैवीय चिह्नï जैसे अथवा स्वास्तिक आदि अंकित होता है। निमंत्रित व्यक्ति निमंत्रण-पत्र को पढ़कर आयोजन संपन्न होने तक के लिए उसे किसी उपयुक्त स्थान, जैसे अल्मारी, मेज या दराज में संभाल कर रख देता है।
यहां तक तो ठीक है, परन्तु क्या आपने कभी सोचा है कि उसके बाद उन निमंत्रण-पत्रों का क्या होता है? कुछ लोग देवी-देवताओं का चित्र छपे होने के कारण या शुभ-कार्य से सम्बंधित होने के कारण इन्हें सम्पूर्ण रूप में जल में प्रवाहित कर देते हैं, जोकि पर्यावरण की दृष्टि से अनुशंसनीय नहीं है। जबकि कुछ लोग इनमें से देवी-देवताओं के चित्र काटकर विसर्जित करने हेतु अलग रख लेते हैं और शेष भाग को कूड़े में डाल देते हैं (मैं इनमें से एक हूं)। परन्तु अधिकांश लोग इन्हें बिना सोचे-समझे कूड़े की टोकरी में डाल देते हैं।

जरा सोचिये, जिन देवी-देवताओं की पूजा करने के उद्देश्य से आपने निमंत्रण-पत्र पर प्रथम स्थान दिया था, समारोह समाप्त होते ही उनका स्थान कूड़े के टोकरे में हो, क्या आपको यह स्वीकार्य होगा? यदि नहीं, तो इसको रोकने का उपाय क्या है? हमारे विचार में निमंत्रण-पत्रों पर देवी-देवताओं के चित्र, यन्त्र या दैवीय चिह्नï छपवाने के स्थान पर न्यूनतम प्रतीकात्मक शब्द जैस ‘श्री गणेशाय: नम:’, ‘श्री दुर्गायै नम:’ आदि लिख कर काम चलाया जा सकता है, जबकि इष्टदेव को समर्पित करने हेतु एक निमंत्रण-पत्र के साथ मंदिर या पूजा-गृह में एक सादे कागज पर हाथ से मनचाहे मंत्र व स्तुति आदि लिख कर प्रार्थना की जा सकती है, जिसे बाद में आदरपूर्वक जल में प्रवाहित या धरती में विसर्जित किया जा सकता है। इससे जहां एक ओर हम आयोजन के उपलक्ष में अपने आराध्य देवी-देवताओं की पूजा कर संतुष्ट हो सकते हैं, वहीं अनजाने में उनके अपमान के दोष के भागी होने से भी बच जाएंगे।
समाचार-पत्रों व सामयिक पत्रिकाओं में छपे चित्र
कई बार समाचार-पत्र व पत्रिकाओं में लेख के साथ देवी-देवताओं के चित्र भी छापे जाते हैं, जैसे शिव-रात्रि के अवसर पर किसी पौराणिक मंदिर में शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए लोगों की तस्वीरें, नवरात्रों में देवी दुर्गा के रूप की झांकी व मंत्र आदि या फिर अगरबत्ती के विज्ञापन में भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा करते लोग। जब तक ये पत्र-पत्रिकाएं पढ़ी नहीं जाती, तब तक तो ठीक है, परन्तु उसके बाद या तो इन्हें कूड़े में फेंक दिया जाता है या फिर रद्दी में बेच दिया जाता है। उस समय न तो कोई व्यक्ति उनमें से देवी-देवताओं के चित्र अलग करने की सोचता है, न ही उसके लिए हमेशा यह संभव होता है। परिणाम यह होता है कि देवी-देवताओं के चित्र वाले ये कागज सड़क पर जूतों के नीचे या नाली के गंदे पानी में पड़े हुए अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं।
इन चित्रों की दुर्दशा से विचलित होकर कई बार मैंने उन्हें उठाकर किसी स्वच्छ स्थान पर रखने के विषय में सोचा भी, परन्तु कभी संकोचवश तो कभी यह सोच कर रुक गया कि एक चित्र उठाने से तो इस समस्या का हल होगा नहीं, क्योंकि ऐसे चित्र समाचार-पत्र व पत्रिकाओं की सभी प्रतियों में छपे होंगे जिन्हें इसी प्रकार फेंका गया होगा। तब विचार किया कि क्यों न इस विषय पर लोगों को जागरूक किया जाए। साथ ही पत्र-पत्रिकाओं से अनुरोध किया जाए कि वह जहां तक हो सके, देवी-देवताओं के चित्र छापने से बचें जिससे अनजाने में इनका अपमान होने से रोका जा सके।
पैकिंग मैटेरियल पर छपे चित्र
कुछ व्यापारी ग्राहकों की धार्मिक भावनाओं को जागृत कर बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से अपने उत्पादों या उनकी पैकिंग पर देवी-देवताओं के चित्र छापते हैं। परन्तु पैकिंग खोलते ही या उत्पाद का प्रयोग हो जाने के बाद, इन पर बने चित्रों की भी वही स्थिति होती है, जो पत्र-पत्रिकाओं में छपे चित्रों की होती है। इसे रोकने के लिए ग्राहकों को जागरूक होना होगा। यदि किसी उत्पाद या उसकी पैकिंग पर आपको ऐसे चित्र मिलें तो सम्बंधित कंपनी के जन-संपर्क विभाग को लिखें कि वह भविष्य में इन चित्रों को न छापें। यदि बहुत से ग्राहकों द्वारा ऐसे सुझाव् दिए जाएं तो उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा।

जैविक अनिस्तारणीय पदार्थों पर छपे चित्र सबसे बड़ी समस्या उन चित्रों को लेकर होती है जो जैविक- अनिस्तारणीय पदार्थों (Non-Bio-degradable) पर छपे होते हैं। आपने देखा होगा कि देवी-देवताओं के चित्र वाले बहुत से कैलेंडर आजकल पॉलिथीन पर छापे जाते हैं। जहां वर्ष समाप्त हो जाने पर कागज पर छपे ऐसे चित्रों वाले कैलेंडर जल-प्रवाहित या धरती में विसर्जित कर दिए जाते हैं, पॉलिथीन पर छपे चित्रों का विसर्जन एक समस्या बन जाता है। इन्हें न तो हमेशा के लिए घर में रख सकते हैं, क्योंकि कैलेंडर पुराने वर्ष का हो जाने के कारण उसे दीवार पर लगाये रखने का कोई औचित्य नहीं रहता, न जल में प्रवाहित कर सकते हैं और न ही धरती में विसर्जित कर सकते हैं क्योंकि वहां यह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।
यही स्थिति प्लास्टिक से बने पैकिंग-मैटेरियल पर छपे देवी-देवताओं के चित्रों को लेकर होती है। इस समस्या से निपटने के लिए जहां सरकार को नियम बनाने चाहिए कि किसी जैविक-अनिस्तारणीय पदार्थ पर ऐसे चित्र न छापे जाएं, वहीं ग्राहक भी ऐसे चित्रों वाली वस्तुओं को घर में लाने से परहेज करें ताकि बाद में उन चित्रों की दुर्दशा से होने वाले देवी-देवताओं के अपमान का दोषी होने से बचा जा सके।
कहा जा सकता है कि देवी-देवताओं की मूर्तियां या चित्र विधि-विधान से किये गए धार्मिक अनुष्ठान द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा होने के पश्चात ही दैवीय अस्तित्व प्राप्त करते हैं, उसके बिना नहीं। अत: निमंत्रण-पत्रों, समाचार-पत्र व पत्रिकाओं आदि में छपे देवी-देवताओं के चित्र उनके जागृत रूप का प्रतिनिधित्व नहीं करते, इसलिए इस विषय पर इतना गंभीर होने की आवश्यकता नहीं है। बात किसी हद तक सही हो सकती है, परन्तु घूम-फिर कर वहीं पहुंच जाती है कि क्या हम अपने या अपने परिजनों के फोटो के साथ भी ऐसा अपमानजनक व्यवहार होने दे सकते हैं?
यदि नहीं, तो विचार कीजिए कि अपने आराध्य देवी-देवताओं के प्रति स्वयं हमारे द्वारा ही जाने-अनजाने हो रहे इस अपमान-जनक व्यवहार को रोकने के लिए हम क्या कर सकते हैं!
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