जिसे तुम आत्मा के रूप में जानते हो, वह कोई इकाई नहीं है। लोगों में बस एक समझ पैदा करने के लिए, हिन्दू संस्कृति ने उस असीम का वर्णन करने के लिए एक शब्द का प्रयोग किया, दुर्भाग्य से इसे गलत रूप में समझा गया। जो असीम है वह एक इकाई कभी नहीं है, यह हो ही नहीं सकता, लेकिन जैसे ही तुम इसे एक नाम दे देते हो, यह एक इकाई बन जाता है। चाहे तुम इसे आत्मा कहो, सोल कहो, सेल्फ कहो- तुम इसे चाहे जो भी कहो- जैसे ही तुम इससे एक नाम जोड़ देते हो, यह एक इकाई बन जाता है। यहीं पर लोगों के साथ गलतफहमी और संघर्ष है। हम चुटकुले क्यों बना रहे हैं- अगर कोई सोल कहता है, मैं तुरंत अपने पैर के तलवे को देखने लगता हूं और उसकी हंसी उड़ाता हूं- यह उन्हें समझाने के लिए होता है कि चाहे जो भी उन्होंने इस संबंध में सोच रखा है, यह वह नहीं है। यह वैसा नहीं हो सकता। मैं इसके बारे में मजाक करता हूं और जो आत्मा की उनकी अवधारणा है, उसको नष्ट करता हूं।
लोग कहते हैं, अच्छी आत्माएं। पश्चिम में वे कहते हैं, अरे, ये एक अच्छी आत्मा है। कोई अच्छी या बुरी आत्मा नहीं होती। आत्मा सभी पहचानों से, सभी इकाइयों से, सभी चीजों से परे है। इसे देखने का दूसरा तरीका यह है कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। इसी कारण गौतम कहते फिरते थे, तुम अनात्मा हो। कोई आत्मा नहीं है। अगर कोई पूछता, फिर वह क्या है? वे कहते थे, अरे, वह शून्यता है। वे बस एक दूसरा नाम दे रहे हैं, बस तुम्हें ठग कर, तुम्हें तुम्हारी मिथ्या अवधारणाओं से बाहर निकाल रहे हैं। एक से तुम्हें बाहर निकालने के लिए, वे तुम्हें एक नई दुनिया में ले जा रहे हैं, बस इतना ही है। तो अब कल से तुम यह कहते फिरो, मैं शून्य हूं, मैं शून्य हूं, मैं शून्य हूं। यह भी एक इकाई बन जाती है। जब ऐसा होता है, हम दूसरे शब्द का प्रयोग करते हैं। देखो, ऐसा नहीं है कि जो वह है, शब्द उसकी व्याख्या करने का प्रयास करता है। जो वह है उस संबंध में तुम्हारी मिथ्या-अवधारणाओं को शब्द नष्ट करने का प्रयास करता है। बस इतना ही। मेरा जीवन और मेरा कार्य बस यही है- तुम्हारी सभी मिथ्या-अवधारणाओं को नष्ट करना। बस किसी अवधारणा को नष्ट करने का प्रयास करना और उसे एक दूसरा नाम देना, किसी को वास्तविकता तक नहीं पहुंचाएगा। एक गुरु की भूमिका उस हर चीज को नष्ट करना है जो सत्य नहीं है। बस इतना ही। कोई किसी को वास्तविकता तक कभी नहीं पहुंचा सकता, लेकिन अगर तुम सभी असत्य को नष्ट करने के लिए तैयार हो, फिर तुम वहां पहुंच जाओगे।
अब तुम प्राण के बारे में पूछ रहे हो। योग में इसे बहुत विवेकपूर्वक और अनूठे तरीके से देखा गया है। हर चीज को बस शरीर के रूप में देखा गया है, इस शारीरिक ढांचे को शरीर के रूप में, शरीर-विज्ञान को शरीर के रूप में, मन को शरीर के रूप में, ऊर्जा या प्राणिक तंत्र को शरीर के रूप में और आकाशीय तत्त्व को भी शरीर के रूप में देखा गया है। हर चीज को शरीर के रूप में, यहां तक कि आत्मा को भी शरीर के रूप में देखा गया है। चीजों को देखने का यह एक बहुत विवेकपूर्ण तरीका है। जब हम आनंदमय कोश कहते हैं, तब भी हम इससे परम को निरूपित नहीं कर रहे हैं, बल्कि वह भी शरीर के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि यह अभी ऐसा ही है। केवल यही तरीका है, जिससे तुम इसे समझ सकते हो। तुम वहां की किसी चीज के बारे में बातें मत करो (कुछ दूर इंगित करते हैं)। तुम इस संबंध में बात करो कि कैसे एक सीमा का अतिक्रमण किया जाए और फिर दूसरी तक जाया जाए। जब तुम सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर देते हो, फिर जो होता है वह होगा। उस संंबंध में तुम अभी क्यों सोचते हो, क्योंकि जो भी तुम सोचोगे, तुम केवल अपनी सीमाओं से ही सोचोगे। कोई भी किसी ऐसी चीज के बारे में नहीं सोच सकता जो उसके अनुभव के वर्तमान आयाम में नहीं है कोई भी व्यक्ति नहीं।
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