भारतीय राष्ट्रीय चिह्न-अशोक स्तंभ
bharatiya rashtriya chinh ashok stambh

Ashok Stambh: अशोक द्वारा सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) में निर्मित स्तंभ के चार सिंहों वाले शीर्ष फलक को भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 1950 को राष्ट्रचिह्ïन के रूप में अंगीकृत किया गया। इस शीर्षफलक में चार सिंह परस्पर एक-दूसरे से पीठ सटाये खड़े हैं, किन्तु आलेख संदर्शता बनाए रखने के लिए राष्ट्रचिह्न में तीन ही सिंह दर्शाए गए हैं। ये सिंह जिस शीर्षफलक पर खड़े हैं, उसके मध्य में 24 तीलियों वाला अशोक चक्र, दायीं ओर वृषभ तथा बायीं ओर अश्व की प्रतिकृति अंकित है। राष्ट्रचिह्न के नीचे देवनागरी में राष्ट्रीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ लिखा हुआ है।

भारत में राष्ट्रचिह्न के लिए जिस ‘अशोक स्तम्भ’ को स्वीकार किया है, वह हमारी पुरातन संस्कृति और आध्यात्मिक भाव धारा का प्रतीक है। कहा जाता है कि बौद्ध धर्म का चिह्न होने के कारण यह धर्म विशेष का संकेत है। लेकिन यह बात नहीं है। यद्यपि इस चिह्न का उपयोग प्रमुखता से बौद्धकाल में हुआ है और उसके पूर्ववर्ती काल में इस प्रकार की शिल्पकला का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
भारत में अशोक ने ही सिंह की महत्ता स्वीकार की हो ऐसा नहीं है। ईसा पूर्व की प्रथम शती में अनेक राज्य मुद्राओं और स्तम्भों पर सिंह को सम्मान मिला है। शक्ति के वाहन रूप में सिंहों का सदैव उपयोग हुआ है और वह इस बात का सूचक है कि शासन में सन्निहित रहने वाली शक्ति ‘सिंह’ के द्वारा सूचित होती है। ईसा पूर्व महाक्षत्रिय भूमक ने भी अपनी मुद्रा पर ‘सिंह’एवं ‘चक्र’ के चिह्न का प्रयोग किया है। इसके अलावा अनेक पुरातन राज्य मुद्राएं सिंह की सुन्दर आकृति से अलंकृत हुई हैं।
अशोक के स्तंभों में सिंह के साथ जिस चक्र का प्रयोग हुआ है वह भी बौद्ध का नहीं है। वह भारतीय परम्परा की अध्यात्म-भावना का जीवन की सतत् प्रवाहमान गति और समदर्शिता का सूचक है। अशोक ने तो इसे अपना लिया पर भगवान बुद्ध ने जिस ‘धर्म-चक्र’ प्रवर्तन का कार्य किया है, वह आध्यात्मिक है। अध्यात्म भावना में षट चक्र और कमल के विकास की कल्पना है, चक्र उसी के स्वरूप का प्रदर्शक है। भारत में सम्राट अशोक के समय जब कला और शिल्पांकन का चरम विकास हो गया था सिंह का अत्यन्त सुन्दरता से अनेक स्मारकों पर स्वाभाविक प्रयोग हुआ। भारत ही नहीं जावा, सुमात्रा, मिश्र, सुदूर जर्मनी में भी सिंह को अत्यन्त सम्मान का स्थान दिया गया। तीसरी शताब्दी ई.पू. में अशोक ने सारनाथ के मृगदाव नाम के क्रीड़ावन में ऊंचा स्तंभ बनवाया। इस स्तंभ के शिखर पर चार सिंहों वाला शीर्षफलक था। बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध को शाक्य सिंह कहा गया है। इसलिए चार दिशाओं की ओर मुंह किए ये चार सिंह महात्मा बुद्ध के प्रतीक स्वरूप स्थापित किए गए थे।
मूल स्तंभ में ये चारों सिंह पीठ पर प्रस्तर चक्र बुद्ध के ‘धम्म चक्क प्रवर्तन’ (धर्म चक्र प्रवर्तन) का प्रतीक था। बौद्ध धर्म की मान्यता है कि भगवान बुद्ध ने सारनाथ में अपने पहले उपदेश के साथ धर्म-रूपी चक्र का प्रवर्तन आरंभ किया था। यही चक्र आज हमारे राष्ट्रध्वज के रूप में प्रतिष्ठित है।
कई शताब्दियों पूर्व अशोक स्तंभ के शिखर पर स्थित सिंह का शीर्षफलक टूट कर नीचे गिर गया था। 1905 में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को यह खुदाई में मिला। स्तंभ का उत्कीर्ण ऊपरी भाग तथा धर्मचक्र के कुछ टुकड़े स्तंभ के आसपास मिट्टी में दबे मिले। यह प्रस्तर चक्र आजकल सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है।
किसी भी देश के लिए उसका राष्ट्रचिह्न बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। सारनाथ से लिया गया हमारा अशोक स्तंभ वाला राष्ट्रचिह्न इतिहास, संस्कृति और उदार धर्म भावना का सुन्दर समन्वय है। अशोक स्तंभ वाले हमारे राष्ट्रचिह्न के शिखर पर स्थित धर्म चक्र नीतिपरायणता के भ्रमणशील चक्र का प्रतीक माना जाता रहा है। चारों दिशाओं की ओर मुंह किए सिंह काम तथा पाश्विक शक्ति के प्रतीक हैं तथा उनके नीचे बना कमल पुष्प अर्थ या संपश्रि तथा समृद्धि का प्रतीक है। अशोक स्तम्भ के पूरे प्रतीक का अर्थ है-धर्म का स्थान, काम और अर्थ दोनों से ऊपर है अर्थात् सत्य धर्म ही काम और अर्थ को नियंत्रित, संयमित करता है। भारत में राष्ट्रचिह्न के लिए जिस अशोक स्तंभ को स्वीकार किया है उसमें सिंह की त्रिमूर्ति में ‘सत्व-रज-तम’ की भव्य भावना समाविष्ट है। वह सत्य, अहिंसा और दया का भी प्रतीक है। सिंह हिंसक जीव है, यह सत्य है पर शौर्य-पराक्रम एवं शक्ति का उपादान भी है। इसलिए इसे शासकीय पराक्रम का प्रतीक माना गया है। साथ ही वह सात्विक भावना से ओत-प्रोत भी समझा जाता है।
भारत के राष्ट्रीय चिह्न वाले सिंह स्तंभ और धर्मचक्र का प्रस्तुत रूप हमें सर्वप्रथम सारनाथ में दिखाई पड़ता है। हमारे यहां सबसे ज्यादा स्तंभ अशोक के ही बनवाए हुए हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि अशोक ने लगभग 30 प्रस्तर स्तंभ स्थापित किए थे। इनमें से अधिकतर तो नष्ट हो कर लुप्त हो चुके हैं। कुछ टूटे हुए मिले हैं। कुछ ही स्तंभ ऐसे हैं जो आज भी अच्छी दशा में हैं। इतिहासकारों का मानना है कि अशोक को प्रस्तर स्तंभ बनवाने तथा शिलाओं पर लेख खुदवाने की प्रेरणा ईरान से मिली होगी क्योंकि शीर्ष या शिखर पर पशुओं की मूर्तियों से मंडित स्तंभ निर्माण की परम्परा ईरान में भारत से बहुत पुरानी है।
वास्तु इतिहासकारों का मत है कि भारत में धर्मस्तम्भों की परंपरा यज्ञों के यूपों से प्रचलित हुई है। यज्ञों में लकड़ी के खम्भों से बलि के पशु बांधे जाते थे। इन खम्भों को यूप कहा जाता था। संभवत: इन्हीं यूपों से बाद में प्रस्तर स्तंभों की स्थापना की परंपरा आरंभ हुई होगी।
अशोक के सभी स्तंभों का शिल्प-सौंदर्य अद्भुत है, किन्तु इनमें भी सारनाथ के स्तंभ का निखार अनुपम है। भारत के राष्ट्रचिह्न के लिए इसी ‘अशोक स्तंभ’ को स्वीकार किया गया है। स्वतंत्रता से वर्षों पूर्व हिन्दी के विख्यात लेखक पं. सूर्यनारायण व्यास ने सबसे पहले सारनाथ के अशोक स्तंभ वाले ‘सिंह चक्र’ को अपने मासिक ‘विक्रम’ 1930 में मुख्यपृष्ठ पर छापना शुरू किया तथा बाद में यही हमारा राष्ट्रचिह्न बना।

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अशोक स्तम्भ के पूरे प्रतीक का अर्थ है-धर्म का स्थान, काम और अर्थ दोनों से ऊपर है अर्थात् सत्य धर्म ही काम और अर्थ को नियंत्रित, संयमित करता है।