महलों में वैभव और समृद्धि की छांव तले, पले बढ़े युवा सिद्धार्थ को रोगी, वृद्ध और शव तथा संन्यासी देखकर जीवन का सत्य खोजने की प्रेरणा हुई और सत्य की खोज की इस आदिम इच्छा ने युवा सिद्धार्थ को राजमहल, पत्नी एवं पुत्र को त्याग कर ज्ञान के पथ की ओर अग्रसरित कर दिया। इसे एक अद्ïभुत संयोग ही कहा जाएगा कि सिद्धार्थ का जन्म, ज्ञान
प्राप्ति एवं महानिर्वाण तीनों का दिन एक ही था।
स्थान-स्थान पर घूमते और सत्य की खोज के भिन्न-भिन्न माध्यमों को अपनाते सिद्धार्थ को बोधि वृक्ष की छाया में सत्य का आभास हुआ और तब उन्होंने इस आभासित सत्य को अपने उपदेशों के द्वारा अपने शिष्यों को प्रदान-किया जीवन-मृत्यु और पुर्न: जन्म के अनवरत चक्र को तोड़ना है तो अष्टशील को अपनाना ही एक मात्र उपाय है। गौतम बुद्ध के 213 उपदेश ‘त्रिपिटक’ नाम से संकलित किए गए। बुद्ध का जन्म स्थान, ज्ञान प्राप्ति स्थल एवं महानिर्वाण स्थल सहित वे सभी स्थल जहां से बुद्ध का संबंध रहा कालान्तर में ‘बौद्ध आस्था केन्द्र’ बन गए, इन सारे स्थलों की संख्या हजारों में हैं किन्तु भारतवर्ष के प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल बौद्ध मतावलम्बियों के ही नहीं सामान्य पर्यटकों के लिए भी आकर्षक पर्यटक स्थल एवं शांति-आध्यात्मिक स्पर्श देने वाले स्थल हैं।
कपिलवस्तु

उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध नगर गोरखपुर से 100 किलोमीटर दूर गोरखपुर-गोण्डा संपर्क मार्ग पर स्थित कपिलवस्तु (वर्तमान नाम पिपरहवा) कभी शाक्य वंश के राजाओं के काल में भारतवर्ष की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ था कपिलवस्तु के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन ‘नौगढ़’ है।
सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु में सिद्धार्थ का बचपन और जीवन के प्रारंभिक 29 वर्ष बीते। यहीं के उद्यानों में सिद्धार्थ एवं देवदत्त का हंस के शिकार को लेकर वाकयुद्ध हुआ। यहीं उनका यशोधरा से विवाह हुआ और राहुल जैसा पुत्र प्राप्त हुआ और यहीं रोगी, वृद्ध, शव एवं साधुओं के दर्शन ने उन्हें सत्य की खोज के पथ पर चलने की प्रेरणा दी। कपिलवस्तु में अनेक स्तूप, अशोक स्तंभ एवं एक प्राचीन किले के ध्वंसावशेष मौजूद हैं।
बोधगया

बौद्ध तीर्थ स्थलों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थल बोधगया माना जाता है। सामान्य ऋषियों द्वारा अपनाए जाने वाले तप मार्ग की व्यर्थता को अनुभव कर सिद्धार्थ ने ध्यान मार्ग को अपनाया और बोधगया में एक विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में उन्हें ज्ञान की ज्योति के दर्शन हुए। इस वृक्ष को ही ‘बोधिवृक्ष’ की संज्ञा दी गई। बोधगया में आज भी बोधि वृक्ष मौजूद है और ऐसी मान्यता है कि यह वृक्ष उसी बोधिवृक्ष का वंशज है जिसके नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ।
फाल्गू नदी के किनारे बसे इस छोटे से नगर का पूर्व नाम ‘उरूबिल्ल’ था। पुरातत्व एवं स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण महाबोधि मन्दिर इस स्थल का प्रमुख आकर्षण है। यह मन्दिर इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि यहां अनेक संस्कृतियों का संगम नजर आता है। गुप्त वंशीय स्थापत्य कला और उसके बाद के काल की स्थापना कला के स्पष्ट चिह्न इस मन्दिर की दीवारों पर अंकित हैं। गौतम बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं को इस मंदिर की दीवारों पर उकेरा गया है और इन सभी मुद्राओं का अपना आध्यात्मिक महत्त्व है। सातवीं एवं आठवीं शताब्दी में श्रीलंका, चीन, म्यांमार आदि से आए यात्रियों के लेख भी यहां सुरक्षित हैं। चीनी यात्री ‘हवेन सांग’ ने भी सातवीं शताब्दी में यहां की यात्रा की थी। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण अशोक द्वारा करवाया गया था। यहां अशोक स्तंभ संग्रहालय एवं फल्गू नदी के दूसरे किनारे पर सुजाता की कुटी भी मौजूद है। इसे दुर्गेश्वरी मन्दिर भी कहा जाता है। कहते हैं कि इसी स्थल पर भगवान बुद्ध को सुजाता ने खीर दान की थी।
महाबोधि मंदिर के निकट ही चार मंदिर एक साथ बने हुए हैं। पुरातात्विक महत्त्व के पत्थरों से घिरी चार दीवारी के अन्दर हरीतिमा से घिरे इन मंदिरों में कई समाधियां बनी हुई हैं। वहीं पास में बौद्ध भिक्षुओं के मठ भी बने हुए हैं।
निकट ही शिव को समर्पित जगन्नाथ मंदिर भी स्थापित किया गया है। इसके अन्दर के विग्रह काले पत्थर के बने हुए हैं।
बोधगया पुरातात्विक संग्रहालय का ऐसा महत्त्वपूर्ण स्थल है जिसका आनन्द न केवल धार्मिक यात्री उठाते हैं वरन् सामान्य पर्यटक भी यहां आकर पुराने समय की यात्रा कर लेते हैं। पहली शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी के मध्य के पुरातात्विक महत्त्व की मूर्तियां एवं अन्य सामग्री यहां संग्रहित हैं।
बोधगया बनारस से 245 किमी. और पटना से (राजगीर तथा नालन्दा होकर) 178 कि.मी. की दूर पर स्थित है। यहां बिरला धर्मशाला सहित आवास के लिए बहुत से सुविधाजनक स्थान उपलब्ध हैं।
गया

फाल्गू नदी की धारा से प्रसिद्ध प्रेतशिला और रामशिला के मध्य बोधगया से 12 कि.मी. दूर हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ गया स्थित है। गया में भी विशाल संख्या में बौद्ध मन्दिर हैं। अन्य निकटवर्ती स्थलों से 20 कि.मी. दूर देव का सूर्य मंदिर, कोच का कोचेश्वर महादेव मंदिर, 40 कि.मी. दूर बराबार गुफाएं और 123 कि.मी. दूर सासाराम स्थित तीसरी शताब्दी में निर्मित बौद्ध गुफाएं महत्त्वपूर्ण एवं दर्शनीय हैं। रम्य वातावरण, आध्यात्मिक शांति और पुरातात्विक वैभव से समृद्ध यह स्थल किसी को भी मुग्ध कर लेने की क्षमता रखता है।
सारनाथ

हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ एवं सात पुरियों में एक वाराणसी से मात्र 10 कि.मी. दूर स्थित सारनाथ इस दृष्टि से महान आध्यात्मिक महत्त्व रखता है कि इसी स्थल पर गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम ज्ञानोपदेश दिया था। इसे धर्मचक्र प्रवर्तन भी कहा जाता है। बौद्ध धर्म की महान संघ परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई। गौतम बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों एवं बनारस के यश तथा उसके 54 मित्रों के साथ यहीं प्रथम संघ की स्थापना की और बौद्ध धर्म का प्राण मंत्र ‘बुद्धम शरणम् गच्छामि’ का उद्गम स्थल भी यही सारनाथ है। बोधगया की यात्रा के बाद प्रत्येक बौद्धतीर्थ यात्री यहां की मूर्ति को नमन करना अपना पुनीत धर्म मानता है।
धम्यक स्तूप को गौतम बुद्ध के बैठने का स्थान माना जाता है। यह 32 मीटर ऊंचा है और 10 मीटर तक भूमि में इसकी नींव है। सारनाथ में निवास के समय जहां बुद्ध ने विश्राम एवं ध्यान किया था वह स्थल ‘धर्मराजिका स्तूप’ के ध्वंसावशेष के रूप में मौजूद है। ह्वेन सांग के अनुसार इस स्तूप का नाम ‘मूलगंध कुटी मंदिर’ था और इसकी ऊंचाई 61 मीटर थी।
राजगीर

पटना से 12 कि.मी. दूर बसा राजगीर बौद्ध मतावलम्बियों के लिए महत्त्वपूर्ण आस्था का केन्द्र है। राजगीर का अर्थ होता है ‘वैभवपूर्ण स्थल’। ग्रहकूट की वे पहाड़ियां जहां से गौतम के अनेक महत्त्वपूर्ण उपदेश गूंजे, राजगीर का ही एक सुरम्य भाग है। इसी स्थल पर गौतम की शिक्षाओं को प्रथम बार लिपिबद्ध किया गया। राजगीर में जापान के बौद्ध मतावलम्बियों द्वारा बनवाया गया विशाल स्तूप है जो एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इस स्तूप तक यात्री ‘रोप वे’ के द्वारा भी पहुंच सकते हैं। ‘रोप वे’ की यह यात्रा आनन्द एवं रोमांच की अनुभूति कराती है। राजगीर के आस-पास पुरातात्विक एवं धार्मिक महत्त्व के अनेक स्थल हैं पांचवीं-छठी शताब्दी के प्रमुख मौर्य सम्राट बिम्बसार, जिसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली थी की जेल वह महत्त्वपूर्ण स्थल है जहां बिम्बसार ने अपना अंतिम समय व्यतीत किया।
पर्यटकों की रुचि के अनुकूल दूसरा स्थल अजातशत्रु का किला है। सप्तधारा एक आकर्षक गर्म धारा का झरना है जहां स्नान करना स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। यहीं निकट ही बिम्बसार द्वारा गौतम बुद्ध के लिए बनवाया गया वेणुवन विहार है। यह स्थल अपनी विविध रंगी वन-संपत्ति के कारण पर्यटकों को प्रकृति के निकट लाता है। बुद्धकालीन स्थानों में बुद्ध के शिष्य जीवक का निवास स्थल और गौतम बुद्ध का स्नानागार करान्द-ताल भी दर्शनीय स्थल माने जाते हैं।
यहां सात गुफाएं हैं जिन्हें सप्तपर्नी, पिप्पाला, कपोत, गौतम, तिन्दुके, एवं तपोद आदि कहा जाता है। यहां से 12 किलोमीटर दूर महाभारत कालीन राजा जरासन्ध की राजधानी बड़ा गांव है। यहां भी बौद्ध विहार है। राजगीर पटना से 103 किमी एवं गया से 34 किमी की दूरी पर स्थित है।
कौशाम्बी

बोधिसत्व होने के बाद गौतम ने छठें एवं नौवें वर्ष में कौशाम्बी की यात्रा की थी। कौशाम्बी प्रयाग से 54 किमी. दूर स्थित है। बुद्ध ने अपनी कई महत्त्वपूर्ण शिक्षाएं यहीं दी और यह स्थल बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध शिक्षा स्थल बन गया। अशोक स्तंभ, पुराना किला आदि के भग्नावशेष अब भी यहां देखे जा सकते हैं। कौशाम्बी नगर भगवान बुद्ध के काल में राजा उदयन की राजधानी के रूप मे प्रतिष्ठित था। कहते हैं कि उदयन की एक रानी श्यामावती बुद्ध की उपासिका थीं।
कुशीनगर

गोरखपुर से 55 किमी. दूरी पर स्थित है कुशीनगर, बौद्ध मतवालम्बियों के लिए अत्यन्त पवित्र स्थल है। इसी स्थल पर बुद्ध ने अपनी अंतिम श्वास ली और अंतिम उपदेश भी दिया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण की स्मृति स्वरूप यहां एक विशाल दर्शनीय महापरिनिर्वाण मंदिर का निर्माण किया गया है। यहां भगवान बुद्ध की दो विशाल प्रतिमाएं हैं। एक बैठी हुई अवस्था में एवं दूसरी लेटी हुई अवस्था में पांचवीं शताब्दी में कुमार गुप्त के शासनकाल में बौद्ध भिक्षु हरिबाला द्वारा मथुरा से लाई गई, बुद्ध की प्रतिमा, जो लेटी हुई अवस्था में है, यहां सन् 1876 में स्थापित की गई थीं। यह प्रतिमा देश की चुनिंदा प्रतिमाओं में से एक है।
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद यह सारा स्थल ही स्मृति स्थल बन चुका है। गुप्त काल के चैत्य और विहार सहित मुकुटबन्धन स्तूप यहां आकर्षण का केंद्र हैं।
पर्यटन की दृष्टि से कुशीनगर तीन भागों में बंटा हुआ है। महापरिनिर्वाण मंदिर, माता कुंवर समाधि स्थल जहां 10वीं शताब्दी का एक नीला पत्थर मौजूद है, जिसमें भगवान बुद्ध की छवि स्पष्ट नजर आती है और राम्भर स्तूप जहां भगवान बुद्ध का दाह कर्म हुआ। इसके अतिरिक्त चीनी मंदिर, बौद्ध मंदिर एवं ताइवान मंदिर भी दर्शनीय स्थल हैं। भारत जापान श्रीलंका के बौद्ध केंद्र भी यहां बौद्ध आस्थावान यात्रियों के लिए महत्त्वपूर्ण स्थल है।
श्रावस्ती

लखनऊ से 134 किमी. एवं बलरामपुर से 29 किमी. दूर स्थित श्रावस्ती प्राचीन काल में कौशल राज्यवंश की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित था। यहां के जेतवन-उद्यान में बुद्ध ने 24 वर्षाकाल व्यतीत किए थे। कहते हैं कि इस नगर की स्थापना पौराणिक ‘राजा श्रावस्त’ ने की थी यहां कुछ स्तूप एवं मंदिर मौजूद हैं। यहां प्रसिद्ध आनन्द बोधिवृक्ष जिसे गौतम बुद्ध के शिष्य आनन्द ने रोपा है, श्रद्धा का केंद्र है। अंगुलीमाल नामक दुर्दान्त दस्यु को गौतम ने इसी स्थल पर सत्य का भान कराकर बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था तथा वृद्धोपदेशों में वर्णित 213 उपदेश भगवान बुद्ध ने यहीं उदघोषित किए थे। इस दृष्टि से बौद्ध मतावलम्बियों के लिए यह पूरा ही स्थल श्रद्धा का केंद्र है।
वैशाली

वैशाली को विश्व का प्रथम गणतंत्र कहा जाता है। इतिहास प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली इसी स्थल पर निवास करती थी। आम्रपाली बाद में बौद्ध भिक्षु बन गई। यहीं कोल्हुआ में बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश दिया और बाद में सम्राट अशोक ने यहां स्तंभ का निर्माण करवाया।
गौतमबुद्ध के महापरिनिर्वाण के 100 वर्षों बाद यहीं ‘विनय’ के 10 सिद्धांतों पर बहस हुई। चौथी शताब्दी में बना बौद्ध स्तूप प्रथम एवं द्वितीय, चौमुखी महादेव (यहां शिव की चार मुखी प्रतिमा हैं), भवन पारवर मन्दिर (यहां कई हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं) लिच्छवी राजाओं का ताल, वैशाली संग्रहालय, चार किमी. दूर भगवान महावीर का जन्म स्तान कुण्डलपुर आदि अन्य आकर्षक दर्शनीय स्थल हैं।
इसी स्थल पर गौतम बुद्ध ने प्रजापति गौतमी यशोधरा सहित 500 शाक्य स्त्रियों को प्रवज्जित कर प्रथम भिक्षुणी संघ की स्थापना की थी।
अन्य बौद्ध पर्यटन स्थल
नालन्दा- पटना से 90 किमी. दूर बसा नालन्दा किसी समय विद्या का प्रख्यात केंद्र रहा। नालन्दा विश्वविद्यालय की ख्याति संपूर्णविश्व में रही। कहते हैं कि इस समृद्ध विश्वविद्यालय में नौ लाख ग्रंथ थे एवं 1000 विद्यार्थी अध्ययनरत थे। जिन्हें 200 शिक्षक शिक्षा देते थे। पांचवीं से 12वीं शताब्दी के मध्य यह विश्वविद्यालय विद्यावैभव का केंद्र रहा है। गौतम बुद्ध और भगवान महावीर दोनों ने इस स्थल की यात्रा की यहां सम्राट अशोक ने एक विहार का निर्माण कराया। सम्राट हर्षवर्धन ने एक 26 मीटर ऊंची बुद्ध की तांबे की प्रतिमा स्थापित करवाई और सम्राट कुमार गुप्त ने ललित कलाओं के संबंध हेतु एक विद्यालय स्थापित किया। सन् 1951 में बौद्ध साहित्य में शोध एवं अध्ययन हेतु यहां एक अंतर्राष्ट्रीय केंद्र की स्थापना भी की गई। धर्म सेनापति सारिपुत्र का जन्म एवं परिनिर्वाण भी यहीं हुआ नालन्दा विश्वविद्यालय के दीक्षित ‘भिक्षु मदमसम्भव’ ने तिब्बत में लामाधर्म की स्थापना की।
संकिसा- उत्तर प्रदेश के परवना रेलवे स्टेशन से 12 किमी. दूर (फर्रुखाबाद से यह स्थल 47 किमी. दूर है) स्थित संकिसा प्रसिद्ध बौद्ध स्थल है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार स्वयं गौतम बुद्ध अपनी मां को उपदेश देने के बाद ब्रह्मा एवं देवराज इन्द्र के साथ यहां उतरे थे। स्थल पर बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित भी है। इसके अतिरिक्त बिसेरी देवी, मंदिर और खुदाई में प्राप्त अशोक का हस्थी स्तम्भ भी यहां के प्रमुख आकर्षण हैं।
सांची- भारत में कुछ बौद्ध स्थल ऐसे भी हैं जिन्हें काल क्रम में भुला दिया गया ऐसे ही स्थलों में सांची जैसे महत्त्वपूर्ण स्थल का नाम आता है। 13वीं शताब्दी तक बौद्ध आस्था एवं विश्वास का केंद्र रहा सांची मुगलकाल में विस्मृत कर दिया गया था सन् 1818 में एक ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर ने इसकी पुन: खोज की और बाद में सन् 1912 में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के ‘महानिर्देशक सर जॉन मार्शल’ ने इसका पुनरोद्धार कराया।
सांची एक छोटा-सा आकर्षक पर्वतीय स्थल है जहां कई स्तूप, मंदिर और स्तम्भ है। सांची को बौद्ध साहित्य के अध्यापन-अध्ययन का प्राचीन केंद्र माना जाता है। परंपरागत रूप से भगवान बुद्ध की उपस्थिति का एहसास कराने वाले चिह्नï यहां मौजूद हैं। कमल भगवान बुद्ध के जन्म को इंगित करता है। वृक्ष ज्ञान प्राप्ति का संकेत देता है। चक्र उनके द्वारा दिए गए प्रथम उपदेश का द्योतक है और स्तूप उनके निर्वाण का प्रतीक है। पद चिह्नï एवं मुकुट बुद्ध की साक्षात् उपस्थिति का बोध कराते हैं।
सांची का प्रमुख स्तूप (स्तूप सं.1) 16.4 मीटर ऊंचा है एवं इसका व्यास 36.5 मीटर है। यह भारत के प्राचीनतम निर्माणों में से एक माना जाता है। मूल रूप से समाट अशोक द्वारा निर्मित इस स्तूप का पुन निर्माण ईसा से तीन एवं दो शताब्दी पूर्व हुआ। दक्षिण द्वार पर गौतम के जन्म से संबंधित कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है। उत्तरी द्वार पर एक चक्रका निर्माण किया गया है जिसे न्याय चक्र कहा जाता है, जिस पर जातक कथाओं में बुद्ध द्वारा किए गए चमत्कारों की कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है। पूर्वी द्वार पर जो चित्र उत्कीर्ण किए गए हैं उनमें युवा सिद्धार्थ का ग्रह त्याग महामाया का स्वप्न आदि दृश्य अंकित हैं और पश्चमी द्वार पर बुद्ध के सात अवतारों को उत्कीर्ण किया गया है।
दूसरी शताब्दी में निर्मित स्तूप संख्या 2 पहाड़ी के बिल्कुल किनारे पर स्थित है जिसके चारों तरफ पत्थर का जंगला लगा हुआ है स्तूप संख्या तीन में बुद्ध के दो शिष्यों ‘सारिपुत्र’ एवं ‘महामोगलाना’ के शव प्राप्त हुए थे अत: यह बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए महत्त्वपूर्ण है।
अजन्ता गुफाएं

जलगांव रेलवे स्टेशन से 52 किमी. कि दूरी पर स्थिति विश्व प्रसिद्ध अजन्ता की गुफाएं घोड़े के नाल के आकार के सहयाद्री पर्वत में स्थित हैं। इन गुफाओं में भगवान बुद्ध का संपूर्ण जीवन चित्रित किया गया है। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में स्थित यह गुफा संपूर्ण विश्व में अपनी तरह का अनोखा स्थल है। ईसा से दो शताब्दी पूर्व से 250 ई. के मध्य इनका निर्माण हुआ था। इनकी खोज का श्रेय ‘जॉन स्मिथ’ को जाता है। सन् 1819 में शिकार यात्रा के मध्य जॉन स्मिथ ने इनकी खोज की। स्थापत्य, शिल्प एवं चित्रकला का यह अद्भुत समन्वय है। चैतन्य (प्रार्थना ग्रह) एवं विहार दोनों ही प्रकार के निर्माण यहां किए गए हैं। ‘हीनयान संप्रदाय’ से संदर्भित-2 चैत्य-हाल तथा चार विहार एवं ‘महायान सम्प्रदाय’ से सन्दर्भित-3 चैत्य हाल एवं 11 विहार यहां मौजूद हैं। (बौद्ध धर्म के ये दो संप्रदाय माने जाते हैं-‘हीनयान तथा महायान’।)
इन स्थलों के अतिरिक्त कारला गुफाएं (लोनावाला से 11 किमी. दूर), कान्हेरी (मुंबई से 42 किमी. दूर), जुनार गुफाएं (मुंबई से 177 किमी. दूर शिवाजी का जन्मस्थल), भाजा गुफाएं (लोनावाला से 12 किमी. दूर) एवं नागार्जुन कोड़ा (हैदराबाद से 150 किमी. दूर) अन्य महत्त्वपूर्ण बौद्ध स्थल माने जाते हैं।
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