Bhagavad Gita Lessons: “आप वही हैं जो आप खाते हैं” यह एक पुरानी कहावत है, जो हमारे प्राचीन शास्त्रों जैसे भगवद गीता, उपनिषद और पतंजलि के योग सूत्रों में निहित गहरी शिक्षा का प्रतीक है। ये शिक्षाएँ जीवन में संतुलन के महत्व पर जोर देती हैं, विशेष रूप से आहार के मामले में, अगर कोई स्वास्थ्य, सुख और आध्यात्मिक उन्नति चाहता है।
भगवद गीता के छठे अध्याय, श्लोक 17 में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि एक संतुलित जीवनशैली, जिसमें सही आहार, नींद और जागने का समय, और ध्यान का अभ्यास हो, दुख और असंतोष को नष्ट करता है। यह श्लोक इस प्रकार है:
“युहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नाबोधस्य योगो भवति दुःखहा।”
इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति आहार, आचरण और नींद में संतुलित है, वह दुख और दर्द का नाश करने वाला होता है और आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है।
आहार और हमारे स्वभाव पर उसका प्रभाव
भगवद गीता में तीन गुणों सात्विक, राजसिक और तामसिक के बारे में बताया गया है। ये गुण हमारे स्वभाव को प्रभावित करते हैं और आहार भी इन गुणों से जुड़ा हुआ है। आइए जानते हैं कि हर एक गुण के अनुसार आहार हमारे शरीर और मस्तिष्क पर कैसे प्रभाव डालता है।
सात्विक आहार: आध्यात्मिक शांति की ओर
सात्विक आहार को शुद्ध, हल्का और पोषक माना जाता है, जो शरीर और मस्तिष्क को शांति और ताजगी प्रदान करता है। ये आहार मानसिक शांति, आत्म-साक्षात्कार और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं। इनका सेवन व्यक्ति को संतुलित, स्वस्थ और सुखी बनाता है। सात्विक आहार में ताजे फल, सब्जियाँ, अनाज, दालें और डेयरी उत्पाद शामिल होते हैं।
सात्विक आहार के लक्षण:
ताजे, रसीले और पोषक
हल्के, आसानी से पचने वाले, और प्राकृतिक स्वाद वाले
स्वास्थ्य, दीर्घायु और आनंद बढ़ाने वाले
आध्यात्मिक जीवन के लिए सबसे उपयुक्त
सात्विक आहार को अपनाने से व्यक्ति शांति, सद्गुण और बुद्धिमत्ता की ओर अग्रसर होता है।

राजसिक आहार: शांति से विचलन
राजसिक आहार तीव्र, उत्तेजक और अत्यधिक मसालेदार होता है। यह आहार बहुत तीखा, खट्टा, नमकीन या अधिक मीठा हो सकता है और यह शरीर और मस्तिष्क को उत्तेजित करता है। यह आहार उन लोगों को आकर्षित करता है जो अपनी इच्छाओं और भौतिक सुखों की ओर प्रवृत्त होते हैं, लेकिन मानसिक अशांति और तनाव का कारण बनता है। राजसिक आहार से चिंता, तनाव और मानसिक असंतोष उत्पन्न हो सकते हैं।
राजसिक आहार के लक्षण:
अत्यधिक तीखा, खट्टा, या नमकीन
भारी या अत्यधिक तैलीय
चिंता, गुस्सा और उत्तेजना का कारण बनने वाला
इंद्रियों के सुख के लिए आकर्षक
राजसिक आहार तत्काल आनंद दे सकता है, लेकिन यह लंबे समय तक शांति और संतोष की प्राप्ति में रुकावट डालता है।
तामसिक आहार: अव्यवस्था और अज्ञान का स्रोत
तामसिक आहार वह है जो सड़ा-गला, अपवित्र और पुराने खाद्य पदार्थों से बना होता है। भगवद गीता में यह कहा गया है कि “जो आहार बेस्वाद, सड़े हुए, और अपवित्र होते हैं, वे तामसिक स्वभाव वालों को प्रिय होते हैं।” तामसिक आहार जैसे मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि न केवल शरीर को कमजोर करते हैं बल्कि मस्तिष्क को भी सुस्त और भ्रमित करते हैं। ये आहार मानसिक और शारीरिक कमजोरी का कारण बनते हैं।
तामसिक आहार के लक्षण:
सड़ा-गला, बासी और अपवित्र भोजन
स्वादहीन, पुराने और अस्वास्थ्यकर
आलस्य, भ्रम और अज्ञान को बढ़ावा देने वाला
मांस, शराब, प्याज, लहसुन आदि
तामसिक आहार से मस्तिष्क और शरीर दोनों कमजोर होते हैं, और यह व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति से दूर ले जाता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से आहार का महत्व
भगवद गीता यह स्पष्ट करती है कि आहार हमारे शरीर, मस्तिष्क और आत्मा पर गहरा प्रभाव डालता है। सात्विक आहार मानसिक शांति, संतोष और स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है, जबकि राजसिक आहार इंद्रियों के लिए आकर्षक हो सकता है, लेकिन यह मानसिक अशांति और भटकाव उत्पन्न करता है। तामसिक आहार शरीर और मस्तिष्क को कमजोर करता है और व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास से दूर कर देता है।
इस प्रकार, हर भोजन केवल शारीरिक पोषण का मामला नहीं है, बल्कि यह एक अवसर है हमारे मस्तिष्क और आत्मा को आकार देने का।
