रूद्राक्ष के जन्मदाता भगवान शंकर माने जाते हैं, रूद्राक्ष का नाम भगवान शिव से पड़ा। रूद्र अर्थात् भगवान शिव और अक्ष अर्थात् रक्त या आसूं। यानी शिव के आसूं। बताया जाता है कि एक बार भगवान शिव हजारों साल से ध्यान में लीन थे और जब उनका मन सामान्य जीवन में आया तो उन्होंने थककर अपनी आंखें बंद कर लीं, तभी उनकी आंखों से आसूं की बूंद पृथ्वी पर जा गिरी। जहां-जहां वो बूंदे छलकीं वहां पर रूद्राक्ष के पेड़ उग गए और तभी से शुरूआत हुई रूद्राक्ष की। बताया जाता है कि भगवान शिव रूद्राक्ष की मालाओं को आभूषण के तौर पर भी पहनते थे। सब मालाओं में सर्वश्रेष्ठ माला रूद्राक्ष की माला मानी गई है। रूद्राक्ष की माला का जप, तंत्र-मंत्रादि में बड़ा ही महत्त्व है।

रूद्राक्ष वैसे तो एक फल है जो हिमालय में पाया जाता है। रूद्राक्ष का आकार नीले रंग को गोल बेर जैसा होता है। सूखने पर जब हम उसका ऊपर का छिलका उतार देते हैं तो अंदर एक ठोस बीज निकलता है, उसे ही हम रूद्राक्ष कहते हैं। उस बीज के ऊपर पतली-पतली लंबी धारियां होती हैं, उनसे ही पता चलता है रूद्राक्ष कितना मुखी है। इसके ऊपर की धारियां लगभग 2-14 होती हैं।

ये ज्यादातर तीन आकार में मिलते हैं। आंवले के बराबर, बेर के बराबर और चने के बराबर। इनका इस्तेमाल ज्यादातर भारत और नेपाल में किया जाता है। ये हिमालय पर ही मिलते हैं और केवल ठंडी जगह ही होते हैं। रूद्राक्ष की यह पहचान है कि वह जल में तैरता नहीं है, डूब जाता है।

हिमालय का ज्यादातर हिस्सा नेपाल में होने के कारण रूद्राक्ष की मात्रा नेपाल में ज्यादा है और नेपाल के लोग भी इसे आस्था का हिस्सा मानते हैं, पौराणिक मान्यतानुसार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मां पार्वती, ऋषि-मुनी से लेकर भगवान शिव के भक्तों तक सब रूद्राक्ष का इस्तेमाल किया करते थे। इसेे चौदह मुखों में बांटा गया है जो उसके ऊपर पड़ी धारियों पर निर्भर होता है। 

रूद्राक्ष के प्रकार (मुखी)

सीधी खड़ी धारियों को ही रूद्राक्ष का मुख माना जाता है। ये धारियां एक से लेकर चौदह तक शुभ मानी गई हैं। पुराणों एवं धर्म-ग्रंथों के अनुसार इसका अपना-अपना महत्त्व है।

  • एकमुखी रूद्राक्ष, जिसमें एक ही आंख अथवा बिंदी हो उसे भगवान शिव का स्वरूप बताया गया है। ये सभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता है।
  • द्विमुखी रूद्राक्ष सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के लिए पहना जाता है, यह श्री गौरी-शंकर का स्वरूप बताया गया है। सुख, शांति व तेज के लिए भी इसे पहना जाता है।
  • त्रिमुखी रूद्राक्ष तेजोमय अग्नि का रूप बताया गया है जो सारे भोग-ऐश्वर्य प्रदान करने वाला होता है।
  • चतुर्मुखी रूद्राक्ष ब्रह्मïा स्वरूप माना गया है। यह नरहत्या का पाप नाश करता है।
  • पंचमुखी रूद्राक्ष कालाग्नि रूद्र है। यह अत्यंत प्रभावशाली और महिमावान होता है।
  • षष्ठमुखी रूद्राक्ष भगवान कार्तिकेय का स्वरूप बताया गया है, जो ब्रह्मïहत्या जैसे पापों से मुक्ति देने वाला माना गया है।
  • सप्तमुखी रूद्राक्ष अनंग नामक कामदेव का रूप माना गया है। यह दरिद्रता को दूर करता है।
  • द्य अष्टïमुखी रूद्राक्ष भगवान श्री गणेश का स्वरूप बताया गया है, जो आयु एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है।
  • नवमुखी रूद्राक्ष भैरव का स्वरूप बताया गया है, जो योग एवं मोक्ष प्रदान करता है।
  • दसमुखी रूद्राक्ष श्री हरि विष्णु का स्वरूप बताया गया है, जो शांति और सौंदर्य प्रदान करता है।
  • ग्यारहमुखी रूद्राक्ष एकादश रूद्रों का स्वरूप है। यह विजय और ज्ञान व भक्ति देता है। यह परम पवित्र रूद्राक्ष माना जाता है।
  • बारहमुखी रूद्राक्ष धन प्राप्ति के लिए पहनते हैं। इसके धारण से रोग-भय आदि से मुक्ति मिलती है।
  • तेरहमुखी रूद्राक्ष इंद्र का बताया गया है, यह तेजस्वी रूद्राक्ष माना गया है। यह मान-सम्मान की प्राप्ति देता है।
  • चौदहमुखी रूद्राक्ष को स्वयं शंकरजी धारण करते हैं, यह संपूर्ण पापों को नष्टï करने के लिए होता है।

रूद्राक्ष का धारण ज्यादातर लोग माला के रूप में करते हैं और साथ ही ओम् नम: शिवाय का जप करते हैं। बताया जाता है कि जब भगवान शिव जप किया करते थे तो एक हाथ में नाग तो दूसरे हाथ में रूद्राक्ष की माला लेकर जप किया करते थे। ऐसी मान्यता है कि रूद्राक्ष में सकारात्मक ऊर्जा होती है और उसे धारण करने से सुख, शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

रूद्राक्ष से जुड़ी कथा

रूद्राक्ष से जुड़ी एक कहानी ऐसी भी है कि प्राचीनकाल में त्रिपुर नामक एक दुर्जन दैत्य (राक्षस) हुआ था जिससे ब्रह्मï, विष्णु, इंद्र आदि सभी परास्त हो गए थे। तब वे सभी भगवान शिव की शरण में आए, अपनी व्यथा बताई और भगवान शिव से मदद मांगी। तब त्रिपुरासुर को मारने के लिए सभी देवताओं से युक्त दिव्य जाज्वल्यमान, वीर स्वरूप, अघोर, संज्ञक मनोहर महास्त्र की कल्पना की। और जब उस महास्त्र को बनाने के लिए भगवान शिव ध्यानमग्न होकर थक गए तो उनकी थकी हुई आंखों से कुछ बूंदे गिरीं। 

तत्राश्रुविन्दुतो जाता महारूद्राक्षवृक्षका:। 

ममाज्ञया महासेन सर्वेषां हितकाम्यया॥ 

नेत्रों के उन जल-बिंदुओं से रूद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हो गए।

रूद्राक्ष की उत्पत्ति और महिमा का वर्णन आदिकाल से सनातन धर्मियों को प्रेरित और उनका कल्याण करता आ रहा है। रूद्राक्ष का व्यापक महत्त्व और उपयोग है। आंवले के बराबर का रूद्राक्ष सर्वोत्तम माना गया है।

घुन लगा, कीड़ों का खाया, टूटा-फूटा या छीलकर बनाया गया रूद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए। 

रूद्राक्ष की माला धारण किए मनुष्य को देखकर शिव, विष्णु, देवी, गणेश, सूर्य तथा अन्यान्य समस्त देवतागण प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव की ही तरह उनसे जन्मे रूद्राक्ष की भी महिमा एवं कृपा अद्भुत है। 

यह भी पढ़ें –शिव के इस धाम में दूध, जल नहीं चढ़ती है झाड़ू

धर्म -अध्यात्म सम्बन्धी यह आलेख आपको कैसा लगा ?  अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर भेजें। प्रतिक्रियाओं के साथ ही  धर्म -अध्यात्म से जुड़े सुझाव व लेख भी हमें ई-मेल करें-editor@grehlakshmi.com