ब्रज भूमि भगवान श्रीकृष्ण एवं राधा रानी की लीला भूमि है। यह यात्रा चौरासी कोस की परिधि में फैली हुई है। यहां पर राधा-कृष्ण ने अनेकानेक चमत्कारिक लीलाएं की हैं। यह सब लीलाएं यहां के पर्वतों, कुण्डों, वनों और यमुना तट आदि पर की गई लीलाएं हैं। पुराणों में ब्रज भूमि की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है।

लीलाओं का साक्षी ब्रज

ऐसा माना जाता है कि राधा-कृष्ण ब्रज में आज भी नित्य विराजते हैं। अतएव उनके दर्शन के निमित्त भारत के समस्त तीर्थ यहां विराजमान हैं। यही कारण है कि इस भूमि के दर्शन करने वाले को कोटि-कोटि तीर्थों का फल प्राप्त होता है। ब्रज रज का आराधन करने से भगवान श्री नन्दनन्दन व श्री वृषभानुनन्दिनी के श्री चरणों में अनुराग की उत्पत्ति व प्रेम की वृद्धि होती है। साथ ही ब्रज मण्डल में स्थित श्रीकृष्ण लीला क्षेत्रों के दर्शन मात्र से मन को अभूतपूर्व सुख-शान्ति व आनन्द की प्राप्ति होती है। इसीलिए असंख्य रसिक भक्त जनों ने इस परम पावन व दिव्य लीला भूमि में निवास कर प्रिया-प्रियतम का अलौकिक साक्षात्कार करके अपना जीवन धन्य किया है। वस्तुत: इस भूमि का कण-कण राधा-कृष्ण की पावन लीलाओं का साक्षी है।

ब्रज में विभिन्न दर्शनीय स्थल

यही कारण है कि समूचे ब्रज मण्डल का दर्शन व उनकी पूजा करने के उद्देश्य से देश-विदेश से असंख्य तीर्थ यात्री यहां वर्ष भर आते रहते हैं। ब्रज चौरासी कोस में उत्तर-प्रदेश के मथुरा जिले के अलावा हरियाणा के फरीदाबाद जिले का कुछ हिस्सा और राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कामवन तहसील का पूरा क्षेत्रफल आता है। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा के अन्दर 1000 सरोवर, 48 वन, 24 कदम्ब खण्डियां, अनेक पर्वत व यमुना घाट एवं कई अन्य महत्त्वपूर्ण स्थल हैं।

चातुर्मास्य में महत्त्व

ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमाएं यों तो वर्ष भर चलती रहती है परन्तु चातुर्मास्य में इनको करने का विशेष महत्त्व है। ऐसी मान्यता है कि चातुर्मास्य में पृथ्वी के सारे तीर्थ ब्रज में विहार करने के लिए आते हैं। इस कारण यहां चातुर्मास्य प्रारंभ होते ही देवशयनी एकादशी से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमाओं का तांता लग जाता है, जो कि देव उठान एकादशी तक निरन्तर चलती रहती है। इन पद यात्राओं में देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से आए हजारों तीर्थ यात्री जाति, भाषा और प्रान्त की सीमाओं को लांघ कर प्रेम, सौहार्द, श्रद्धा, विश्वास, प्रभु भक्ति और भावनात्मक एकता आदि अनेक सद्गुणों के जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इन यात्राओं में धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भाषायी स्वरूप को समीप से देखने का सुअवसर प्राप्त होता है। साथ ही ब्रज संस्कृति से वास्तविक साक्षात्कार भी होता है। यह यात्राएं राष्ट्रीय एकता की परिचायक हुआ करती हैं। इन यात्राओं में राधा-कृष्ण की माधुर्यमयी लीला स्थलियों, नैसर्गिक छटा से ओत-प्रोत वन-उपवन, कुंज-निकुंज, कुण्ड-सरोवर, मंदिर-देवालय आदि के दर्शन होते हैं। इसके अलावा संत-महात्माओं और विद्वान-आचार्यों आदि के प्रवचन श्रवण करने का सौभाग्य भी प्राप्त होता है।

शास्त्रों में ब्रज की महिमा

पुराणों में ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा का विशेष महत्त्व बताया गया है। कहा गया है-

यानी-कानि च पायानी, 

जन्मान्तर कृतानी च।

तानी-तानी प्रणश्यंति, प्रदक्षिणा पदे-पदे।

अर्थात् ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा को लगाने से एक-एक कदम पर जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। यह भी शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि ‘इस परिक्रमा के करने वाले को एक-एक कदम पर अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। साथ ही जो व्यक्ति इस परिक्रमा को लगाता है उस व्यक्ति को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।’

गर्ग संहिता में कहा गया है कि ‘एक बार नन्द बाबा व यशोदा मैय्या ने भगवान श्रीकृष्ण से चारों धामों की यात्रा करने हेतु अपनी इच्छा व्यक्त की।’ इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि ‘आप वृद्धावस्था में कहां जाएंगे, मैं चारों धामों को ब्रज में ही बुलाए देता हूं।’ भगवान श्रीकृष्ण के इतना कहते ही चारों धाम ब्रज में यत्र-तत्र आकर विराजमान हो गए। तत्पश्चात् यशोदा मैय्या व नन्द बाबा ने उनकी परिक्रमा की। वस्तुत: तभी ब्रज में चौरासी कोस की परिक्रमा की शुरुआत मानी जाती है। भगवान श्रीकृष्ण के समय अकूर व उनके सखा उद्ववे एवं उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाम ने भी ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा की। बाद में वैष्णव संप्रदायों के आचार्यों ने ब्रज के पुरातन वैभव को पुन: स्थापित करने और पौराणिक ग्रंथों में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोजने की दृष्टि से ब्रज चौरासी कोस की पद यात्राएं कीं। इसके बाद अपने देश के दक्षिणी भागों में कृष्ण भक्ति की लहर पहुंचने पर वहां के धर्माचार्यों में इन स्थलों के दर्शनों की आकांक्षा जागृत हुई। एतदर्थ, दक्षिण भारतीय कृष्ण भक्तों ने संवत् 1602 में श्री नारायण भट्ट के नेतृत्व में ब्रज चौरासी कोस की पद यात्रा की। 16वीं शताब्दी में वल्लभ कुल सम्प्रदाय के गोस्वामी विट्ण्लनाथ ने सामूहिक रूप से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करने की नींव डाली, जो कि आज भी अपनी सनातन परम्पराओं को निभा रही है। यह परिक्रमा पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के द्वारा मथुरा के विश्राम घाट से एवं अन्य सम्प्रदायों के द्वारा वृंदावन में यमुना पूजन से शुरू होती है।

समयावधि एवं संकल्प

ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगभग 268 कि.मी. अर्थात् 168 मील की है। इसकी समयावधि 20 से 45 दिन तक की है। परिक्रमा के दौरान तीर्थ यात्री भजन गाते हुए व संकीर्तन करते हुए एवं ब्रज के प्रमुख मंदिरों व दर्शनीय स्थलों के दर्शन करते हुए समूचे ब्रज की बड़ी ही श्रद्धा के साथ परिक्रमा करते हैं। यद्यपि इस परिक्रमा में सभी उम्र के व्यक्ति होते हैं किन्तु उसमें महिलाओं एवं वृद्धों की संख्या सर्वाधिक हुआ करती है।

यह परिक्रमाएं ब्रज के सन्त, आश्रम व धार्मिक संगठन आदि निकाला करते हैं। वही सब परिक्रमा की सारी व्यवस्थाएं करते हैं। कुछ परिक्रमाएं शुल्क लेकर, कुछ नि:शुल्क निकाली जाती हैं। कुछ परिक्रमाएं ऐसी भी निकलती हैं जिनमें कि केवल संत ही जाते हैं। परिक्रमा प्रारंभ करने से पूर्व परिक्रमा करने वाले व्यक्ति को हाथ में यमुना जल लेकर व कलावा बंधवा कर नंगे पांव परिक्रमा करने, एक समय भोजन करने, भूमि पर शयन करने, परिक्रमा के दौरान किसी भी पेड़-पौधे को क्षति न पहुंचाने, ब्रह्मचर्य का पालन करने, असत्य व अशिष्ट आचरण न करने, चोरी न करने एवं क्षौर कर्म आदि न करने के कुछ नियम-संकल्प लेने पड़ते हैं।

ब्रज चौरासी कोस के परिक्रमार्थी सूर्य निकलने से पूर्व ही अपने नित्य कर्म शौच व स्नानादि से निवृत्त होकर परिक्रमा प्रारंभ कर देते हैं और मार्ग में पड़ने वाले मंदिरों आदि के दर्शन करते हुए अपने अगले पड़ाव पर पहुंचकर विश्राम करते हैं। परिक्रमा का समय प्राय: प्रात: 4 बजे से रात्रि 8 बजे तक का हुआ करता है। एक दिन में लगभग 10-12 किलोमीटर की परिक्रमा होती है। प्रत्येक परिक्रमार्थी अपने साथ एक लाठी लेकर चलता है, जिससे कि उसे परिक्रमा के दौरान पैदल चलने में कोई कठिनाई न हो।

समय के साथ बढ़ती सुविधाएं

प्राचीन काल में ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करने वाले व्यक्तियों को अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। उनका सामान बैलगाड़ियों आदि में ढ़ोया जाता था। वह लालटेन के प्रकाश में पग-डण्डियों को खोज-खोज कर परिक्रमा किया करते थे। क्योंकि तब सड़कें आदि नहीं थी। अत: परिक्रमा करने वाले प्राय: रास्ता भी भूल जाते थे। कभी-कभी तो वह जितना आगे चलते थे उतना उन्हें पीछे भी लौटना पड़ जाता था, साथ ही उन्हें अपने भोजन व ठहरने आदि की व्यवस्था भी स्वयं ही करनी पड़ती थी। यह परिक्रमाएं करने में लोगों को कई-कई महीने लग जाते थे। सकुशल परिक्रमा कर लेने वाले व्यक्ति को अत्यन्त सौभाग्यशाली समझा जाता था। साथ ही उसके परिवार में जश्न मनाया जाता था। वस्तुत: ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करना अत्यन्त कष्ट साध्य था किन्तु अब परिक्रमार्थियों की समुचित व्यवस्था परिक्रमा निकालने वाले संगठन करने लगे हैं।

यह संगठन अपने पूर्व निश्चित पड़ावों पर परिक्रमार्थियों के ठहरने हेतु पूरे-पूरे खेत अग्रिम रूप से किराये पर ले लेते हैं। इन स्थानों पर परिक्रमा पहुंचने से पूर्व ही तम्बुओं व राउटियों आदि के द्वारा नगर सा बसा दिया जाता है। ट्रैक्टरों आदि से परिक्रमार्थियों का सामान व अन्य आवश्यक वस्तुएं एवं टैंकरों आदि से पानी वगैरह पड़ावों पर पहुंचा दिया जाता है। रात्रि में रोशनी करने हेतु जेनरेटर आदि परिक्रमा के दौरान साथ चलते हैं। जो परिक्रमार्थी परिक्रमा के दौरान पैदल चल पाने में अक्षम साबित होते हैं उनके चलने हेतु वाहन की व्यवस्था रहती है। परिक्रमार्थियों के भोजन व जलपान आदि की व्यवस्था परिक्रमा के साथ चलने वाले रसोड़ों में रहती है। फिर भी यदि कोई व्यक्ति अलग से भोजन आदि बनाना चाहे तो वह बना सकता है। पड़ावों पर प्रवचन, भजन-संकीर्तन एवं रासलीला आदि के भी कार्यक्रम होते हैं। परिक्रमा में बैंक, डाकघर, सुरक्षा, चिकित्सा आदि सभी की समुचित व्यवस्था रहती है।

यात्रा के दौरान पड़ने वाले पड़ाव

ब्रज चौरासी कोस की इस परिक्रमा में निम्नलिखित स्थानों की यात्रा शामिल है- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, गिरिधरपुर, शंातनुकुंड, दतियागांव, गंधर्वेकर, खेचरी गांव, बहुलावन, तोषगांव, विहारवन, जाखिन, मुखराइ, रारगांव, जसोदी गांव, बसोदी गांव, राधाकुंड, गोवर्धन, जमनाउतो गांव, अडींग, माधुरीकुंड, पारासौली, पैठो गांव, बछगांव, आन्यौर, श्यामढाक, जतीपुरा, रुद्रकुंड, गांठोली गांव, डीग, नीमगांव, पाडरगांव, परमदरेगांव, बहज गांव, आदिबदरी, इंद्रोली गांव, कामवन, कनवारो गांव, चित्र-विचित्र शिला, ऊंचोगांव, डभारो गांव, बरसाना गहवर (गवहर) वन, प्रेमसरोवर, संकेत रीठौरागांव, नंदगांव, महिरातो गांव, सीपरसो, पिसायो गांव, करहला, बैंदोखर, रासौली गांव, कामर गांव, दहगांव, शेषशायी, कोसी, छाता, शेरगढ़, चीरघाट, नंदघाट, बसईगांव, वत्सवन, रासौली गांव, नरी-सेमरी गांव, चौमुहा गांव, जैत, छटीकरा, गरुड़गोविंद, अकरूरघाट, भतरौड, वृंदावन, सुरीर, मंडयारी, भद्रवन, भांडीरवन, मांटगांव, वेलवन, खेलन वन, मानसरोवर, राया, लोहवन, बृहद्वन, आनंदी-बंदीदेवी, बलदेव गांव, देवनगर, ब्रह्ममांड, कोलेघाट, कर्णावल, महावन, गेकुल, रावल।

वाहन सुविधाएं

आजकल समयाभाव व सुविधाभोगी जीवन शैली के चलते वाहनों के द्वारा भी ब्रज चौरासी कोस दर्शन यात्राएं होने लगी हैं। इन यात्राओं में लग्जरी कोच बसों या कारों से तीर्थयात्रियों को एक हते में समूचे ब्रज चौरासी कोस के प्रमुख स्थलों के दर्शन कराए जाते हैं। यह यात्राएं प्रतिदिन प्रात: काल जिस स्थान से प्रारंभ होती है, रात्रि को वहीं पर आकर समाप्त हो जाती है।

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