पंच तत्त्वों में से एक तत्त्व है अग्नि। जीवन को गति प्रदान करने वाला। अंधकार को भी आत्मसात कर लेने वाला। यही अग्नि ज्योति बनकर, अन्धकार को जीतने के युद्ध में सदैव मानव का अस्त्र बनी रही। अंधकार जो भौतिक जगत में नहीं व्यक्ति के भीतर भी पैठा हुआ है। आशा की, श्रद्धा की किरण निरंतर इस अंधकार को चीरती रहती है। ज्योति पर्व यदि जगत में हो, तो व्यक्ति के हृदय में भी तो हो। नर-नारी का जो चिरंतन साथ है, वही दीपक और ज्योति का भी है। जो आशा-निराशा का है, वही अंधेरे-उजाले का है। दोनों सिक्के के दो पहलू ही तो हैं।

कहते हैं, सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम ज्योति का उदय हुआ। ज्योति से उपजे निरंजन, निरंजन से उपजे निराकार और फिर निराकार से आकार ग्रहण किया। आदिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने सृष्टि के क्रम को निरंतर गति देने के लिए इस पृथ्वी की उत्पत्ति की ओर इसे पंचभूतों से सजाया। ब्रह्मï के आदेश से पृथ्वी की पूजा-अर्चना का आयोजन किया गया, किन्तु सामग्री में कुंभ न था, जिसके बिना पूजन अधूरा है। ब्रह्मा  ने अपने शरीर के मैल से पुतला बनाया। शिव ने उसमें प्राण फुके  और उसे कुंभ बनाने का आदेश दिया। विष्णु ने अपना चक्र दिया और चठिया भी (चा के मध्य में स्थित होती है)। शिवजी ने अपना कमण्डल दिया और ललाट की भभूत से चुटकी भर राख देकर इस चाक पर रखवायी। चाक पर रखे मिट्टी के पिंड में शिवलिंग के दर्शन समाहित हैं। और इस प्रकार शुरुआत हुई प्रजापति (कुम्हार) के चाक से सृजन के अनवरत क्रम की। अध्यक्ष प्रजापति (ब्रह्मा) के चाक का सृजन कभी रुकेगा भी नहीं। पृथ्वी पूजन के उस कुंभ को बनाते प्रजापति के हाथ आज भी निरंतर सृजन में रत हैं। इसी सृजन का एक साक्षी है वह छोटा-सा दीया जो निरंतर गढ़ा जा रहा है, क्योंकि अंधकार से मानव का युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ। कभी होगा भी नहीं शायद।

दीपक का अस्तित्त्व है माटी से, जो पृथ्वी का मूल तत्त्व है। पंचभूतों से बना शरीर पंचभूतों में विलीन हो जाता है। ‘माटी की देह, माटी में समाई’। माटी से मानव का रिश्ता केवल जन्म-मृत्यु का ही नहीं, बल्कि उसके संपूर्ण अस्तित्त्व का है। माटी को शुद्धतम्, पवित्रतम् माना गया है, इसीलिए पूजन में मिट्टी के कुंभ कलश, दीपक का स्थान, सोने-चांदी के बर्तन नहीं बदल सके।

इंसान का मिट्टी से रिश्ता बहुत गहरा है। उत्तर भारत में परम्परा रही है कि जन्मते शिशु की नाल मिट्टी के पात्र में रखी जाती है। ‘जलवा पूजन’ बिना कलश, दीपक के संभव नहीं। शादी-ब्याह में गजानन न्योतने में कलश का मुख्य स्थान होता है। गिरजा व मस्जिद में भी दीपक जलाया जाता है।

हिन्दू संस्कृति में पवित्र स्थानों पर स्थित घाटों पर दीप प्रज्जवलित करने की एक निराली परम्परा है। हरिद्वार में ‘हर की पौड़ी’ पर संध्या के समय जो दीप प्रज्जवलित कर गंगा जी में बहाये जाते हैं उनकी छटा देखने वाले की स्मृति में सदा के लिए अंकित हो जाती है। पत्तों पर श्रद्धा सुमन के साथ रखे नन्हें आस के दीप किसी मनौति की पूर्ति या इच्छा को प्रतिबिम्बित करते मां गंगा को नमन करते, प्रतीत होते हैं। सूर्यास्त के पश्चात् घाट के मंदिरों व गंगा जी की आरती का प्रतिबिम्ब, इनकी ज्योति को उद्दीपन ही देता है। कार्तिक के महीने में देश के किसी भी घाट पर श्रद्धा के प्रतीक यह दीप देखे जा सकते हैं।

मिट्टी के बर्तनों का चलन कितना पुराना है, इसके प्रमाण हड़प्पा, मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिल गये। आज भी भारत के समस्त प्रांतों में, आदिवासी कबीलों में भी मिट्टी के बर्तनों, कलश, दीपक इत्यादि का इस्तेमाल बरकरार है। मिट्टी औषधि भी है। मिट्टी के बर्तनों में पके खाने का स्वाद ही निराला होता है। मिट्टी के तवे पर सिकी रोटी सुगंधित व पौष्टिक होती है। घड़े के पानी की ठंडक की तासीर फ्रिज के ‘चिल्ड वॉटर’ में आ ही नहीं सकती।

वर्तमान में मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ी है। इस ग्राम्य-शिल्प ने नूतन रूप ग्रहण कर लिया है। टेराकोटा के सजावटी पीस अब पंचतारा होटलों, बंगलों और शोरूमों की शान बढ़ाने लगे हैं। सरकारी अनुदानों की सहायता से अपनी पहचान भी बनाने लगा है अब यह उद्योग। चाक और भट्टिया भी अब इलेक्ट्रिक हो गयी हैं। लोक-कला-उत्सवों ने इन कलाकृतियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी है। पहचान जो माटी की गंध से रची-बसी है।

इसी शिल्प का अन्यतम उदाहरण है दीपक। इलेक्ट्रिक बल्ब इसकी चमक को धूमिल नहीं कर पाए और न ही चांदी, सोने, पीतल, तांबे या अन्य धातुओं से बनाये गए दीपक। जो बात माटी के दीये में है वह किसी और में नहीं। वक्त बदलने के साथ-साथ माटी के दीये ने भी रूप बदले हैं। आजकल कलात्मक दीयों की मांग बढ़ रही है। विभिन्न लोकोत्सवों में इनको सराहना मिल रही है।

माटी के इस प्रेम का संदेश घर-घर पहुंचाते हैं यह नन्हें-नन्हें दीपक जो आंगन के तुलसी चौरे से मंदिर में पूजा के अंग बनते-बनते दीपावली की रोशनी का हिस्सा बन जाते हैं और कार्तिक स्नान में आस्था के प्रतीक। हे दीपक, तुम्हें प्रणाम!  

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