Chinmayananda Saraswati: आपको आश्चर्य होता होगा कि जब हमें केवल अपने आप में गहरे उतरना है और हमें अपनी आत्मा का ही ज्ञान प्राप्त करना है तो हम आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि पर इतना अधिक बल क्यों देते हैं? वस्तुत: यह सब निरर्थक नहीं है। इसका एक तर्कसंगत कारण है।
हम अपने प्रारम्भिक विवेचन में देख चुके हैं कि प्राचीन दार्शनिक, वैज्ञानिकों के बाह्यï जगत के विपरीत अपने अंतर्जगत की प्रकृति और कार्यविधि जानने के लिए कैसे प्रवृत्त हुए। ऋषियों ने सहसा अथवा अकारण ही यह कार्य नहीं किया। पहले उन्होंने बाह्यï जगत के मूल कारण का भली भांति अनुसंधान किया और इस परिणाम पर पहुंचे कि वस्तुओं के बाह्यï जगत का रहस्य व्यक्ति हृदय जगत की गहराई में छिपा है।
इस जगत के मूल सत्य को खोजने के लिए वे सदा आजकल के वैज्ञानिकों की भांति बाह्यï जगत का विश्लेषण भौतिक, रासायनिक, जैवीय आदि दृष्टिïयों से ही नहीं करते रहे वरन उन्होंने वस्तु जगत को प्राणवान और ज्ञानवान मनुष्य के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास किया।
प्राचीन ऋषियों को यह जगत अनेक प्रकार की वस्तुओं का भंडार दिखाई देता था। मनुष्य से संबंध रखने के कारण ही उसका कोई प्रयोजन या अर्थ हो सकता है।
स्वभावत: उन्होंने सर्वप्रथम अपना अनुसंधान कार्य वस्तु जगत में मानव क्रियाकलापों से प्रारंभ किया। यदि बुद्धिमान अनुसंधान-कर्ता सावधानीपूर्वक देखे तो वह पायेगा कि किसी भी कार्यक्षेत्र में दो मनुष्यों का व्यवहार एक सा नहीं है। मनुष्य के कर्मों की इस विविधता का कारण प्रारंभकाल में खोजना ऋषियों के लिए एक चुनौती थी।
परीक्षा करने पर उन्होंने पाया कि हमारे कार्यों का सीधा संबंध हमारे विचारों से है। जैसे हमारे विचार होते हैं वैसे ही हमारे कर्म भी दिखाई देते हैं। विचारों कि प्रकृति पर कर्म का स्वरूप और गुण निर्भर करता है। अत: उनका यही निर्णय था कि हमारे हृदय के विचार ही मूर्तरूप धारण करके कर्म बन जाते हंै। विचार उदय न होने पर कोई कर्म होना भी संभव नहीं है। गहन निद्रा में कोई पक्का दुराचारी भी अपराध करने में असमर्थ है। कोई संत भी सुषुप्ति अवस्था में समाज-सेवा का कोई कार्य नहीं कर सकता है, विचार लय हो जाने पर कर्म बंद हो जाता है।
धैर्यवान ऋषि अपने अनुसन्धान कार्य में लगे रहे और वे मनुष्य के अन्दर उसके विचारों का स्रोत खोजने लगे। परिणामस्वरूप ‘उन्होंने देखा कि हमारे विचार सीधे हमारी कामनाओं पर निर्भर करते हैं। कामनाओं की गुणवत्ता और संरचना के अनुसार ही हमारे हृदय के विचार होते हैं और वही विचार परविर्तित होकर शरीर स्तर पर हमारे कर्म बन जाते हैं।
ऋषियों ने अपना अनुसंधान कार्य यहां भी नहीं रोका। वे मनुष्य के व्यक्तित्व की गहराई में और अधिक उतरे और कामनाओं का भी कारण खोजना चाहा। आगे पहुंचकर उन्होंने देखा कि कामनाओं की जंगली घास अविद्या की दलदली भूमि पर उगती है। यद्यपि हम शुद्ध चेतन स्वरूप आत्मा हैं किंतु अपने वास्तविक स्वरूप को भूल बैठें हैं। इसी को आध्यात्मिक भाषा में अविद्या कहते हैं।
इस अविद्याा ने ही मन, बुद्धि, शरीर और बाह्यï जगत का प्रत्यय बना रखा है। इस शरीर मन-बुद्धि से तादात्म्य कर अज्ञानी व्यक्ति अपने आप में एक परिच्छिन्न अहंभाव अनुभव करता है जिसे ‘जीव-भाव कहते हैं। यह भ्रांति कितनी ही प्रबल क्यों न हो, किंतु अपने व्यक्तित्व की गहनता में हमें आत्मा की पूर्णता की अनुभूति अवश्य आती है।
दुखों से बचने का यही उपाय है कि हम अपना अज्ञान सदा के लिए अपने अंदर से निकाल फेंकें और परम सत के प्रकाश में जीना सीखें। इसे आत्म-प्राप्ति, आत्म-दर्शन या आत्मानुभव कहते हैं।
अब तब हमने देखा कि हमारी आत्म-विस्मृति अर्थात अविद्या से हमारी कामनाओं का जन्म होता है, कामनाओं से विचार-शंृखला उत्पन्न होती है और विचार ही बाह्यï जगत में कर्म रूप से प्रकट होते हंै। इन कर्मों की प्रतिक्रिया स्वरूप या तो हमारी अविद्या दृढ़ और सघन होती रहती है अथवा वह नष्टï हो जाती है और हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।
