Hindi Katha: किसी समय की बात है – भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक में विराजमान थे । गोप- गोपियों ने उन्हें घेर रखा था और वे मधुर बाँसुरी बजाकर उनका दिल बहला रहे थे। इन गोपियों में सुशीला नाम की एक गोपी थी। वह भगवती राधा की प्रधान सखी थी। सुशीला एक सुंदर गोपी थी। सौभाग्य में उसकी तुलना महालक्ष्मी से की जाती थी। वह श्रीकृष्ण को भी बहुत प्रिय थी।
एक बार श्रीकृष्ण और सुशीला प्रेमालाप में लीन थे। तभी राधा वहाँ आ गईं। उन्होंने सुशीला को श्रीकृष्ण के निकट देखकर उसे गोलोक से निष्कासित होने का शाप दे दिया। राधा ने सुशीला को शाप दिया, तो भगवान् श्रीकृष्ण रुष्ट होकर वहाँ से अंतर्धान हो गए। राधा भगवान् श्रीकृष्ण को पुकारते हुए करुण विलाप करने लगीं, लेकिन भगवान् ने उन्हें दर्शन नहीं दिए।
तब राधा करुण स्वर में प्रार्थना करने लगीं प्राणों से भी अधिक चाहती हूँ। आप मेरे साक्षात् प्राण के समान हैं। आपके बिना मैं जीवित नहीं रह सकती। आप शीघ्र यहाँ पधारने की कृपा कीजिए । हे भगवन् ! आप असंख्य गोपों, गोपियों, ब्रह्माण्डों और वहाँ के प्राणियों के एकमात्र स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण सृष्टि केवल आपकी ही कृपा का प्रसाद है। स्त्री स्वभाववश ही ईर्ष्यालु होती है। अत: आपके रहस्य को न समझकर मैं कभी-कभी इस प्रकार का दुर्व्यवहार कर बैठती हूँ। आप मुझे क्षमा करने की कृपा करें। “
इस प्रकार भगवती राधा श्रद्धापूर्वक परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगीं। प्रेम के कारण उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उनकी करुण पुकार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण पुनः वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने राधा को प्रेमपूर्वक शांत कर दिया।
इधर शाप के कारण सुशीला गोलोक से चली गई और भगवान् श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगी। उसने अनेक वर्षों तक निराहार रहकर कठोर तप किया। कठोर तप के प्रभाव से उसके शरीर से दिव्य तेज की किरणें निकलने लगीं। उन किरणों ने ब्रह्मांड को अपने आगोश में ले लिया और उसे जलाने लगीं। चारों ओर हाहाकार मच गया। उसकी तपस्या के प्रभाव से इन्द्र का आसन भी डोलने लगा।
तब इन्द्र आदि देवता भयभीत होकर श्रीकृष्ण की शरण में गए सहायता की प्रार्थना करते हुए बोले’भगवन्! आपकी प्रिय गोपी सुशीला कठोर तप कर रही है। उसके तप से उत्पन्न होने वाली दिव्य किरणें ब्रह्माण्ड को जला रही हैं। सृष्टि में हाहाकार मचा है। ऋषि, मुनि, मनुष्य – सभी आपका स्मरण कर रहे हैं। हम आपकी शरण में हैं। रक्षा करें, प्र भु । “
भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें अभय प्रदान किया और सुशीला को अपने परब्रह्म स्वरूप के साक्षात् दर्शन करवाए। सुशीला ने उनके चरणों में पुष्प अर्पित किए और विभिन्न प्रकार से उनकी स्तुति की।
सुशीला की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले – ” सुशीले ! प्रिया ! तुम्हारी कठोर तपस्या ने मुझे यहाँ आने के लिए बाध्य कर दिया। भक्तजन के इसी प्रेम के कारण मैं सदा उनके हृदय में वास करता हूँ। हे देवी! तुम्हारी तपस्या से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ और तुम्हारी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करने का वचन देता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, निःसंकोच कहो ।
सुशीला वर माँगते हुए बोली-“भगवन् ! जैसे प्राणों के अभाव में शरीर निष्क्रिय हो जाता है, जल के अभाव में मछली जीवित नहीं रहती, ज्ञान के अभाव में कोई विद्वान नहीं बन सकता, सूर्य अपनी किरणों के बिना तेजहीन होता है, उसी प्रकार आपके बिना मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं है। आपके बिना जीवन की कल्पना करना भी मेरे लिए असंभव है। मेरा मन सदैव आपके श्रीचरणों में लीन रहता है। भगवन् ! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे पुनः अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान करने की कृपा करें। मेरी इतनी-सी प्रार्थना है, प्रभु । “
श्रीकृष्ण बोले – ” हे सुशीले ! मैं तुम्हें इच्छित वर प्रदान करता हूँ। अगले जन्म में तुम लक्ष्मी के अंश से प्रकट होकर ‘दक्षिणा’ नाम से प्रसिद्ध होगी। तुम्हारा विवाह मेरे ही अंश से उत्पन्न यज्ञ पुरुष से सम्पन्न होगा। इस प्रकार तुम्हें मेरी पत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा । हे देवी! अब तुम अपने इस शरीर का त्याग कर मुझमें लीन हो जाओ ।” सुशीला ने उसी क्षण अपने शरीर का त्याग कर दिया और भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमलों में लीन हो गई ।
सृष्टि के आरम्भ में अत्यंत कठिन यज्ञ करने पर भी देवताओं को उसका फल प्राप्त नहीं होता था । तब वे सभी ब्रह्माजी की शरण में गए और उनसे अपनी समस्या का उपाय करने की प्रार्थना की। ब्रह्माजी ने माता भगवती का ध्यान आरम्भ किया। तब देवताओं की सहायता के लिए महालक्ष्मी ने अपने दक्षिणी भाग से एक देवी को उत्पन्न किया। ये देवी ‘दक्षिणा’ नाम से प्रसिद्ध हुईं।
दक्षिणा एक अत्यंत सुंदर और रूपवती युवती थीं। उन्हें देखकर यज्ञ पुरुष उन पर मोहित हो गए और उनकी स्तुति करते हुए बोले – “हे देवी! पूर्व जन्म में तुम सुशीला नाम की गोपी थीं । परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण तुमसे प्रेम करते थे। उनके वर-स्वरूप ही तुम्हारी उत्पत्ति हुई है और इस जन्म में तुम्हारा विवाह मुझ से होना तय है। मैं भगवान् विष्णु के अंश से यज्ञ के रूप में प्रकट हुआ हूँ । अत: अब तुम मेरी पत्नी बनने की कृपा करो। “
यज्ञ पुरुष की प्रार्थना सुन यज्ञ की अधिष्ठात्री देवी दक्षिणा ने प्रसन्न होकर यज्ञ पुरुष का पतिरूप में वरण कर लिया। कुछ समय बाद देवी दक्षिणा गर्भवती हो गईं। बारह दिव्य वर्षों के उपरांत उन्होंने एक श्रेष्ठ पुत्र को जन्म दिया । व्यक्ति के अच्छे-बुरे कर्मों का फल प्रदान करना ही उस बालक का कार्य था । इसलिए वह बालक ‘फल’ नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
भगवान् यज्ञ पुरुष – देवी दक्षिणा और अपने पुत्र फल से सम्पन्न होने पर ही कर्मों का फल प्रदान करने के योग्य बने ।
