एक था यवक्रीत-तपस्वी और विद्वान ब्राह्मण का कुमार। जब वह अपने पिता के पास पढ़ रहे विद्यार्थियों की कृच्छ्र साधना को देखता, तो सिहर उठता। विद्यार्जन के कष्टों को देखकर भीतमना वह एक दिन घर से भाग गया। यवक्रीत को विद्या प्राप्त करनी थी, किंतु विद्यार्जन के कष्ट के बिना। इसलिए वह नदी किनारे तपस्या करने लगा। उसकी घोर तपस्या से इंद्रासन हिल गया। भयभीत इंद्र ऋषि कुमार के पास आया उसका मंतव्य जानने, उसे तपश्चर्या से विरत करने और प्रलोभन देने। ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए इंद्र ने यवक्रीत से तपस्या का कारण पूछा। निश्चल ब्राह्मण कुमार ने स्पष्ट कह दिया मुझे विद्या चाहिये।’ इस पर इंद्र ने कहा कि विद्या का जो प्रकार है उसी से विद्या प्राप्त होगी, तपस्या से नहीं। तो भी यवक्रीत अपने व्रत से नहीं डिगा।
थोड़ी देर बाद यवक्रीत ने देखा, एक वृद्ध ब्राह्मण तट पर से मुट्ठियाँ भर-भरकर रेत नदी के प्रवाह में डाल रहा है। उसने वृद्ध ब्राह्मण से पूछा- तुम क्या कर रहे हो? ब्राह्मण ने उत्तर दिया-परली पार जाने के लिए सेतु बना रहा हूँ। ब्राह्मण के उत्तर पर यवक्रीत हंस पड़ा- तुम्हारी इस मिट्टी से कहीं सेतु बन सकेगा? यह तो पानी के प्रवाह में बह जाती हैं।
इस पर वृद्ध ब्राह्मण अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुआ। वह इंद्र था। इंद्र ने कहा ‘यवक्रीत! यदि इस तरह मिट्टी डालने पर नदी पर पुल नहीं बन सकता, तो तपस्या करने से विद्या भी प्राप्त नहीं हो सकती। जाओ, अपने पिता से विद्या ग्रहण करो। तुम्हें बड़ी जल्दी विद्या प्राप्त होगी।’ और यवक्रीत लौट आया।
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