vibhinn vastuayen
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एक बार एक योद्धा एक संत के पास पहुँचा और उनसे कहा कि वह स्वयं को बहुत हीन अनुभव करता है। उसने अनेक बार मृत्यु का सामना किया है और कमजोर लोगों की रक्षा की है। लेकिन संत को शांति के साथ ध्यानमग्न देखकर मुझे यह अनुभूति हो रही है कि उसके होने न होने का कोई महत्व नहीं है। संत ने उसे उत्तर के लिए उसे रात तक प्रतीक्षा करने को कहा।

जब रात हो गई तो योद्धा ने संत से कहा कि वह उसके प्रश्न का उत्तर देने की कृपा करें। संत उसे अपने कमरे में लेकर गए, जहां खिड़की से बाहर पूर्णिमा का चंद्रमा आलोकित था। उन्होंने कहा कि तुम देख रहे हो, चंद्रमा कितना सुन्दर है। रात भर यह पूरे आकाश का सफर तय करते हुए सुबह अस्त हो जाएगा और कल सूर्याेदय होगा। तो योद्धा ने कहा कि सूर्य की विस्तृत आभा के सामने चंद्रमा का क्षीण प्रकाश कुछ नहीं है। प्रकृति की सभी चीजें नदी, पर्वत, वृक्ष आदि सूर्य के प्रकाश में सर्वाधिक स्पष्ट दखिते हैं।

संत बोले कि वे दो वर्षों से नित्य खिड़की से उसे देखते हैं लेकिन उन्होंने कभी चंद्रमा को यह कहते नहीं सुना कि वह सूर्य की भांति क्यों नहीं चमकता। वह इतना तुच्छ क्यों है। इस पर योद्धा बोला कि ऐसा कैसे हो सकता है? सूर्य और चंद्रमा दोनों विभिन्न वस्तुएं हैं। दोनों का अपना सौंदर्य है! इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती। संत ने कहा कि यही उसके प्रश्न का उत्तर है। वह और योद्धा दोनों अलग-अलग प्रकार के व्यक्ति हैं और अपनी आस्थाओं और विश्वास के अनुरूप दोनों ही युद्धरत हैं। वे दोनों ही दुनिया को बेहतर बनाने के लिए कर्म कर रहे हैं, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह केवल आभास मात्र ही है।

सारः अपने कार्य को कभी दूसरे से कमतर नहीं समझना चाहिए।

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)