भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
प्रिय नैनी,
आज इस समय, आधी रात को, जब मैं तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ, तो साथ ही यह भी सोच रहा हूँ कि आखिर मैं तुम्हे यह पत्र क्यों लिख रहा हूँ। तुमसे मिले सालों गुजर गये। तुम तो शायद भूल भी चुकी होगी कि जब तुम एम.ए. में पढ़ रही थीं, बी.ए. में पढ़ने वाला एक लड़का तुम्हारे संपर्क में आया था। हालांकि समाज की नजरों में घोषित रिश्तों जैसा कोई रिश्ता हम दोनों में नहीं था और हमारा साथ कुछ ही दिनों का रहा था, फिर भी मैं तुम्हें भूल नहीं पाया। मुझे आज भी याद है कि पहली बार जब तुम्हें एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोलते देखा-सुना था, मैं तुम्हारे ज्ञान से और ज्ञान से भी अधिक तुम्हारे आवेश से किस कदर प्रभावित हुआ था। मेरे साथ के लोगों ने मुझे तुमसे दूर ही रहने की सलाह दी थी-कि तुम मानसिक रूप से बीमार हो और इसी वजह से तुम्हारी शादी नहीं हो पा रही है लेकिन मैं तुम्हारे पास आये बिना रह ही नहीं सका था।
तुमसे मुझे कभी भय नहीं लगा। पहली बार मिलने पर भी नहीं। संकोच था, पर भय नहीं, उलटे, मैं तुम्हारे पास खुद को सुरक्षित महसूस करता था। पता नहीं, इसका कारण क्या था। उम्र में तुम्हारा मुझसे कुछ बड़ा होना, तुम्हारा ज्ञान, या तुम्हारा लड़ाका स्वभाव। तुम किसी को भी बहस में हरा सकती थीं, किसी से भी लड़ सकती थीं। लेकिन तुम किसी को आतंकित नहीं करती थीं। तुमने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि मैं तुमसे छोटा हूँ, या कम जानता हूँ, या मैंने तुमसे कम किताबे पढ़ी हैं। तुम्हारी बातों में किताबों के, लेखकों के, कहानियों और कविताओं के संदर्भ आते रहते थे। पर वे मुझे डराते नहीं थे, मुझमें जिज्ञासा पैदा करते थे। तभी मुझे उन लोगों पर गुस्सा आता था, जो तुम्हे मानसिक रोगी बताकर मुझे तुमसे दूर करने के लिए कहते थे।
तुमने अपने बारे में बताया था कि तुम अपने मध्यवर्गीय माता-पिता की चौथी बेटी हो, कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी तीन बहनों की शादी में अपना सब कुछ लुटा चुके हैं, कि तुम अपनी शादी का बोझ उन पर डालकर उन्हें और कर्जदार नहीं बनाना चहतीं, कि पढ़-लिखकर तुम अपने पैरों पर खड़ी होना और आजीवन अविवाहित रहना चाहती हो। घर में शादी की बात चलने पर तुम चीखने-चिल्लाने लगती थीं। शादी के लिए तुम्हें देखने के लिए आने वालों को तुम भगा देती थीं। शायद इसीलिए लोग तुम्हें मानसिक रोगी समझने लगे थे।
और मैंने तुम्हें अपने बारे में बताया था कि मैं एक गरीब परिवार का लड़का हूँ, कि मेरे माता-पिता की आर्थिक स्थिति मुझे कॉलेज में पढ़ा सकने लायक नहीं है, कि मैं रात की पाली में आइसक्रीम बनाने के कारखाने में काम करता हूँ, कि मैंने इस बात को छिपाकर रखना चाहा था, पर यह बात कॉलेज में सबको मालूम हो गयी है, जिससे मेरे सहपाठी मुझे नीची नजर से देखने लगे हैं और मेरा मजाक उड़ाते हैं।
तुमने हंसकर मुझे उनकी परवाह न करने की सलाह दी थी और कहा था, “तुम दूसरों की इतनी परवाह क्यों करते हो? दूसरों की नजरों में चढ़ने के लिए, या उनकी नजरों से गिर न जाने के लिए, क्यों दिन-रात जान खपाते हो? कभी-कभी तुम मुझे दोस्तोएव्स्की की एक कहानी के पात्र वास्या की याद दिलाते हो।”
“वास्या?” मैं वास्या और उसकी कहानी लिखने वाले के बारे में उस समय कुछ नहीं जानता था।
तब तमने कहा था. “दोस्तोएक्स्की एक रूसी लेखक है। उसकी एक कहानी है ‘दि फेंट-हार्ट । उसी कहानी का एक पात्र है वास्या। वह समाज के उस गरीब तबके से आया हुआ नौजवान है, जिसके लोगों को कोई अच्छा पद न देकर फौज में भेज दिया जाता था। एक अफसर, जो ऐसे लोगों को फौज में भेजने की सिफारिश करता है. वास्या में प्रतिभा, आज्ञाकारिता और विनम्रता जैसे गुण देख लेता है। वह वास्या को फौज में ने भेजकर अपने दफ्तर में नौकरी पर रख लेता है। वास्या के लिए यह बहुत बड़ी बात है। वह जी-जान से कोशिश करता है कि अफसर कहीं उसे अपनी नजरों से गिरा न दे। वह डरता रहता है कि कहीं उसे उसके पद से हटाकर फौज में न भेज दिया जाए। इसी डर के कारण वह अपनी जिंदगी सहज रूप से नहीं जी पाता और आखिरकार पागल हो जाता है।”
मेरे माँगने पर तुमने वह कहानी मुझे पढ़ने को दी थी। मैंने कहानी पढ़कर कई बार उसके बारे में तुमसे बात की थी। यहां तक कि तुम मजाक में मुझे वास्या कहने लगी थीं।
लेकिन आज इतने बरसों बाद मैं तुम्हें पत्र लिखकर इन बातों की याद क्यों दिला रहा हूँ? मैं तो वास्या नहीं, एक अच्छी नौकरी करने वाला, सहज जीवन जीने वाला, अपने समाज में भला और इज्जतदार समझा जाने वाला आदमी हूँ। लेकिन आज मेरा हृदय दुख से भरा हुआ है। मैं उस दुख को किसी के साथ साझा करना चाहता हूँ और मुझे इसके लिए तुमसे बेहतर कोई और व्यक्ति नहीं सूझ रहा है। शायद तुम ही इन शब्दों से रिसते अवसाद को अनुभव कर सकती हो। शायद तुम ही उस काली, गहरी और खतरनाक गुफा के बारे में सोच सकती हो, जिसे मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूँ। मैं तुमसे इस गुफा का अंधेरा इसलिए बांट रहा हूँ कि मैं जानता हूँ, मेरे इस सफर में तुम ही मेरी हमसफर हो सकती हो, क्योंकि तुम भी कमोवेश ऐसी ही अंध री गुफाओं से गुजरी हो। ऐसी गुफाओं से गुजरते समय दर्द का जो तूफान उठता है, उससे शब्द नहीं, आहे पैदा होती है, जो दिमाग में एक आग-सी भड़का जाती हैं। इसके बाद बचता है एक खालीपन, जिसे किसी भी तरह नहीं भरा जा सकता। बस, अनुमान लगाए जा सकते हैं, लेकिन उन दर्दनाक स्थितियों से गुजरा नहीं जा सकता। बहुत-से लोग इससे उबर जाते हैं और बहुत-ही मासूम जिंदगियां बर्बाद हो जाती हैं।
एक बार मेरे एक दोस्त ने बताया था कि पागल खाने में दाखिल ज्यादातर लोग हमसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं। वे हम से ज्यादा किसी पर यकीन कर सकते हैं। उनका यह पागलपन किसी न किसी यकीन के टूटने से कुछ इस तरह से उपजा होता है कि वे जमाने के बनाए नियमों से जीना भूल गए होते हैं। कितना सच कहा था उसने! आज मुझे लग रहा है, कितने आजाद होते होंगे ये पागल, जो रोने का दिल करने पर कम से कम जी भर कर रो तो सकते हैं। आज जब मैं यह पत्र लिख रहा हूँ, तो साथ ही साथ यह भी सोच रहा हूँ कि क्या तुम उसी तरह से मुझे देख पाओगी, जैसे मैं सोचता हूँ, या उसी तरह देखोगी, जैसे सब सोचते हैं। मैं एक प्रयास कर रहा हूँ। और वैसे भी हम चाहे किसी के कितने करीब क्यों न चले जाएं, क्या उसके अंदर तक झाँक पाते हैं?
मैं कोशिश करता हूँ कि तुमसे वही सब कह सक, जो शायद वास्तव में कहना चाहता हूँ। बेशक यह जानते हुए भी कि अक्सर हम बहुत कुछ कह कर भी सिर्फ वही नहीं कह पाते, जो असल में कहना होता है।
मैं अपनी कहानी तुम्हें एक बार फिर से सुनाना चाहता हूँ। भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, तो और तमाम लोगों की तरह मेरी माँ और पिताजी भी अपने परिवार सहित पाकिस्तान झंग जिले से भारत में आ गए। कुछ साल इधर-उधर भटकने के बाद पिताजी के आई.टी.आई. से एक कोर्स किया, जिसमें लोहे की चादरों से अलमारी, संदूक, बाल्टियाँ आदि बनाने का काम सिखाया जाता था। कोर्स करने के बाद पिताजी को स्टील का कोटा भी मिलना था। पर तब तक पिताजी संयुक्त परिवार के बड़े बेटे थे और मेरी दादी चाहती थीं कि स्टील का कोटा लेने की जगह मेरे चाचा को दुकान ले दी जाए। परिणाम यह हुआ कि पिताजी को गाँव-गाँव जाकर लोगों के पुराने संदूक, अलमारी, बाल्टियाँ आदि ठीक करने का व्यवसाय अपनाना पड़ा। पिताजी सुबह साइकिल पर देहात जाने के लिए रवाना होते और रात को लौटते।
इसी दौरान किसी ने उन्हें बताया कि गजरात में कपडे का काम किया जा सकता है। यह विचार उन्हें अच्छा लगा और मेरे नाना के साथ उन्होंने गुजरात की राह पकड़ी। कुछ साल पिताजी गुजरात में रहे। वहाँ काम अच्छा था और पिताजी काफी पैसा हमें भेजते थे। उसी पैसे से चाचा के लिए दुकान और छोटा-सा मकान खरीदा गया। पिताजी ने अपने लिए जमीन लेकर अपना मकान भी बनवाया। लेकिन लगातार तीन साल फसलों के नुकसान की वजह से पिताजी को अपने व्यवसाय में भारी नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने गुजरात के देहात में जो उधार माल बेचा था सब डूब गया और उन्हें वापस हरियाण ॥ आना पड़ा। पिताजी ने गाँवों में जाकर संदूक आदि ठीक करने का काम दोबारा शुरू कर दिया। लेकिन आठ सदस्यों वाले हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गयी थी। यही वजह थी कि सातवीं में पढ़ते समय मुझे रात की पाली में आइसक्रीम के कारखाने में काम शुरू करना पड़ा।
आइसक्रीम का कारखाना हमारे शहर के किले मोहल्ले में था। पता नहीं क्यों पड़ा था उस मोहल्ले का यह नाम? हो सकता है, पुराने समय में वह किसी किले का हिस्सा रहा हो, या उसकी बनावट ऐसी थी, जैसे किसी पहाड़ी पर बसा हो। घुमावदार संकरी गलियाँ। कहीं तंग और कहीं कुछ चौड़ी। इन मोहल्ले का ज्यादातर हिस्सा एक बाजार की तरह विकसित हो गया था। बीच-बीच में कुछ घर भी थे। इन घरों में से भी ज्यादातर पुराने हिसाब के बने हए थे। इन पराने मकानों पर लगता था कभी से सफेदी नहीं हुई थी। तो बरसात के पानी की पक्की लकीरें यहाँ यहाँ दिखायी देती थीं। बहुत-से मकानों में कुछ मरम्मत के निशान भी दिखायी देते थे, जिससे अहसास होता था कि उन मकानों में रहने वालों को मकानों की कुछ परवाह भी थी। इसके बावजूद उनकी पहली मंजिल से इस्तेमाल किया हुआ गंदा पानी टपकता रहता और टूटे हुए परनाले के पाइप से निकलता गंदा पानी मकान की दीवार को और ज्यादा बदशक्ल बनाता रहता। अच्छी बात सिर्फ एक ही थी कि जब भी मैं सुबह वहाँ से गुजरता, उन मकानों से छौंक लगाने की ऐसी खुशबू आती कि मन करता, झट से सीढ़ियाँ चढ़कर उनके कमरों से होता हुआ रसोई में चला जाऊँ और देर तक मसालों के तले या भूने जाने की महक लेता रहूँ। पर यह संभव नहीं था। ये मकान जितने पुराने थे, उतने ही रहस्यमय। उनके बाहर की तरफ छज्जों पर लगी लकड़ी की नक्काशीदार रेलिंग और भवन निर्माण की शैली मुझे उन मुसलमानों के घरों की याद दिलाती थी, जो बचपन में हमारे कस्बे में रहते थे। बहुत बाद में मुझे पता चला कि देश के विभाजन से पहले यह मुसलमानों का मोहल्ला था और इक्का-दुक्का को छोड़कर ज्यादातर मुसलमान यहाँ से चले गये थे।
आइसक्रीम के कारखाने में मेरा काम का समय होता रात के दस बजे से सुबह ग्यारह बजे तक। रात के समय कारखाने में केवल दो लड़के काम करते-एक मैं ‘छोटू’ और दूसरा मेरी ही उम्र का एक और लड़का ‘काका । कारखाने का मालिक, जिसे हम ‘बाउजी’ कहते थे, कारखाने के ऊपर ही बने अपने घर में रहता था और बीच-बीच में आकर देख जाता था कि हम ठीक तरह से काम कर रहे हैं या नहीं।
कारखाने में चार मशीनें और दो फ्रीजर लगे हुए थे। मशीनों में नमक का पानी भरा होता और कुल्फी के सांचे भरकर हम इस नमक के पानी में तैरा देते। एक सांचे को जमकर कुल्फी बनने में आधे घंटे के करीब लगता। इस दौरान हम दूसरे सांचों को मशीन से निकालकर एक क्षण के लिए गुनगुने पानी के टब में तैराकर कुल्फियाँ निकालकर स्टोर में रख देते।
जब कभी मशीन में नमक का पानी कम हो जाता, हम एक बड़े-से ड्रम में एक बोरी नमक घोलकर मशीन में डाल देते। लोहे के सांचे अक्सर जंग लगने की वजह से जगह-जगह से रिसने लगते। सो हर सुबह हम इस तरह के सांचों को सामने टांका लगवाने के लिए दे आते। रात भर सांचों को भरने, उन्हें मशीन के नमक मिले पानी में तैराने, कुल्फी के जम जाने पर उन्हें निकालने और फिर से लगाने का क्रम चलता रहता। सभी मशीनों के सभी स्टोर हमें भरकर रख देने होते, ताकि सुबह रेहड़ी वालों को उनकी माँग के अनुसार आइसक्रीम दी जा सके। इन मशीनों के कंप्रेसर बड़ी-बड़ी मोटरों से चलते थे और ये मोटरें चलाने के लिए स्टार्टर लगाये हए थे। जब भी बिजली चली जाती, उन स्टार्टरों को हटाने और जेनरेटर चलाकर एक मशीन को चलाने की जिम्मेदारी भी हमारी होती, क्योंकि रात कि समय हम सिर्फ दो ही आदमी कारखाने में होते।
चूंकि मशीन से सांचों को निकालते समय नमक वाला पानी भी हम पर गिरता रहता, इसलिए काम के लिए मैंने अलग से दो कुरते-पाजामें रख रखे थे। जब भी मैं काम पर आता, इन्हें पहनकर आता और सुबह घर जाकर उतार देता। लोहे के सांचें तकरीबन रोज हमारे हाथों पर लगते रहते। हमारे हाथ कट-छिल जाते और उसके बाद नमक के ठंडे पानी की वजह से बहुत तेज दर्द करते। पर शायद ये टीसें ही थीं, जिनकी वजह से लगातार बारह-तेरह घंटे काम करने के बाद भी हम जाग रहे होते। अगली रात जब मैं कारखाने में आता, तो मेरे हाथ दर्द से अकड़े हुए होते, पर थोड़ी ही देर बाद मशीनी अंदाज में काम कर रहे होते। यह रोज का नियम था और कई साल चला।
बाद में जब मेरे कॉलेज का समय सुबह का हुआ, तो मैंने मालिक से कहकर काम का अपना समय शाम से सुबह तक का करा लिया। रात भर काम करने के बाद मैं तैयार होकर पढ़ने जाता और पढ़कर आने के बाद ही कुछ समय सो पाता। आज सोचता हूँ, तो लगता है, एक पूरी जिंदगी गुजार दी मैंने वहाँ। बल्कि न जाने कितनी जिंदगियाँ। क्योंकि मैं यह समझता हूँ कि एक आदमी एक साथ बहुत-सी जिंदगियाँ गुजारता है। युगों लंबी रातें मैंने जाग-जागकर आइसक्रीम बनाते हुए गुजार दी। कॉलेज में जिनके लिए मैं उपहास का पात्र बनता था, वे अगर लोहे के सांचों से घायल हाथों को नमक के जीरो डिग्री ठंडे पानी में बार-बार डुबोते हुए काम करते, तब उन्हें पता चलता कि मैं किस तरह से जिंदगी जीता हूँ। आधी रात को मैं कभी-कभी कंप्रेसरों को चलाने के लिए दौड़ती बड़ी-बड़ी मोटरों के पंखों को देखता, तो सोचता, मेरी जिंदगी इनसे अलग नहीं है। कितना भी चलो, वहीं ठहरे रहना है। उन दिनों कितनी ऑरेंजबार, पिस्ताबार, मिल्कबार और स्पेशल कप मैंने बनाये और कितनी दस पैसे वाली कुल्फियाँ बनायीं, मुझे याद नहीं। बी.कॉम. अंतिम वर्ष में जब मैंने एकाउंट्स का काम करना शुरू किया, तब तक यहीं मेरी जिंदगी थी।
रात को जब बाउजी शराब के लार्ज पैग लगाकर अपनी पत्नी के साथ छत पर सोने चले जाते, तो कारखाने में हम दो आदमी रह जाते। एक मैं ‘छोटू’ और दूसरा ‘काका’। काका निरा अंगूठाछाप था और मैं चूंकि पढ़ रहा था, इसलिए मेरी कुछ इज्जत करता था। वह कभी-कभी बाउजी की रखी शराब की बोतल से बहुत-सी शराब चोरी से पी जाता और नशे की झोंक में अपनी शादी न होने का रोना रोता रहता। उसी से मुझे पता चला कि उसके सभी भाइयों की अच्छी आमदनी थी और पिता को मरे कई साल हो चुके थे। सारी संपत्ति पर उसके भाइयों का कब्जा था। और फिर काके को वेतन भी इतना कम था कि कोई उसके विवाह के बारे में सोचता नहीं था। उसके लिए विवाह मानो अच्छी आमदनी का प्रमाणपत्र था, जिसे वह हासिल करना चाहता था। मुझसे वह कहा करता कि मैं नौकरी छोड़ पढ़ने में अपना ध्यान लगाऊँ। वह बार-बार मुझसे पूछता कि पढ़-लिखकर मैं क्या बनूँगा। वह समझता था कि अगर मैं पढ़-लिख गया, तो मुझमें ऐसी ताकत आ जायेगी, जिससे दुनिया मेरे चलाने से चलेगी। यह प्रार्थना भरे शब्दों में कहता-“उन दिनों मुझे याद रखना और मुझसे मिलने आना।” नशे की पिनक में बार-बार उसका सवाल होता- “छोटू, तू पढ़-लिखकर क्या बन जायेगा?”
मैं उसे क्या जवाब देता? यह तो मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं क्या बनूँगा। मैं तो बस किसी बोझिल कर्मकांड की तरह पढ़ता जा रहा था। मेरा वर्तमान था ‘छोटू’ और भविष्य किसको पता होता है!
आइसक्रीम बेचने वालों को कारखाने की तरफ से रेहड़ी दी जाती थी, वह रेहड़ी एक खास तरह की होती थी। उसमें एक बड़ा-सा लकड़ी का खाली डिब्बा-सा बना होता था और उसके अंदर एक लोहे का उससे कुछ कम आकार का डिब्बा रखा जाता था। इस प्रकार लकड़ी के डिब्बे और लोहे के डिब्बे के मध्य कुछ खाली स्थान बच जाता था। बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्लियों को बर्फ काटने वाले सूए की सहायता से छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता और उसमें नमक मिलाकर इस खाली स्थान को भरा जाता। बर्फ और नमक को इसमें डालकर लकड़ी के एक सोटे से अच्छी तरह कूटा जाता ताकि लकड़ी और लोहे के बॉक्स के बीच की जगह में बर्फ और नमक अच्छी तरह भर जायें। नमक और बर्फ भी कारखाने की तरफ से दिया जाता और फिर गिनकर आइसक्रीम दी जाती, जिस पर बेचने वाले को तीस प्रतिशत कमीशन दिया जाता।
हमारे मालिक का आइसक्रीम के कारखाने के अलावा एक बर्फ का कारखाना भी था, जिसे उसका छोटा भाई गोरा संभालता था। हमारे कारखाने में बर्फ इसी कारखाने से आती थी। बर्फ लाने के लिए एक रिक्शा रखा हुआ था और सुबह उस पर बर्फ की तीन या चार सिल्लियाँ लादकर लाना हमारा काम था। कई बार जब मैं रिक्शा लेकर बर्फ लेने जाता, तो मुझे बड़ी झिझक होती। खास तौर पर अपने कॉलेज के सहपाठियों के सामने। लेकिन धीरे-धीरे मुझे इसकी आदत हो गयी थी। उधर धीरे-धीरे हमारे कॉलेज में भी सबको पता चल गया था कि मैं पढ़ने के साथ-साथ रात की पाली में आइसक्रीम के कारखाने में काम करता हूँ। यह जानने के बाद बहुत-से लड़के, जो अपने माँ-बाप की अमीरी के बल पर ऐश करते थे, मेरा मजाक उड़ाते। मैं मन ही मन उन्हें इसका जवाब देने का निश्चय करता और चुपचाप सहन करता रहता। मन में आता कि बस, आज ही से काम छोड दें। पर चूंकि मेरी पढाई का खर्चा उसी नौकरी से चलता था, इसलिए फिर यह इरादा त्याग देता।
एक दिन जब मैं इसी सोच में डूबा था, न जाने कैसे मैंने कागज पर कविता की तरह कुछ लिखना शुरू किया और लिखता चला गया। कॉलेज में एक अध्यापक थे प्रियदर्शन कुमार। मैंने अपनी कविता उन्हें सुनायी। उन्होंने सुझाव दिया कि मैं यह कविता लेकर स्थानीय रेडियो स्टेशन में नेहरा साहब से मिलूँ। बड़ी हिम्मत जुटाकर मैं नेहरा साहब से मिला। उन्होंने कविता सुनी और तारीफ भी की, लेकिन उसे प्रसारित करने में असमर्थता जाहिर करते हुए युवाओं के संबंध में कोई आलेख लिखने को कहा। चर्चा के दौरान उन्होंने परिवार से विमुख होते युवाओं पर दुख प्रकट किया और सुझाव दिया कि क्यों न मैं इसी विषय पर अपना आलेख लिखू। मैंने उन्हें एक सप्ताह बाद आलेख देने का वादा किया और विदा ली।
इस एक सप्ताह के दौरान उस आलेख को न जाने कितनी बार मैंने लिखा और कितनी बार संशोधित किया। जब मैं उसे लेकर नेहरा साहब के पास पहुँचा, तो उन्होंने उसकी तारीफ करते हुए एक कांट्रेक्ट तैयार करवाया और मेरे आलेख को मेरी ही आवाज में रिकॉर्ड किया। रिकॉर्डिंग के बाद उन्होंने मुझे रेडियो की तरफ से साठ रूपये का चेक दिलवाया। यह चेक मैंने सभी को दिखाया और इसकी खबर उन लड़कों तक भी पहुँची, जो अक्सर मेरा मजाक उड़ाया करते थे। मुझे लगा, उनके द्वारा किये गये मेरे सब अपमानों का बदला खुद की चुक गया है। कम से कम उनमें इतनी योग्यता नहीं थी कि वे इस प्रकार का प्रसारण रेडियो से कर सकते, चाहे कितने भी पैसे उनके पास हो।
तुमसे मेरी मुलाकात इसके कुछ ही समय बाद हुई थी। जब तुमने मेरी तुलना वास्या से की थी और बताया था कि वास्या जैसे लोग पागल क्यों हो जाते हैं, तो मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ था, क्योंकि मैं जानता था कि ऐसा हो सकता है। वास्या बनने की किसी की इच्छा कभी नहीं होती, लेकिन हमारी सामाजिक व्यवस्था वास्या पैदा करती रहती है, जो अपने मालिक के हुक्म के गुलाम होते हैं, उनसे डरते रहते हैं और सिर झुकाकर उनका काम भी करते रहते हैं। वे अपने भय के भी गुलाम होते हैं और अंततः यही भय उन्हें पागल बना देता है या आत्महत्या के लिए प्रेरित कर देता है। वे उपहास के नहीं, दवा के पात्र होते हैं। आखिरकार या तो उन्हें मार दिया जाता है, या फिर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दी जाती हैं कि वे खुद-ब-खुद मर जायें। एक अनमनापन हमेशा उन पर सवार रहता है। जिंदगी के निरर्थक होने का अहसास। और फिर यह सोच कि अगर यह लक्ष्यविहीन जिंदगी ही जीनी है, तो यहाँ ही क्यों, कहीं और क्यों नहीं! लेकिन शायद आदमी भी कोल्हू के बैल की तरह है।
मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी कि एक आदमी ने जंगल में एक बाज पकड़ा और अपने आँगन में लोहे की एक लंबी-सी कील ठोककर उसके एक पाँव को आठ-दस फुट लंबी रस्सी के सहारे बाँध दिया। अब बाज ने बड़ा प्रयास किया उस बंधन से छूटकर यहाँ से भाग निकलने का। लेकिन भागता कैसे? पाँव तो रस्सी से बँधा हुआ था। अपनी बैचेनी में वह उस कील के चारों तरफ चक्कर लगाता रहता। एक आग उसके भीतर जलती रहती। एक आस वहाँ से छूटने की आँखों में बसी रहती। लेकिन कुछ न हुआ। सालों बीत गये। बस, उसकी दुनिया उस कील के चारों तरफ ठहरकर रह गयी। मन तो अब भी करता था उड़ने को, आकाश का कोना-कोना नापने को, लेकिन पाँव तो बँधे हुए थे जमीन से। अपने भीतर की आकुलता के कारण वह बाज उस कील के चारों तरफ चक्कर लगाता रहता। उसके बार-बार चक्कर लगाने से उस कील के चारों तरफ एक दायरा बन गया। और फिर एक दिन न जाने कैसे उस आदमी को दया आ गयी, जिसने उसे बाँधा था। उसने उसकी रस्सी खोल दी। बाज तो जैसे सदियों से इसी दिन का इंतजार कर रहा था। रस्सी खुलते ही उसने हवा में उछाल भरी और उड़ने के लिए पंख फैलाये। लेकिन अफसोस, पंखों ने उसका साथ न दिया। मन था कि उड़ने के लिए बैचेन था और पंख थे कि उड़ने से इनकार कर रहे थे। बार-बार बाज उड़ने के लिए उछलता और जमीन पर आ गिरता। दो दिनों तक यह तमाशा चलता रहा। मन कहता उड़ो और पंख इनकार कर देते। न जाने कितनी बार। और दो दिनों बाद आदमी ने देखा कि बेशक अब रस्सी नहीं बँधी है, पर बाज अब भी कील के चारों तरफ घूम रहा है। हाँ, लेकिन उस दिन के बाद एक फर्क अवश्य आया कि बाज ने खाना-पीना छोड़ दिया और थोड़े ही दिनों में उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।
तुम इसे इस तरह समझो कि यह उस बाज की ही नहीं, मेरी कहानी भी हो सकती थी। अगर घोर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पढ़ने, आगे बढ़ने और कुछ कर गुजरने की लगन मुझमें न होती; प्रियदर्शन जैसे अध्यापक और तुम जैसे मित्र मुझे न मिले होते, तो क्या दोस्तोएव्स्की की कहानी के वास्या की-सी ही नियति मेरी भी न होती?
तुम शायद भूल भी चुकी होगी कि तुमने मुझे क्या कहकर प्रेरित किया था, क्योंकि तुम तो मुझसे ही नहीं, सबसे बात करती थीं; सभी को लड़ने और आगे बढ़ने के लिए ललकारती थी। लेकिन मुझे याद है तुम्हारे वे शब्द। तुमने कहा था-“अपने निजी गुणों से समाज की निचली श्रेणी से सिर्फ एक सीढ़ी ऊपर आ पहुँचे उस आदमी की यातना और त्रासदी देखो, जो उस सीढी पर बने रहने के लिए जी-तोड कोशिश कर रहा है और वहाँ से हटा दिये जाने या फिर से नीचे गिरा दिये जाने से डर रहा है। लेकिन वास्या की तरह डरते रहने से काम न चलेगा। तुम्हें समझना होगा कि समाज में यह श्रेणी-भेद क्यों है। ये सीढ़ियाँ क्यों हैं, जो आदमी को ऊँचाई या निचाई पर रखती हैं? दोस्तोएव्स्की का वास्या कोई एक वास्या नहीं था। दुनिया में न जाने कितने वास्या आज भी मौजूद है। लेकिन अब वे अपनी नियति को बदलने में लगे हुए हैं। ये सिर उठा रहे हैं और उन सभी को प्रेरणा दे रहे हैं, जो ऊँच-नीच की व्यवस्था में वास्या बना दिये गये हैं। हिम्मत रखो…”
मैं तुम्हारी प्रेरणा से आज भी हिम्मत रखे हुए हूँ। मगर, नैनी, शायद सभी इस तरह की हिम्मत नहीं रख पाते। निराश हो जाते हैं। मेरे साथ काम करने वाला काका भी यह हिम्मत नहीं रख पाया।
आज बहुत दिनों बाद मैं यूँ ही आइसक्रीम के कारखाने में काके से मिलकर पुरानी यादों को ताजा करने चला गया। काके को वहाँ न पाकर उसके बारे में पूछा, तो बाउजी ने बताया कि काके ने सल्फास की गोलियाँ खाकर आत्महत्या कर ली थी और उसे तो मरे भी सात-आठ महीने होने वाले हैं। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। मुँह से चीख-सी निकली, “क्या?”
कारखाने के मालिक ने बताया, “उसके भाइयो ने तो उसे नकारा समझकर पहले ही दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका था। हमने उसे आसरा दिया, काम दिया, अपने आदमी की तरह रखा। लेकिन वह बंदा सही नहीं था। पहले हमारी दारू चुरा-चुराकर पीता था, फिर दारू की लत लगा बैठा। थोड़ी आमदनी वाला बंदा रोज दारू पियेगा, तो कैसे चलेगा? खाने का पैसा भी ठर्रे पर खर्च कर देता था। खाली पेट काम करता था। ऊपर से अक्सर कहता कि मेरी शादी करा दो। तंग आकर एक दिन हमने कह दिया कि जा, भाग जा, तू किसी काम का नहीं। बस, नाराज होकर चला गया। फिर अगल दिन उसकी लाश ही मिली।”
मुझे यह सुनकर गहरा सदमा लगा। घर आकर अपने कमरे में बंद होकर देर तक रोता रहा और बार-बार मरे हुए काके को संबोधित करते हुए कहता रहा कि उसे पुरानी दोस्ती के नाते कम से कम एक बार मेरे पास आकर या मुझे अपने पास बुलाकर अपना दुख बाँटना चाहिए था। मैं उसकी दुनिया न भी बदल पाता, तो कम से कम उसके साथ मिलकर उसके बारे में सोच तो सकता था। हो सकता है, इस तरह कम से कम उसकी जिंदगी तो बच जाती। लेकिन उसने मुझे इस लायक भी नहीं समझा और अकेले, चुपचाप, बीच रास्ते में ही आत्महतया कर ली।
मैं रोता रहा और सोचता रहा। आखिरकार मैंने सोचा कि काका बेशक मर गया हो, उसके सपनों की दुनिया मैं बनाकर ही रहूँगा। वह दुनिया, जहाँ पैसे की नहीं, मेहनत की इज्जत होगी। मैं बार-बार यही सोचता रहा और तब मुझे खुद ही यह लगा कि मैंने काके के मरने के बाद उससे यह वादा किया है। बेशक मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं। इस बात ने मुझे कुछ तसल्ली जरूर दी, पर काके के मरने के दुख को जरा-भी कम नहीं किया। मैं उसके मरने के बारे में और कई बार खुद आत्महत्या करने के बारे में सोचता रहा। इस पूरी दुनिया में अभी तक दोस्त कहने लायक यही एक आदमी था। काके के बिना मैं अपनी जिंदगी कैसे गुजारूँगा? यही सोचकर मैं पागल हो रहा था कि तुम्हें पत्र लिखने का खयाल आया…
नैनी, एक समय ऐसा होता है, जब आदमी अपने-आपमें होता है, अपने साथ होता है। अकेला और अच्छी तरह हो चुकी बरसात के बाद धुले हुए बादलों की तरह। बहुत रोने के बाद सूखी आँखें लिये तब पार्क की किसी बेंच पर अकेले बैठना और सामने के किसी पेड़ के पत्तों को निहारना अच्छा लगता है। बेशक यह अकेलापन ज्यादातर इसलिए होता है कि उस समय तुम्हारे असापास कोई नहीं होता। लेकिन अधिकतर बार यह अकेलापन इसलिए भी होता है कि तुम्हारे आसपास बेशुमार लोग होते हैं और उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता, जो तुम्हारी मनःस्थिति के करीब हो। सब बनावटी चेहरे। कहने को हमदर्दी, लेकिन इस पल हमारे साथ, दूसरे पल किसी और के साथ। अभी-अभी तो जान देने को तैयार और अगले ही क्षण जैसे पहचानते ही नहीं। वे तुमसे मिलने के लिए तड़पते नहीं हैं, किसी दूसरे से मिलने के दौरान समय गुजारने के लिए तुमसे मिल लेते हैं। जैसे कोई गाड़ी स्टेशनों पर रूकती हुई चले और हर स्टेशन यह समझे कि यह तो उसी तक आयी है। यह सच है कि उन बहुत-से लोगों में से कुछ एक तुम्हारे दर्द को करीब से महसूस कर सकते हैं, लेकिन क्या वे तुम्हारे दर्द और चीस को तुम्हारे स्तर तक आकर महसूस कर सकते हैं? नहीं! अपनी मानसिक स्थिति की अँधेरी खोहों में तो आदमी को अकेले ही सफर करना होता है। बहुत बार जब यह सफर आसान नहीं रह जाता, तो आदमी आत्महत्या के बारे में सोचता है। शायद काके के साथ भी यही हुआ। शायद दोस्तोएव्स्की की कहानी के वास्या के साथ भी यही हुआ।
इस समय, जबकि रात आधी से ज्यादा बीत चुकी है, मैं मनही मन भरसक चिल्लाकर काके से पूछ रहा हूँ-आखिर किस चीज के लिए तुमने दुनिया छोड़ दी? लेकिन साफ तौर पर मुझे इसका पता नहीं चल रहा है। वैसे साफ तौर पर क्या हम कभी कुछ जान पाते हैं? कभी-कभी लगता है, काश, यह दुनिया साफ तौर पर जहन्नुम ही होती। काश, हमारे अकेलेपन को भरने का कोई दावा न करता। और अच्छा ही रहता कि कोई हमारे करीब न आता। मुझे कभी यह बात समझ में नहीं आयी और न आयेगी कि अगर हर तस्वीर के रंग में किसी का खून लगा है, तो उसे हसीन किस लिए कहते हैं। आजकल, जब अमेरिकी बमों से मारे गये इराकियों को देखता हूँ, तो लगता है कि शायद उनका जीवन किसी काम आया-चाहे किसी की दरिंदगी की दिखाने के लिए ही सही। लेकिन काके का जीवन किसके काम आया?
जिंदगी की बहुत की सच्चाइयाँ काका नहीं जानता था। मैं भी नहीं जानता था। आज जानता हूँ और कम से कम काके को समझा सकता हूँ। पर अफसोस, आज काका ही नहीं है। फिर लगता है, अच्छा ही हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली। आखिर इस तरह की बेमतलब जिंदगी जीकर भी क्या करता? समाज को कुछ फर्क नहीं पड़ा। कारखाने में उसकी जगह कोई और आइसक्रीम बना रहा होगा। वह कोई बड़ा आदमी नहीं, नाली का अदना-सी कीड़ा था, जो बिना कोई हंगामा किये मर गया। कब पैदा हुआ, किसी को पता नहीं। कब मरा, किसी को पता नहीं। काके जैसे बहुत-से लोग रोज आत्महत्या कर लेते हैं और कोई दो आँसू तक नहीं बहाता। क्या हम ऐसा समाज बना पायेंगे, जिसमें काके जैसे लोगों को आत्महत्या न करनी पड़े?
बस, बंद करता हूँ। सुबह होने वाली है।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
