Vamana Avatar
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Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है, दैत्यराज बलि ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया । इन्द्र आदि देवगण प्राण बचाकर वनों गुफाओं तथा पर्वतों में छिपकर रहने लगे । देवताओं की इस दुर्गति से देव-माता अदिति को बड़ा दुःख हुआ । उस समय कश्यप मुनि वन में कठोर तप कर रहे थे । जब उनका तप पूर्ण हुआ तो वे आश्रम में पहुँचे । तब अदिति ने उन्हें देवताओं की दुर्दशा के विषय में बताकर उनके कल्याण का उपाय पूछा । महर्षि कश्यप ने विष्णु भक्ति की महिमा बताते हुए अदिति को पयोव्रत का उपदेश दिया । अदिति ने बारह दिनों तक व्रत का विधिवत् अनुष्ठान कर भगवान् विष्णु का चिंतन किया । तब श्रीविष्णु प्रकट होकर बोले -“देवी ! तुमने भक्ति और श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना की है । इसलिए मैं वरदान देता हूँ कि मैं तुम्हारे यहाँ अवतार लूँगा । वह मेरा वामन अवतार कहलाएगा । अपने उस अवतार में मैं दैत्यों का संहार कर देवताओं की रक्षा करूँगा ।”

‘भगवान् विष्णु मेरे गर्भ से उत्पन्न होंगे’, यह सोचकर अदिति अत्यंत प्रसन्न हुई । महर्षि कश्यप भविष्यदर्शी थे उनसे कोई बात छिपी नहीं थी । वे तपोबल से जान गए कि श्रीविष्णु उनके द्वारा अदिति के गर्भ से अवतरित होंगे । तब उन्होंने अपना तेज अदिति के गर्भ में स्थापित कर दिया ।

उचित समय आने पर भगवान् विष्णु ने अवतार लिया । उनकी चार भुजाएँ थीं, जिनमें शंख, गदा, कमल और चक्र सुशोभित थे । उनका स्वरूप बड़ा मनोहारी था । देवता शंख नगाड़े ढोल आदि बजाकर उनकी स्तुति करने लगे । उन्हें देख अदिति आनन्दित हो गई । महर्षि कश्यप भगवान् विष्णु की जय-जयकार करने लगे ।

फिर देखते ही देखते भगवान् विष्णु ने वामन (बौने) ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया । भगवान् वामन को देख ऋषिगण बड़े प्रसन्न हुए । तब देवी गायत्री ने उन्हें ज्ञान का उपदेश दिया । देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें यज्ञोपवीत कश्यप मुनि ने मेखला (जनेऊ) पृथ्वी ने कृष्णमृग का चर्म ब्रह्माजी ने कमण्डलु अदिति ने वस्त्र चन्द्रमा ने दण्ड सप्तर्षियों ने कुश सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला और देवताओं ने छत्र प्रदान किया । कुबेर ने उन्हें भिक्षा का पात्र और देवी उमा ने भिक्षा दी । इस प्रकार भगवान् वामन दिव्य वस्तुओं से सुशोभित हो गए ।

उस समय दैत्यराज बलि धगुवंशी ऋषियों के साथ अश्वमेध यज्ञ कर रहा था । भगवान् वामन बलि की यज्ञशाला की ओर चल पड़े । उनके भार से पृथ्वी झुकने-सी लगी थी । बलि की यज्ञशाला भृगुकच्छ (वर्तमान गुजरात का भड़ौच नगर) नामक एक सुंदर स्थान पर थी ।

भगवान् वामन क्षणभर में बलि की यज्ञशाला में पहुँच गए । दिव्य तेज से युक्त वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो साक्षात् सूर्यदेव हों । उनके तेज के समक्ष यज्ञ में उपस्थित सभी भृगुवंशी ऋषिगण का तेज क्षीण हो गया । तब दैत्यराज बलि ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया ।

उन्हें आसन पर बिठाकर बलि विनम्र स्वर में बोला -“ब्राह्मणकुमार ! आज्ञा दीजिए मैं आपकी क्या सेवा करूँ? धन, स्वर्ण, अन्न, भूमि-आपके मन में जिस वस्तु की इच्छा हो, नि:संकोच माँग लीजिए । मैं आपकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण करूँगा ।”

बलि के मधुर वचन सुनकर भगवान् वामन प्रसन्न होकर बोले -“राजन ! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी वंशपरम्परा के अनुरूप धर्मभाव से परिपूर्ण और यश को बढ़ाने वाला है । आपके वंश में ऐसा कोई धैर्यहीन और कृपण पुरुष नहीं हुआ जिसने ब्राह्मण को कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसी को कुछ देने की प्रतिज्ञा कर अपने वचन से विमुख हुआ हो । दान के अवसर पर ‘याचकों की याचना और युद्ध के समय शत्रुओं की ललकार सुनकर मुख मोड़ने वाला कायर आपके वंश में कोई नहीं हुआ । आपके वंश में अनेक दानी हुए हैं । आपके पिता विरोचन बड़े ब्राह्मण भक्त थे । जब उनके शत्रु देवताओं ने ब्राह्मणों का वेष बनाकर उनसे उनकी आयु का दान माँगा तो उन्होंने उनका कपट जानते हुए भी अपनी आयु दान में दे दी थी । आप भी उसी धर्म का पालन कर रहे हैं । दैत्यराज! आप अभिलषित वस्तुएँ देने में सक्षम हैं, अतः मैं आपसे केवल तीन पग भूमि माँगता हूँ । आप तीनों लोकों के स्वामी एवं उदार आत्मा हैं फिर भी मुझे इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए ।”

दैत्यराज बलि हँसते हुए बोला -“ब्राह्मणकुमार ! यद्यपि आपकी बातें ज्ञानवान ब्राह्मणों के समान हैं तथापि आपकी बुद्धि अभी अल्प ही है, इसलिए आप लाभ-हानि नहीं समझ रहे हैं । मैं तीनों लोकों का अधिपति आपकी बातों से अत्यंत प्रसन्न हूँ और आपको भरपूर धन और भूमि दान में दे सकता हूँ। फिर भला तीन पग भूमि माँगना क्या बुद्धिमानी की बात है? ब्राह्मणकुमार ! जो एक बार मेरी शरण में आ गया, फिर उसे कभी किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए । इसलिए जीविका चलाने के लिए आपको जितनी भूमि की आवश्यकता हो माँग लें ।”

उसकी अहंकारपूर्ण बातें सुनकर भगवान् वामन बोले -“राजन ! यदि मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सके तो जगत् के सभी सुख भी उसकी कामनाओं को पूर्ण नहीं कर सकते । जो तीन पग भूमि से संतोष नहीं कर सकता उसे अनेक विशाल भूखण्ड भी दे दिए जाएँ तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता । थोड़े में संतोष करने वाले प्राणी का जीवन सुख से बीतता है, जबकि अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला असंतोषी जीव तीनों लोक पाने के बाद भी दुखी और असंतुष्ट रहता है । धन और भोगों का असंतोष जीवन-मृत्यु के चक्र में गिरने का कारण है । इसलिए धन उतना ही संग्रह करना चाहिए, जितने की आवश्यकता हो । इसमें संदेह नहीं कि आप अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करने वालों में शिरोमणि हैं, फिर भी मैं केवल तीन पग भूमि माँगता हूँ । इतने से ही मेरा कार्य पूर्ण हो जाएगा ।”

“ठीक है ब्राह्मणकुमार ! जैसा आप उचित समझें ।” यह कहकर बलि ने तीन पग भूमि देने का संकल्प करने के लिए जलपात्र उठाया ।

इधर, दैत्यगुरु शुक्राचार्य भगवान् वामन के वास्तविक स्वरूप को जान गए थे । अतः वे बलि को रोकते हुए बोले -“राजन ! वामन-रूप में ये साक्षात् भगवान् विष्णु हैं, जो देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए माता अदिति के गर्भ से अवतरित हुए हैं । ये तुम्हारा सर्वस्व छीन लेंगे । इन्हें दान देने का संकल्प मत करो । तुम्हारे इस कार्य से दैत्यों के साथ बड़ा अन्याय हो जाएगा । वामनरूपी विष्णु तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और यश छीन कर तुम्हारे शत्रु इन्द्र को दे देंगे । जब तुम अपना सर्वस्व इन्हें दे दोगे तो तुम्हारा और दैत्यों का क्या होगा? ये विश्वव्यापक विष्णु एक पग में पृथ्वी और दूसरे पग में स्वर्ग नाप लेंगे । इनके विशालकाय शरीर से आकाश घिर जाएगा तब इनका तीसरा पग कहाँ जाएगा? अपना संकल्प पूर्ण न करने की दशा में तुम्हें घोर नरक का भागी बनना पड़ेगा । इसलिए सावधान दैत्यराज। तुम यह संकल्प त्याग दे। ।”

बलि विनम्रतापूर्वक बोला – “गुरुदेव ! आपका कथन सर्वथा उचित है, किंतु मैं तेजस्वी प्रह्लाद का पौत्र और दैत्यराज विरोचन का पुत्र हूँ । एक बार दान देने का निश्चय कर उससे विमुख नहीं हो सकता । राज के लोभ में आकर मैं ब्राह्मणकुमार के साथ कपट नहीं करूँगा । असत्य से बढ़कर कोई अधर्म नहीं है । मैं सबकुछ सहन कर लूँगा, किंतु असत्य का भार मुझे स्वीकार नहीं होगा । घोर नरक, दरिद्रता, दुःख और मृत्यु आदि से मैं इतना नहीं डरता जितना कि ब्राह्मण को वचन देकर उसे भंग करने से डरता हूँ । जगत् में मृत्यु के बाद धनादि वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा ब्राह्मणों को संतुष्ट न किया जा सके तो उनका लाभ ही क्या? दधीचि, शिवि आदि ऋषिगण ने भी अपने प्राणों की आहूतियाँ देकर प्राणियों का कल्याण किया है । गुरुदेव । देवगण ऋषि मुनि मनुष्य आदि जिनकी पूजा-अर्चना करते हैं, वे भगवान् विष्णु भले ही इस रूप में आए हों, मैं इनकी इच्छानुसार इन्हें भूमि का दान अवश्य करूँगा । यदि ये छलपूर्वक मुझे भ्रमित कर देंगे तो भी मैं इनका अनिष्ट नहीं चाहूँगा ।”

जब शुक्राचार्य ने देखा कि बलि उनकी बातों पर ध्यान न देकर, उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है तो वे क्रुद्ध होकर उसे शाप देते हुए बोले -“मूर्ख बलि ! तू है तो अज्ञानी, किंतु स्वयं को शास्त्रों का ज्ञाता सिद्ध कर रहा है । तू मेरी उपेक्षा कर मेरा अपमान कर रहा है । तूने मेरी आज्ञा का भी उल्लंघन किया है, इसलिए जा मैं शाप देता हूँ : तेरी वैभवता और लक्ष्मी समाप्त हो जाएं ।”

इस प्रकार शाप देकर शुक्राचार्य वहाँ से चले गए । गुरु द्वारा शाप दिए जाने पर भी बलि अपने निश्चय पर दृढ़ रहा । उसने भगवान् वामन की विधिवत् पूजा- अर्चना की । तत्पश्चात् हाथ में गंगाजल लेकर उन्हें तीन पग भूमि देने का संकल्प किया ।

बलि द्वारा संकल्प करते ही वहाँ एक अद्भुत घटना घटी । भगवान् वामन ने अपने शरीर को इतना विशालकाय कर लिया कि तीनों लोक, मनुष्य, देवता, ऋषि, मुनि, पशु, पक्षी, दसों दिशाएँ आदि सभी उन्हीं में समा गए । भगवान् के विराट् स्वरूप को देख ऋषि-मुनि और दैत्य आश्चर्यचकित रह गए ।

भगवान् वामन ने अपने विराट् शरीर से आकाश और भुजाओं से सभी दिशाएँ घेरकर एक पग में सारी पृथ्वी नाप ली । उनका दूसरा पग ऊपर सत्यलोक में पहुँच गया । वहाँ ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु के गंगाजल से उनके चरणों को धोकर मरीचि आदि ऋषियों के साथ उनकी स्तुति की । इस प्रकार अपने दो पगों में ही भगवान् वामन ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नाप लिया । तीसरा पग रखने के लिए बलि की कोई भी वस्तु नहीं बची ।

तब भगवान् वामन बोले -“दैत्यराज ! तुम अपना संकल्प पूरा करो । दो पग में मैंने तीनों लोकों सहित समस्त ब्रह्माण्ड नाप लिया है, अब बताओ तीसरा पग मैं कहाँ रखूँ? तुम्हें स्वयं पर बड़ा अहंकार था । अब इसी क्षण अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करो अन्यथा प्रतिज्ञा भंग होने पर नरक की कठोर यातना भोगने के लिए तैयार रहो ।”

बलि बोला -“दयानिधान ! यद्यपि मैं अपना राज्य गँवा चुका हूँ, तथापि आपको दिया वचन अवश्य पूरा करूँगा । कृपया अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिए । मुझे राज्य छिन जाने अथवा नरक की यातना भोगने का कोई दु:ख नहीं है । और न ही मैं पाश से बँधने या किसी दण्ड से भयभीत हूँ । हम दैत्यों को आप सदा शिक्षा देते रहे हैं, इसलिए आप हमारे परम गुरु हैं । जब हम कुलीनता, बल और धन के मद में चूर होकर अत्याचारी बन जाते हैं तो आप उन वस्तुओं को छीनकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं । भक्तिपूर्वक आपकी उपासना करने पर ऋषिगण जो स्थान आपके चरणों में प्राप्त करते हैं, वही स्थान दैत्यों को आपके द्वारा मारे जाने पर प्राप्त होता है । आप जैसे परमगुरु द्वारा दिया गया दण्ड भी सौभाग्यवर्द्धक है । मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा ।”

बलि भगवान् वामन की स्तुति कर ही रहा था कि तभी भगवान् विष्णु के परम भक्त और उसके पितामह प्रह्लाद वहाँ आ पहुँचे । वे भगवान् वामन को प्रणाम कर बोले -“प्रभु ! आपने ही बलि को यह ऐश्वर्ययुक्त इन्द्र-पद प्रदान किया था और आपने ही उसे छीन लिया । ऐसा कर आपने इस पर बड़ा उपकार किया है । ऐश्वर्य और भोग के अहंकार में विद्वान मनुष्य भी अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है । इसलिए मनुष्य का ऐश्वर्य- भोगों से रहित होना ही श्रेष्ठ है ।”

तब ब्रह्माजी प्रार्थना करते हुए बोले -“प्रभु ! आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अब यह दण्ड का पात्र नहीं है । इसने अपने ऐश्वर्य, धन, तीनों लोकों और स्वयं को भी आपके श्रीचरणों में अर्पित कर दिया है । भगवन् । जो मनुष्य सच्चे हृदय से विरक्त होकर आपके श्रीचरणों का स्मरण करता है, उसे भी आप प्रसन्न होकर मोक्ष प्रदान करते हैं । फिर बलि ने तो प्रसन्नता से अपना सर्वस्व दान किया है, तब यह दण्ड का भागी कैसे हो सकता है? इसलिए आप प्रसन्न होकर इसे क्षमा प्रदान करें ।”

भगवान् वामन प्रसन्न होकर बलि से बोले -“वत्स ! तुमने उस माया पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यंत कठिन है । दैत्यगुरु ने तुम्हें शाप दे दिया, तुम्हारा सर्वस्व छिन गया, बंधु-बांधव तुम्हें छोड़कर चले गए, किंतु इतने दु:ख भोगने के बाद भी तुमने अपने धर्म और सत्य का पूरी निष्ठा से पालन किया । इसलिए मैं तुम्हें वह स्थान प्रदान करता हूँ, जो ब
ड़े-बड़े देवताओं को भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है । सावर्णि मन्वंतर में तुम्हें इन्द्र पद पर आसीन होकर मेरा प्रिय भक्त होने का सौभाग्य प्राप्त होगा । तब तक तुम अपने बंधु-बांधवों के साथ विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पाताल लोक में निवास करो । वहाँ भी मेरी कृपा तुम पर सदा बनी रहेगी ।”

बलि पत्नी विन्ध्यावली और बंधु-बांधवों के साथ पाताल लोक में चला गया । इसके बाद भगवान् वामन ने उसका यज्ञ पूर्ण किया । इस प्रकार भगवान् विष्णु की कृपा से देवताओं को पुन: स्वर्ग प्राप्त हो गया ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)