भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
शाम हो चुकी। खेत में काम करने वाले मजदूरों को छुट्टी मिल गई। वे घर लौट आए। अब तक सुनसान पड़ी पगडंडियां, रास्ते, लोगों के आवागमन से गुलजार हो गए। ऐसे ही एक दल में रखमा भी थी। उसके सिर पर तसला था। काम करते में समय निकालकर उसने उसमें अरहर की फलियां तोड़कर रखी थीं। मालिक की नजर बचाकर। रात की सब्जी के लिए! वे कपड़े में छिपाकर रखी गई थीं।
वह खेत की पगडंडी से होकर गांव में आई और अपने घर की ओर देखा। वह चकित हो गई। आंगन में टूटी खाट बिछी हुई थी। उस पर शोदले वाले और लावणे के, दोनों दामाद बैठे हुए थे। दोनों पुत्रियों के पति एक साथ कैसे आ धमके। उसे कुतूहल हुआ। सिर पर हरी घास को बोझा होने के समान भार महसूस हुआ। मेहमानों का एकदम भार ही हो गया।
दीपावली का त्योहार हाल ही में संपन्न हो चुका था। त्योहार पर ही दोनों बेटियां मायके में आई थीं। आज उन्हें लेकर जाने के लिए ही तो कहीं दामाद नहीं न आए? पर दोनों एक साथ उसके कदमों को ठोकर-सी लगी। चप्पल का पट्टा टूट गया। चप्पल निकालकर हाथ में लेनी पड़ी। वह शर्मिंदा हो गई। अर्थात दरवाजे में मेहमान बैठे हैं। वे भी दामाद! और मैं इस प्रकार हाथ में चप्पल पकड़कर जा रही हूं। वह बुरी तरह लज्जित हुई।
मुँह आंचल से ढंक लिया। मेहमानों से बचते-बचाते जल्दी-जल्दी चलकर भीतर चली गई। पुत्रियों ने अभी-अभी चूल्हा जलाया था। उसमें लगाए गए कंडें धुआँ उगल रहे थे। अभी ज्वाला फूटी न थी। इस कारण उस झोपड़ीनुमा मकान में जबरदस्त धुआँ भर गया था, पर किसी के लिए भी वह कष्टप्रद न था। सुबह-ज़ाम उसकी आदत जो हो गई थी।
रखमा के घर में प्रवेश के साथ ही उसे नन्हीं ने जकड़ लिया। उसे गोद में लेकर रखमा ने आंचल खिसकाया। दिन भर स्तनों में रूका हुआ दूध भरभराकर झरने लगा।
‘कब आएं दामाद?’ उसने मायके में आई और चूल्हे में सिर खपा रही अपनी बड़ी बेटी से प्रश्न किया?
‘अभी-अभी ही आए हैं।’ कहकर बेटी फिर से चूल्हा जलाने में जुट गई।
‘सुमन कहां गई?
‘चाय शक्कर लाने के लिए दुकान पर गई है।’ कहते हुए वह फिर अपने काम में जुट गई। उसकी आँखें आंसुओं से सराबोर थीं।
रखमा को कुल मिलाकर पांच पुत्रियां। पुत्र की प्रतीक्षा में हर बार पुत्री ने ही जन्म लिया। तब क्या करें? देखते-देखते लगातार पांच पुत्रियां हो गईं। इस कारण रखमा त्रस्त हो गई। पति त्रस्त हो गया। इसके अलावा, हर बार डिलेवरी की तकलीफ। साथ ही, जन्म लेने वाली प्रत्येक पुत्री के साथ उसकी शादी की चिंता भी पैदा होती। बढ़ती महंगाई, काम-कम होता, अधूरी पड़ती कमाई! खेत में काम करते समय किसी ने सलाह दी ‘क्या पुत्रा की राह देखती बैठी हो? कर डालो ऑपरेशन नहीं तो, ऐसे में दस-पंद्रह लड़कियां हो जाएंगी और तुम्हारी हालत पतली हो जाएगी। मर जाओगी किसी दिन। सारी पुत्रियां बिन-मां के पंछियों की तरह बेसहारा हो जाएंगी। जरा अपनी हालत तो देखो खाया-पिया सब निकल जा रहा है।’
‘पर हम सोच रहे हैं, लड़का हुआ तो बढ़ापे में सहारा हो जाएगा। तो ऐसे मर कर कहीं भी पड़े रहेंगे तो पता भी नहीं चलेगा। और क्या वंश चलाने के लिए दीपक नहीं चाहिए? उसी के लिए यह उत्पात! अब लड़की हो गई तो अपनी संतान के प्राण भी तो नहीं ले सकते।’
ये क्या वंश का ‘दीपक-राग’ अलापे बैठी हो रखमा। देखे नहीं क्या रायभान पवार के हाल में दो बेटे हैं। पर, दोनों अलग हो गए। अंधा रायभान भीख मांगता फिरता है, अब। बीत गया वो माया-ममता का जमाना। अब मनुष्यों के भी जानवरों की तरह हाल होने लगे। जानवर, पंछी कितनी आत्मीयता जतलाते हैं, अपने बच्चों के प्रति। खुद भूखे रहकर उन्हे बड़ा करते हैं। और वे बड़े हो गए कि अपने मां-बाप को पूछते भी नहीं। मनुष्य का भी वैसा ही शुरू हो गया है, अब। राह देखते बैठने में कोई सार नहीं है, बहना। जाओ, जो हो गया, सो हो गया। पूरा जनम इन बच्चों की खातिर मिट्टी हुआ जा रहा है, तुम्हारा।’
रखमा की समझ में बात आ गई और उसने ऑपरेशन करा लिया। पुत्र होने की प्रतीक्षा नहीं की। मन में विचार किया, पुत्र होने की राह देखो और पहले जैसी ही कन्या हुई तो! और आजकल लड़के भी कहां खोज-खबर लेते हैं मां-बाप की. बढापे में? तब उसने पत्र होने की आश ही छोड़ दी और नसबंदी का ऑपरशन करा लिया। डिलेवरी की जानलेवा पीड़ा से मुक्ति मिल गई। पुत्र न होने का दुःख तो था ही। कांटे की तरह जीवनभर सालता हुआ। मकड़ी के जाले के समान जकड़ लेने वाला। उसने कभी जकड़ लिया कि पति-पत्नी दोनों मायूस हो जाते।
अब दो पुत्रियों के ब्याह हो गए। तीन के बाकी हैं। लटकती तलवार की तरह यह चिंता थी ही। इस चिंता के कारण उसे रात-रातभर नींद नहीं आती थी। दिनभर काम का भार और ये ऐसे जागरण! उस कारण पति-पत्नी दोनों सिंचाई के अभाव में कुम्हला गई फसल के समान हो चुके थे।
सुमन ने चाय-चीनी की पुड़िया लेकर घर में प्रवेश किया। अब बड़की ने चूल्हे में आग जला ली थी। सुमन ने चाय उबाली। एक कप-प्लेट पड़ोस से मांगकर ले आई। एक घर में थी। दोनों मेहमानों के लिए दो कप-प्लेट में चाय भरकर वह बाहर गई। मेहमानों के बाद रखमा ने भी चाय ली। छटाक भर दूध में सात कप चाय! लाल भड़क! पर मेहमानों ने पी ली। क्योंकि उनकी भी यही स्थिति थी। उस कारण उन्होंने असामान्य ऐसा कुछ महसूस नहीं किया।
घर में गेहं का आटा न था। वह सोचने लगी। घर में मेहमान के रूप में दामाद पधारे उन्हें क्या जुआर की भाकरी और अरहर के दानों की पतली साग खिलाऊं? लाख खाते होंगे वे अपने घर में, इसी प्रकार का। पर, अपने घर तो वे मेहमान के रूप में आए हैं न! और वे भी, सादे मेहमान नहीं दामाद की जात! क्या किया जाए, कुछ सूझ नहीं रहा था, उसे कोई आटा उधार देगा क्या, यह तलाशने के लिए वह बरतन लेकर घर के बाहर निकली। चार घर गई। पर कहां कोई देता है? किसी ने नहीं दिया। वह खाली बर्तन लेकर घर वापस आ गई। लोग भी आखिर कितना उधार देंगे? एक बार उधार लिया कि लौटाने का नाम नहीं! दोबारा कोई दरवाजे पर खड़ा भी नहीं करता। आसपास की सारी आबादी भी मजदूरों की ही। किसके घर मिलता है, गेहूं का आटा? हर किसी की अपनी गृहस्थी उधार लेकर, लाचार-बेकार होकर खड़ी हुई थी।
खाली हाथ ही घर लौट आई रखमा। उसके पीछे-पीछे नारायण भी बैलों को चारा-पानी करके मालिक की हवेली से लौट आया। दोनों दामादों को दरवाजे पर बैठे देखकर वह भी रखमा की तरह चिंतित हो गया। अभिवादन किया। पल भर उनके साथ बैठने का स्वांग किया और उठकर झोपड़ी-नुमा घर के भीतर चला गया। वहां बच्चियों के कारण पहले ही भीड़ थी। पति को घर आया देख रखमा ने जरा राहत महसूस की। अर्थात एक का बोझा दो ने शोअर किए समान!
‘दामाद आए हैं, दोनों एक ही समय!’
‘हां, कोई चिट्ठी-पत्र नहीं, खबर-बात नहीं। अचानक ही आ गए। हमें मालूम होता तो तैयार करके न रखी होती?’
पुत्रियां पास बैठी थीं। माता-पिता की बातें सुन रही थीं। उनमें से, ‘लावणे’ में दी हुई सुमन काफी बातूनी थी। दोनों दामाद एक साथ कैसे आए, इस बात का वह पता लगाकर बैठी थी। इस कारण वह कहने लगी ‘बाबा, सुनों! दोनों की मुलाकात ‘मोले’ की यात्रा में हुई। दोनों के मन में कुछ न था। ऐन समय पर तय किया और आ गए, दोनों।’
‘तो ये बात है!’
‘लिवा लेने के लिए आए हैं, वे हमें। कल चलने की तैयारी करने को कहा है, दोनों को भी।’
कोई कुछ नहीं बोला। नारायण ने बुझाकर रखी हुई आधी बीड़ी जेब से बाहर निकाली। जरा-सा आगे खिसककर चूल्हे के कंडों की आंच पर जलाया। मुँह में लेकर सुटकने लगा। धुआँ बाहर छोड़कर, उसे ध्यान से देखने लगा। कोई किसी से नहीं बोल रहा था। रखमा की गोद में की छुटकी अब तुप्त होकर घुटनों के बल रेंगने लगी थी। रखमा उसे अनदेखा कर रही थी।
‘इस प्रकार बैठे रहने से कैसे चलेगा, मम्मी? उनके भोजन की तो कुछ व्यवस्था करनी पड़ेगी न!’ सुमन ने खामोशी बैठी रखमा को स्मरण कराया। इसी के साथ रखमा ने नारायण की ओर और नारायण ने रखमा की ओर, एक ही साथ, देखा।
‘क्या पकाओगी, मेहमानों के खाने के लिए?’ नारायण ने अपने मन की बात रखमा के समक्ष प्रस्तुत की।
‘क्या पकाऊं?’ वह उसी से पूछने लगी।
‘गेहूं का आटा देखो कहीं उधार मिलेगा तो? रोटी और बेसन पकाना।’
‘कौन देवाल है, गेहूं का आटा? आ गई मैं चक्कर लगाकर कोई नहीं देता।
जो देने वाले हैं, उनका पहले से उधार है, अपने पर।’
बातचीत बंद हो गई। पुत्रियां खाना पकाने के लिए बाट जोहते बेठी थीं। क्या करें, उन्हें सूझ नहीं रहा था। मां-बाप के घर आने पर भी खाना का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था।
क्या पकाया जाए, मेहमानों के खाने के लिए? अपनी हमेज़ा की बात अलग है। है ही, अरहर के दाने की उसल। मिरची की चटनी के साथ या नमक के साथ भी भाकरी खाई जा सकती है। पर दामाद के सामने क्या भाकरी और चटनी परोसी जाए? अपने घर में भले ही वे यही खाते होंगे। पर, हमारे यहां वे दामाद के रूप में आए हैं। लड़कियां ससुराल जाएंगी तो उन्हें ताने देते रहेंगे। सब काम बिगड जाएगा, ऐसे सेक।
रखमा सोच-सोचकर थक गई। सिर में तरह-तरह के विचार आने लगे। नारायण के मालिक के घर निश्चित ही आटा मिल गया होता। पर, रखमा ने वहां जानबूझ कर टाल दिया था। कैसे जाना? पिछली बार उनके घर से आटा लाया था। वह अभी लौटाना बाकी है। इसके अलावा, उनकी हवेली पर गए कि उनके यहां की निकम्मी औरतें दुनिया भर के काम बतलाते रहती हैं। बरतन मांजो, झाडू लगाओ, अनाज बीनों, तब कहीं देती हैं, छटाक भर! काम कर-करके पहले ही कमर दुख रही है। उस पर उनकी बेगार। ‘नहीं तो मैं ऐसे करता हूं।’
‘कैसे?’ नारायण की बात सुनकर उसने कुछ राहत महसूस की।
‘पाव-आधा किलो मछली ही देखता हूं, उधार मिल जाए तो। यानी फिर भाकरी भी चल जाएंगी। गेहूं का का आटा खोजने का काम नहीं। तुम मसाला पीसकर रखो। भाकरी भी बना लो। रामा कहार लाया ही होगा, आज मछलियां। वह दे देगा उधार।’
कहते हुए, वह खूटी पर का पुराना, मैला-सा दुपट्टा कंधे पर रखकर बाहर चला गया। रखमा का समूचा शरीर दिन भर के काम से दुखने लगा था। उस पर, मेहमानों के भोजन की चिंता भूत के समान गर्दन पर सवार हो गई थी। यह सब भूलकर वह काम में जुट गई। भाकरी बनाने के लिए उसने थाल में आटा निकाला। पुत्रियां ‘रहने दो, रहने दो, हम कर लेंगी’ कहती जा रही थी। पर, उसने उनकी एक न सुनी। वे हैं, मायके की मेहमान आज हैंकल लौट जाएंगी। ससुराल जाने पर उन्हें भी कहां मिलता है, आराम! इन विचारों से उसका दिल भर आया।
उसने भाकरी बनाईं। नारायण भी खाली हाथ न लौटा था। उसने मछली लाई थी। दो रुपये का गरम मसाला भी लाया था। मछली पकी। भोजन संपन्न हो चुका। मेहमानों के साथ इधर-उधर की गप्पें हुई। उसके उपरांत दोनों दामाद गांव में बी.डी.ओ. देखने चले गए। इसी के साथ पति-पत्नी विचारों में खो गए। चिंता के कारण खाना भी भरपेट नहीं हुआ था। मन में बेचैनी थी।
दीपावली के त्योहार पर बेटियों को लिवा लाया था! अब क्या उन्हें बिना कुछ नए कपडे-वपडे खरीदे वापिस भेजा जा सकता है? साडियां खरीदनी होंगी। ब्लाउज-पीस खरीदने होंगे। इस सबकी कल्पना थी ही। उसने वैसी व्यवस्था भी कर रखी थी। वर्तमान मालिक का काम वह छोड़ने जा रहा था। दूसरे के पास मासिक वेतन पर नियुक्त होकर वह उससे हजार रुपए अग्रिम लेने वाला था। हजार रुपए अग्रिम उसमें से पुराने मालिक का दो-सौ रुपए उध पर चुकाना था। बगैर उसके, वह काम पर से मुक्त न करेगा। बाकी पैसों से बेटियों की विदाई करना। साड़ियां, ब्लाउज-पीसेज खरीद देना। गांव के कुछ दुकानदारों की उधारी थी, वह चुकाना। इसके अतिरिक्त कुछ और लोगों से लिए हुए पैसे चुकाने थे। इस प्रकार सारी योजना बनाकर रखी थी पर, इस सबके लिए उसके हिसाब से अभी दस-पंद्रह दिन बाकी थे। फिलहाल वह जिस मालिक के यहां काम कर रहा था उसका महीना पूरा होने को अभी पंद्रह दिन बाकी थे। महीना पूरा हुए बगैर मालिक काम से मुक्त करने को तैयार न था। और काम पर हाजिर हुए बिना, नया मालिक अग्रिम देने को तैयार न था। बड़ी मुश्किल में पड़ गया था वह।
उस पर आज अचानक घर में मेहमान हाजिर हो गए। बारिश को अभी देर है, यह मानकर घर छाने के लिए टालना और उसी समय बारिश शुरू होकर पूरा घर अस्त-व्यस्त हो जाना, ऐसा हो गया था। पर, कुछ न कुछ तो उपाया करना ही पड़ेगा। मन में विचार-चक्र शुरू था।
अच्छा मेहमानों को खाली हाथ लौटाना भी उचित नहीं दिखाई देता। आखिर दामाद हैं वे! दामाद की तो हर हाल में तरफदारी करनी होती है। कितना भी करो, कम ही होता है। लौटा दो तो बेटियों को ससुराल में ज्यादती का शिकार होना पड़ सकता है। तुम्हारे बाप ने हम दामाद लोगों का अपमान किया। हम लोगों को खाली हाथ लौटा दिया। कहते हुए दोनों दामाद रुष्ट हो जाएंगे। दोनों का मिजाज भी तेज है। आजकल समय भी बडा खराब चल रहा है। जब देखो, बहुओं पर ज्यादती करके उनकी हत्या करने के समाचार सुनने को मिलते हैं। कहना चाहिए, अपनी किस्मत ‘अच्छी है’, बाकी लोगों के दामाद की तरह अपने दामाद पैसों की मांग तो नहीं करते न।कृ और मांग भी लें तो अपने पास है क्या, उन्हें देने के लिए?
नारायण ने ठंडी सांस छोड़ी। उसके कारण सामने के आले में रखे दीपक की लौ कांप उठी। घर में फैली धीमी रोशनी पर प्रहार करके जैसे उसके टुकड़े कर दिए गए। पूरे घर की ही बेचैनी बढ़ गई थी। रखमा ने भी लंबी सांस छोड़ी। दीपक फिर से फड़फड़ाया और पांव फिसलने वाले आदमी ने अपने आपको संभाल लिए सामान फिर स्थिर हो गया। गोद में सोई हुई छुटकी को उसने गुदड़ी पर लिटा दिया और तमाकू की चंची लेकर वह उसके सामने बैठ गई। बाएं हाथ के पंजे पर चुटकी भर तमाकू लेकर वह दाएं हाथ से मलते हुए बोली- ‘तो अब कैसा क्या किया जाए?’
‘काहे का?’
‘काहे का’ क्या पूछते हो? दोनों बेटियां कल अपने पतियों के संग जाने को कह रही हैं। वैसा बतलाया है, दोनों दामाद ने उन्हें। उन्हें विदा नहीं करना पड़ेगा? दीपावली के त्योहार के लिए लाई हुई बेटियों को क्या ऐसे ही भेज देंगे खाली हाथ? पूरी बिरादरी में बोंब कर देंगे, ससुरालवाले।’
‘वही तो विचार कर रहा हूं मैं भी। कहां से करें पैसों का जुगाड़? पांडू भालेराव भी अभी अग्रिम देने को तैयार नहीं है गणेशराव बापू भी महीना पूरा हुए बगैर छोड़ने को तैयार नहीं। अच्छा, गणेशराव बापू का काम छोड़कर पांडू भालेराव के काम पर चले जाओ तो पता नहीं वे क्या करेंगे। मेहमान भी तो ऐसे समय आ टपके कि बस्स।’ वह व्याकुल हो उठा।
‘वे कभी आएंगे। उनकी बेटियां हैं, वे चाहें जब जाएंगे। हम उन्हें कैसे मना कर सकते हैं? और मान लो, हमने अपनी अड़चन के कारण कहा कि आठ दिन और रहने दो। और बाद में वे लेकर ही नहीं गए बेटियों को. तब? जवान लड़कियों को किन पंखों के नीचे छिपाकर रखना? अपने पंखों की तो पहले ही ये इस प्रकार धज्जियां उड़ चुकी हैं। बच्चियों को क्या हम जीवन भर पाल, पोस सकेंगे?’
‘तो क्या मैं ऐसा कह रहा हूं कि बच्चियों को यहां रख लो?कृकुछ भी बकने लगी हो, पागल की तरह। क्या मैंने ऐसा कहा कि बच्चियों को ससुराल मत भेजो?’
‘मैंने सहज ही कह दिया। ऐसे ही निकल गया मुँह से।’ कहते हुए उसने दाढ़ में तमाकू भर ली।
इस बीच आंगन में बैठी हुईं दोनों बेटियां भीतर से आ गईं। आते ही सुमन बोली, ‘भाई, मेरा आदमी तो इस साल खाली हाथ जाने को तैयार नहीं है। दो साल हो गए शादी को। गांव में सारे दोस्त हँसी उड़ाते हैं उनकी।’
‘ऐसा भला क्या? सुमन क्या कह रही है, समझ में नहीं आ रहा था।’
‘क्या दीपावली बाकी नहीं है, आपकी ओर! इसी कारण वे कह रहे हैं, इस साल बिना कपड़े लिए नहीं जाएंगे और अगर गया तो कहते हैं, दोबारा ससुराल का मुँह नहीं देखूंगा।
‘क्या?’ सुमन की बात सुनकर दोनों के मुँह से चीख-सी निकल आई। सुमन की बातों से लक्कड़ पर कुल्हाड़ी के वार करके उसकी किरिचें निकाल समान उनके कलेजे की किरचें निकल आई। पर, उसकी बात भी सही लग रही थी। सुमन की शादी को दो साल और कमल की शादी को तीन साल हो गए। पर, रिवाज के अनुसार दीपावली-त्योहार पर दामाद के लिए खरीदे जानेवाले कपड़े नहीं खरीदे गए थे। इस साल खरीदेंगेकृअगले साल खरीदेंगे- ऐसा करते-करते टलते जा रहा था। आने वाला प्रत्येक साल, बीते साल की तुलना में अधिक तंगी वाला आ रहा था। इस साल भी पिछले वर्षों की तरह टल जाने वाला ही था। पर, सुमन की बातें सुनीं और वे असमंजस में पड़ गए।
‘और मेरा आदमी भी इस साल बिना कपड़े लिए, जाने को तैयार नहीं है। हमारी शादी को भी तीन साल हो चुके हैं। अब तक कपड़े नहीं लिए गए उनके लिए। इस साल अगर कपड़े नहीं लिए गए तो तुम्हें डाइवोर्स ही देता हूं, ऐसा कहा है, उसने।’
अबोल कमल की बातों ने आग में घी का काम किया। नारायण तो स्तंभित रह गया! रीढ़ पर लाठी का वार पड़े नाग के समान उसकी कमर टूट गई। दोनों दामाद ऐसे रूठकर बैठ गए हैं। पांच-छह सौ रुपयों का खर्च है और पास में तो एक रुपए की भी नोट नहीं। दुबले में दो असाढ़ कहते है- वो ऐसा! रखमा और नारायण जैसे असमय हुई वर्षा की चपेट में आ गए थे।
अंधियारा घना होता जा रहा था।
वीडियो देखकर आए दामाद सो चुके। मायके में आई बेटियां सो चुकी। छटपटाकर पस्त हुई रखमा भी मुँह खुला रखकर सो चुकी पर, नारायण की आँखों में नींद न थी। लगातार नए कपड़े, कपड़ों की दुकान, दामाद, बेटियां उसके सिर में चक्राकार घूमने लगे। पैसे, पैसे, कम-से-कम पांच सौ रुपए तो चाहिए ही। क्या कहीं चोरी करूं? मालिक के पैसे पेटी में रहते हैं। चुपचाप जाना और पेटी उठाकर ले आना। ताला तोड़कर नोट बाहर निकालना। पर, उसके बाद पुलिस-स्टेज़न! फिर जेल! तीन बेटियों की शादियां कौन करेगा? वे इसके-उसके साथ भाग जाएंगी। रखमा शॉक से मर जाएगी। इस विचार से वह आंधी की चपेट में आए वृक्ष-सा दहल गया। उसे कंपकंपी छूट गई।
बाहर अँधेरा अधिक घना हो गया था। जुगनुओं की आवाज का बढ़ता शोर लगातार सुनाई दे रहा था। आसपास सब कुछ नीरव, भयावह लग रहा था। आधी रात बीत चुकी। घर में सब शांत था। पूरा घर गहरी नींद में सोया हुआ। पर उसकी आँखों में नींद न थी। मन में चक्कर चल रहा था। चिंता सता रही थी।
बीच में उठकर वह पेशाब के लिए जाकर आया। बीड़ी की जो. रदार तलब आ गई। पर, जेब में बीड़ी न थी। घर में बीड़ी रखने के समूचे स्थान-आले, टोकरियां आदि सब खोज लिए, पर बीड़ी का एक टुकड़ा भी हाथ न लगा। उस कारण वह उदिग्न हो गया। नीचे बैठ गया। घर में सोए हुए हर किसी का चेहरा देखने लगा। विपुल जल से सिंचित फसल के समान दामादों के चेहरे, कुपित लिवा-लेने के लिए आए हैं इस कारण खिले हुए मोगरे के समान पुत्रियों के चेहरे बाहर और आठ साल की बच्चियों के निश्चिंत और मासूम चेहरे, मां के निचुड़ चुके स्तन को अपने पतले होंठों से दबाकर सोई हुई नन्हीं का लुभावना चेहरा और सोई हुई रखमा के चेहरे की ओर वह काफी समय तक देखता रहा। भग्न, भयाक्रांत चेहरा। उसकी भौहों में विचित्र हलचल हो रही थी। माथे पर की लकीरें नींद में भी सक्रिय थीं और बंद भौहों के भीतर आँखों की पुतलियां इधर से उधर और उधर से इधर ऐसी घूम रही थीं। होंठ खुले हुए थे। कितने दिन हो गए, उसकी ओर इस प्रकार जी भरके देखा ही नहीं! वह धीरे से कमर के भरो से आगे खिसका। उसके मुँह की ओर टकटकी लगाकर देखता रहा। कितना श्रम करते रहती है, बेचारी। इस गृहस्थी की गाड़ी को चलाने के लिए। खाते-पीते घर में होती तो और भी कितनी आकर्षक दिखती! पर उसके नसीब में था, मैं। गोरा रंग था। खासे लंबे केश थे। गदराए आम-सी मांसल देह थी, पर मुरझा गई। उसके गले में मेघ घुमड़ आए। उसके चेहरे पर से घुमाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, पर फिर पीछे खींच लिया। छोड़ो जान-जवान लड़कियां घर में हैं उनमें से कोई जाग गई और मुझे इस हाल में देख लिया तो! नहीं तो कोई दामाद ही उठ जाए।
वह उठकर खड़ा हो गया। इसी के साथ, बीड़ी की तलब तेज हो गई। कहीं से बीड़ी मिलनी ही चाहिए। उसकी इच्छा तीव्रतर हो गई। उसने फिर खोज आरंभ की, घर में। बीड़ी खोजते-खोजते उसका पांव सुमन के पांव पर पड़ गया। वह नींद में बुदबुदाई। ‘अरे अरे, आज नहीं घर जाने के बाद।’ नींद में बड़बड़ाते हुए उसने करवट बदल ली। उसे लगा होगा, पति ही अपने को जगा रहा है।
पर उसके इस प्रकार नींद में बड़बड़ाने से नारायण मन-ही-मन बहुत लज्जित हुआ। लगा, अपने हाथ से अपनी कनपटी में लगा देना फिर किसी के शरीर पर पांव न पड़े, यह सोचकर वह बीड़ी की खोज बंद करके चुपचाप बिस्तर में आकर सो गया। जुगनुओं की आवाजें आ ही रही थीं। इस कारण सिर भन्ना गया था। नारायण को लगा, जो सोए हैं वे कितने सुखी हैं! उन्हें किसी की आवाज नहीं कि कुछ नहीं बढ़िया सोए हैं बेचारे!
गांव के ऊपरी हिस्से से नागपर-पणे हाइवे गया था। इस निरंतर आवागमन वाले प्रमुख मार्ग से बड़ी तेज गति से ट्रक आते-जाते थे। पर, वातावरण शांत होने पर उनकी कर्कश आवाजें यहां तक आती थीं। इस कारण और भी सिर भन्ना गया था। ट्रकों का आवागमन जारी था। एक के बाद दूसरा। पुनः दो-एक मिनट में तीसरा ट्रक के इंजिन का गियर बदलकर चढाव पर चढ़ने का। इतनी दरी से भी रोऽऽ रोऽऽ की आवाज आ रहा थी। ऐसा लग रहा था जैसे पास ही है। इसके पूर्व कभी इस प्रकार की चिंता न करनी पड़ी थी। जागना न पड़ा था। दिन भर खेत में काम करने के बाद रात को बिस्तर पर आकर लेटे कि तुरंत मुर्दे समान नींद आ जाया करती थी। शायद इसी कारण आज पहली बार यह पता चला कि डामर-रोड से रात में इतने ट्रक गुजरते हैं। इसके पूर्व इस बात का इतना अहसास नहीं हुआ था। आज यह एक नई जानकारी प्राप्त हुई थी।
वह सोचने लगा, ऐसा क्या लेकर जाते होंगे इतने ट्रकों में भर कर और कहां? किसलिए लेकर जाते होंगे, लेकर जाते होंगे गेहूं, जुआर! स्साला, कभी ऐसा हो जाए कि एक ट्रक और वह भी गेहूं से भरा हुआ, मुझे मिल जाए तब क्या मजा आएगा! आटा उधार मांगकर लाने का काम नहीं उलटा अपने घर मांगने आएंगे लोग।
एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां, कितने ही ट्रक भयानक आवाज करते हुए भागे चले जा रहे थे। ट्रक गांव के समीप आया कि आवाज एकदम तेज हो जाती थी। फिर धीरे-धीरे कम-कम। ट्रकों की आवाजाही के कारण आवाज का कम-अधिक होना जारी था। उसने आवाज से संख्या का अनुमान लगाने का प्रयास किया। पर, संभव न हुआ। बीच में ही कहीं संख्या गलत हो गई और उसकी समझ में आ गई कि यह अपने बस की बात नहीं है। इस प्रकार हिसाब में गलती होने से उसका सिर दुखने लगा था। इसके अलावा, आने-जानेवाले ट्रकों की गिनती करके अपना कोई फायदा होनेवाला नहीं है, यह भी, देर से ही सही, उसकी समझ में आ गया। उसके बाद उसने वैसा करना छोड़ दिया। पर, अब क्या? वह सोचने लगा। बिस्तर में बेचैनी महसूस करने लगा। नींद आने का नाम न था। बिदा कैसे करें? इसी उधेड़बुन में था वह। नींद आई ही नहीं। रातभर छटपटाहट, जल बिन मछली की तरह।
गांव की मस्जिद में सुबह की अजान हुई। बिठोबा के मंदिर में भक्तिगीत की रेकार्ड लगाई, आत्माराम कुटे ने। शनैः शनैः पूरा गांव नींद के आगोश से उबरने लगा। सब ओर बड़-बड़ सुनाई देने लगी। उसे तो नींद आई ही न थी। चिंता-मुक्ति का कोई उपाय सूझा न था। उलझन जस की तस थी। बिना सुलझी।
पर ट्रकों की गिनती किसलिए कर रहा था मैं? किस कारण गिनते बैठा था रोड़ से आने-जाने वाले ट्रक! मैं कहीं पागल तो नहीं न हो गया? यह विचार आते ही वह भयभीत हो गया। सराफा का पगला भैया सड़क पर बैठकर गिनते रहता है आने-जाने वाले लोग। दिन भर बैठा रहता है, सड़क के किनारे। लोगों के मुँह की ओर उंगली दिखाकर एकऽऽ दोऽऽकृ कहता रहता है और गिनती का आंकड़ा गलत हो गया कि बाल नोंचते हुए इधर से उधर भागता रहता है। कहीं मैं भी! मैंने भी रात भर वही किया। कहीं मैं भी थोड़ा-सा पागल तो नहीं न हो गया! आज तक ऐसे भयानक प्रसंग आए गए। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। तब रात को ही क्यों हो गया ऐसा? आखिर क्यों?
जागरण के कारण आँखें लाल हो चुकी थी। सिर भारी-भारी हो गया था। चक्कर आए समान लग रहा था। ‘तो अब क्या किया जाए?’ रखमा ने चाय की कप-प्लेट थमाते हुए उससे कहा। लाल कड़क चाय, बगैर दूध की। वह कुछ नहीं बोला। चुपचाप आँखें बंद करके चाय सुड़क ली। उसके बाद गोबर-सानी के लिए मालिक की हवेली की ओर चला गया।
रखमा अपने पति की बेचैनी महसूस रही थी। अच्छा ही हुआ जो देर से ही सही पर ऑपरेशन करा डाला और संख्या बढ़ने न दी। नहीं तो लड़के की आस में फटाफट दस-बारह लड़कियां ही पैदा हो जाती। तब कैसी मुसीबत होती। दो लड़कियों के ब्याह हो जाने के बाद बावजूद उनकी परेज़ानी दूर नहीं हुई। अभी तो और तीन बाकी हैं। उनकी परेशानी है ही। अपना जनम क्या इस प्रकार परेशानियों के बीच ही बीत जाएगा! चिंता के कारण पहले ही छाती में दर्द होते रहता है। किसी रात छाती में मरोड़ उठेगी और मर जाऊंगी।
नन्हीं अभी सोकर उठी न थी। बीच की दोनों पुत्रियां प्यालों में चाय लेकर बैठी थीं। एक दूसरे के हाथ के ‘पांव’ के टुकड़े के लिए लड़ती जा रही थीं। हर किसी को लग रहा था, दूसरी के हाथ का टुकड़ा बड़ा है। उसके कारण विवाद हो रहा था। शादी-शुदा और दीपावली पर मायके आई हुई, आंगन में खाट पर बैठी थीं। अपने-अपने पति के साथ खूब हँस-बोल रही थीं। उन्हें अपने माता-पिता की चिंता का जरा भी एहसास न था। बहुत दिनों की गैप हो गई थी इस कारण संभव है, ससुराल जाकर पति की बाहों में समा जाने की दोनों की इच्छा बलवती हुई हो। उनकी ओर देखकर रखमा को मन ही मन क्रोध आ गया। यह क्रोध कहीं और फूट पड़ा। ‘पाव’ के लिए लड़ रहीं पुत्रियों पर। उनकी पीठ पर धौल बैठीं। वे चिल्लाने लगीं। रोते हुए उधर रास्ते पर चली गईं। ‘पाव’ के टुकडे और चाय के प्याले हाथ में ही थे।
सुबह के दस बज गए। धूप तेज होने लगी। पर, नारायण सुबह ही निकल गया था। वह अब तक लौटा न था। घर उसकी प्रतीक्षा कर था। मेहमान लौटने के लिए जल्दी मचा रहे थे। रखमा बाट जोहने लगी। ग्या. रह बज गए होंगे। घर मेहमान आए हैं। खाने-पकाने की किसी प्रकार की व्यवस्था न की। कुछ नहीं, पुत्रियों के लिए साड़ियां, ब्लाउज के कपड़े नहीं लाए। दामाद भी दीपावली के कपड़े मांग रहे हैं। इस आदमी को कैसे, कोई चिंता नहीं हो रही होगी या इस ताप से संतप्त होकर कहीं भाग गए? कि आत्महत्या कर ली? यह विचार आते ही वह घबड़ा गई। सारे काम छोड़कर जल्दी-जल्दी मालिक की हवेली पर गई।
‘ये कहां गए हैं?’ उसने आंगन में से ऊपर के बरामदे में अखबार पढ़ते बैठे मालिक से पूछा।
‘यही तो मैं भी तुमसे पूछने वाला था। उसने केवल गोबर साफ किया, सुबह आकर और तब से जो गायब हुआ तो अब तक पता ही नहीं उसका। खेत में जाना है। गेहूं के लिए खेत में हेंगा जोतना है। ये सब छोड़कर कहां जाकर बैठा है, किसे पता? निश्चिंत होकर! मुझे लगा, मेहमान आए हैं इस कारण छुट्टी मार दी शायद आज! तुम आ गई पूछने के लिए। कहां गया होगा पट्ठा।’
इसी बीच मालिक का स्कूल गया हआ बच्चा घर लौटा।
‘किसकी, नारायण दा की बात चल रही है क्या?’ उसने नेटा ऊपर खींचते हुए पूछा।
‘हां, क्या तुमने देखा है उन्हें?’
‘हां वो सुबह से ही उनके पड़ोस में रहने वाले बोचरे गुरुजी के साथ हैं।
हमारी स्कूल में भी आए थे।’
‘बोचरे गुरुजी से भला क्या काम है, उसे?’
‘मुझे नहीं पता’- कहते हुए बच्चा भीतर भाग गया।
‘ये कहीं बेचारे गुरुजी के यहां तो नहीं रहने वाला है, मासिक वेतन पर? ये मास्टर लोग भी अब किसानों से आगे बढ़े चले जा रहे हैं। बोआई के समय वेतन का पैसा होता है, इनके पास। खूब खर्च करते हैं। और दन्न कमाई करते हैं। स्साला, किसान के घर में दूध, घी नहीं। इन मास्टरों के घर में हैं। वानखडे, भांगरे, गालफाड़े, ये सारे मास्टर संपन्न किसान हो गए और असल किसान भूखा मर रहा है इन की तो। ऊपर से कोई कार्रवाई भी क्यों नहीं होती इन मास्टरों पर होनी चाहिए। कहना चाहिए, एक तो खेती करो या मास्टरी करो।
मालिक इस प्रकार अनाप-शनाप बड़बड़ाता रहा। पर, इससे रखमा यह जान न पाई कि उसका पति कहां चला गया। वह व्याकुल हो गई। घर वापस लौट गई। अब ये आदमी, उस मास्टर के संग भला क्यों कर घूम रहा होगा। घर में मेहमान हैं, उनकी व्यवस्था करना छोड़कर बड़बड़ाते हुए रखमा उस पर कुपित हुई।
वह घर लौट आई। घर आते ही बेहद चकित हो गई। नारायण घर आ चुका था। पहनी हुई धोती ढीली-ढाली करके बैठा था। उसके इर्द-गिर्द पूरे घर के सब उसे घेरकर बैठे हुए थे। सारी पुत्रियां उसे घेरकर चिड़ियां की तरह ‘चिव-चिंव’ कर रही थी। सामने नए कपड़े फैले हुए थे। साड़ियां, ब्ला. उज-पीसेज, पैंट-शर्ट के, पॉलिस्टर के महंगे नए कपड़े और किराना माल, दर्जन भर केले आदि पता नहीं क्या-क्या वह बाजार से लेकर आया था। पुत्रियां कुतूहलपूर्वक नए कपड़े देखती जा रही थीं। रखमा तेजी से आती हुई दिखाई दी तो बीच की दोनों शोर मचाते हुए उठ खड़ी हुई।
‘मम्मी, देखो तो बाबा कितना सामान लेकर आए हैंकृ साड़ियां, कपडे, केलेकृऔर भी क्या-क्या लाए हैंकृ।’
रखमा ने सामान छोड़कर नारायण की आँखों में गहरे देखा। वह थका-सा, चेहरे का सारा तेज खोकर उसके बदले वहां कमाल की उदासीनता छाई थी। कालिमा छाई थी। वह धंसी हुई आँखों से उसकी ओर टक-टकी लगाए देखने लगा। भौंहें चढ़ाकर उसकी ओर देखते हुए रखमा ने पूछा, ‘कहां से लाए हो, ये सब?’
‘मार्केट में से!’ वह हँसा पर, लगा जैसे रो रहा है।
‘वो जानती हूं मैं! मार्केट से नहीं तो शमशान से थोड़े ही न लाया जाता है, ये सब।’
‘जानती हो न, तुम चुपचाप बैठो। किर-किर मत करो।’ वह बौखलाया।
‘पर, पैसा कहां से आया, यह पूछ रही हूं मैं।’
उसकी इन बातों से वह और भी निचुड़ गया। खिन्न हो गया। उसके प्रश्न का उत्तर उसने फिर टाल दिया।
‘ज्यादा कुछ पूछते मत बैठो तुम। मेहमान जाने की हड़बड़ी में हैं। केले लेकर आया हूं उनका कलेवा बनाओ। किराना सामान लेकर आया हूं। गेहूं लाए हैं, जरा बढ़िया खाना पकाओ, काफी कुछ लेकर आया हूं। मुझ से उठाया न जा रहा था तो पुंज्या हमाल को साथ लेकर आया, मजे उड़ाओ, मेहमान कहां चले गए? उन्हें बुलाकर ये कपड़े दिखाओ, सबको खुश हो जाने दो। कोई भी नाराज नहीं दिखना चाहिए। गंगा, तुम पायली भर गेहूं बिनकर पिसाकर ले आओ, सुमन और कमल, तुम तब तक बाकी खाना पकाना शुरू करो, चलो काम शुरू करो।’
पुत्रियां उठीं। उत्साह से काम में जुट गईं। पर रखमा जस की तस जमी रही। पति ने पैसों का जुगाड़ कहां से किया, इसका जवाब अभी उसे नहीं मिला था। उसे बिना, लाए हुए सामान से ही समाधान मिलने वाला न था। उसके बार-बार पूछने के बावजूद वह जवाब दे नहीं रहा था। वह उसके प्रश्नों से तंग आ गया।
‘बतलाओ तो, कहां से भिड़ाया पैसों का जुगाड़?’
‘लेकर आया नए मालिक से अग्रिम, कोई चोरी थोड़े ही न की है मैंने, तुम भी न कमाल की हो! बे-मतलब की बात लेकर बैठ जाती हो, कोई चिंता मत करो’ कहते हुए उसने बात संवार ली।
‘पर नया मालिक तो बगैर काम पर हाजिर हुए पैसे देने वाला न था।’
‘पकड़े उसके पांव। दया करके आखिर दे ही दिए उसने। लड़कियों को विदा जो करना था। ऐसे वक्त इस प्रकार भीख मांगनी ही पड़ती है। कोई इलाज नहीं है, इसका।’
इस पर वह कुछ न बोली। संतुष्ट हो गई। उठकर वह भी पुत्रियों के साथ घर के काम में जुट गई।
दामादजी हाजिर हो गए। कपड़े देखकर खुश हो गए। प्रसन्नतापूर्वक मेहमानवाजी संपन्न हो गई। दोनों पुत्रियां ससुराल विदा हो गईं।
अब पुत्रियों की चिंता न थी। उनके पति अब उन्हें तलाक देने वाले नहीं थे। दोस्त-भाई उनकी हँसी उड़ाने वाले न थे। सब कुछ व्यवस्थित निपट गया था। उसका मन प्रसन्न हो गया था।
मेहमानों द्वारा खूब अनुरोध के बावजूद उसने उनके साथ भोजन नहीं किया था। झूठ-मूठ कह दिया कि पेट दुख रहा है पर सही कारण यह था कि कहीं दामाद और पुत्रियों को कम न पड़ जाए।
पुत्रियों की विदाई के उपरांत घर में तूफान गुजर जाने के बाद की-सी अकुलाहट महसूस की जा रही थी। पुत्रियों के हल्ले-गुल्ले से गुलजार घर एकदम शांत लग रहा था। उदासी-सी छा गई थी। बिना कोई बात किए वे दोनों बे-मन से भोजन कर रहे थे तभी द्वार पर खटका हुआ।
‘कौन है?’ उसने निवाला रोकते हुए कहा।
‘मैं हूं, बोचरे मास्टर!’
‘कहते हुए बोचरे मास्टर ने द्वार पर चप्पलें उतारी और घर में प्रवेश किया। सीधे नारायण की थाली के पास आकर बैठ गया। उसके हाथ में ग्लूकोज-पाउडर और बिस्किट के पैकेट्स थे। मोसंबी थी। नारायण की थाली में केले का कलेवा, रोटी, भजिए आदि देख और वह जोर से चिल्लाया, ‘अरे ये क्या है, नारायण? दो दिन हलका भोजन लेने के लिए कहा था न मैंने तुम्हें? और तुम ये खाना खा रहे हो? तबीयत खराब हो जाएगी न ऐसे से। ‘कुछ फर्क नहीं पड़ता’, नारायण ने उकडू बैठते हुए जवाब दिया।
मास्टर की बात रखमा समझ न पाई। उसके हाथ में ये बिस्किट के पैकेट कैसे? और वो ये पैकेट इन्हें क्यों कर दे रहा है? कभी न आने वाला यह मास्टर आज अपने घर किस कारण आया होगा? इस सब बातों का मतलब क्या है? कहीं इसने शराब तो न पी रखी है? वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी।
‘क्या हुआ मास्टरजी, ये पगलाए जैसे क्या बोले जा रहे हैं आप?’ वह बोली।
‘क्या नारायण ने कुछ बतलाया नहीं, अब तक।’
‘नहीं तो।’ वह उसके और मास्टर के मुँह ताकने लगी। बेचैनी बढ़ गई। उसने देखा, पति उससे नजर चुरा रहा है। इसका सुबह ही नसबंदी का ऑपरेशन किया गया है। मुझसे खुद ही आकर मिला। पिछले दिनों, मैंने यूं ही कह दिया था, कोई ‘केस’ मिले तो खबर करना। तो आज खुद ही प्रस्तुत हो गया। आजकल ‘केस’ की खोज में गांव-गांव घूमना पड़ता है। लोगों की खुशामदें करनी पड़ती हैं। ज्यादा रकम की लालच में लोग भी जल्दी तैयार नहीं होते। पर, सुबह-सुबह मेरे घर पहुंच गया। बड़े उपकार हो गए, मुझ पर, नहीं तो मेरा तबादला तय था। बड़े अधिकारियों ने परेज़ान कर रखा था पर नारायण परमेश्वर की तरह मिल गया। इस कारण बोलते बराबर इस आठ-सौ रुपए दे दिए मैंने। पैसों की बात नहीं, नौकरी बनी रहे और वह भी गांव में यह महत्त्वपूर्ण है। खेत भी जोत सकते हैं।
मास्टर की बात सुनकर उस पर मानों मनों पानी गिर गया। उसके सारे बदन में कंपकंपी छूट गई। वह अवाक् हो गई थी। मास्टर की बातें जारी थीं, मग्न होकर कक्षा में पढ़ाई समान। पर वह उन्हें सुन नहीं पा रही थी। वह लगातार नारायण की ओर देख रही थी। और वह, माटी के पुतले के समान घुम्म-चुप्प! चुप्प! उसकी नजर से बचने की कोशिश किए जा रहा था।
‘अरे पर ऑपरेज़न तो पिछले दिनों मैं कर चुकी थी न! तब तुम्हें फिर करने की भला क्या जरूरत थी?’ उसने कर्कश आवाज में उससे पूछा। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह बार-बार पूछती रही।
पल भर के लिए उसके होंठ थरथराए पर फिर स्थिर हो गए। आँखों की कोरों से आंसुओं की लहरें उमड़ने लगीं। वह अश्रुपूरित नैनों से उसकी ओर देखने लगा। आँखों से निकालकर अश्रु सामने की थाली में टकपने लगे। इस कारण उसे वह अब धंधली-सी दिखाई देने लगी थी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
