Teri Meri Kahani
Teri Meri Kahani

Hindi Love Story: विवाह …..विश्वास की जमीन पर प्रेम ,अधिकार और कर्तव्यों के मेल से बना एक ऐसा सुगन्धित पौधा है, जिसमें दो अनजान लोग जीवन भर साथ निभाने का वचन ही नहीं देते, बल्कि एक- दूसरे को अपना विश्वास भी सौपते हैं ।

विश्वास एक दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण का, विश्वास ….दूसरे के दुख को अपने दुख से बढ़कर मानने का और अपने जीवन साथी को उसी रूप में स्वीकारने का जिस रूप में वह है। विवाह समझौता नहीं बल्कि वह बंधन है जिसमें दायित्व से भरे मर्यादित जीवन की ओर हम एक-एक कदम बढ़ते हैं ।विवाह हमारी आजादी नहीं ,छिनता बल्कि हमारे सामर्थ्य को और भी ऊंचाइयां प्रदान करता है और इस बात का यकीन दिलाता है कि इस भरी दुनिया में कोई हो या ना हो पर हम तुम्हारे साथ हमेशा हूँ हरदम,हरपल,हरक्षण।

विवाह की पहली रात को अशोक के कहे ये शब्द वर्षों बाद मेरे कानों में गूंज रहे थे।खिड़की से झाँकता चाँद और मैं…आज मैं चाँद हो जाना चाहती हूँ। ए रात तू तो गवाह है मेरी उन नींदों का जो करवटें बदल-बदल कर काटी है मैंने… पर आज मैं चाहती हूँ कि ए रात जरा थम-थम के गुजर…सुगंधा ने अपने आप से कहा,सुगंधा आज खुश थी बहुत खुश…सुगंधा को अशोक से हमेशा शिकायत रही कि वो उसे प्यार नहीं करते।

सुगंधा के दिल में इस बात की हमेशा कसक बनी रही ।क्योंकि उसके हिसाब से उन्होंने कभी घुटनों के बल बैठकर सर झुकाकर एक हाथ को पीछे रखकर हाथ में सुर्ख गुलाब लेकर उसके सामने वो तीन जादुई अल्फ़ाज़ नहीं बोले थे। 

अशोक के दोस्त विराज भी तो उसी के उम्र के थे पर वो अपनी पत्नी से कितना प्यार करते थे। कहीं भी जाते तो दोनों पति-पत्नी एक जैसे ही रंग के कपड़े पहनते,विराज एक पल के लिए भी शोभा का हाथ नहीं छोड़ते थे। फ़िल्मी अभिनेता और अभिनेत्री की तरह एक-दूसरे की आँखों में आँखें डाले दोनों अपनी ही दुनिया में खोये रहते।तोता-मैना की जोड़ी थी उनकी…प्रेम विवाह हुआ था उनका।परिवार वालों ने बहुत विरोध किया था उनका पर अंत में सब ठीक हो गया।उसे भी तो ऐसा ही प्रेम चाहिए था जो उसे टूट कर चाहे पर…अशोक ने सुगंधा के कभी कंधे पर हाथ रखकर फोटो तक नहीं खिंचवाई थी।

वो जीवन भर पति में प्रेमी की तलाश करती रही पर उसे वो कहीं न मिला।उसे मिले तो सिर्फ अशोक उसका पति…शादी के पहले खूबसूरत लम्बा कद,चौड़ा ललाट, रेशमी पलकों और मजबूत कंधों वाले पुरुषों को देखकर वो सहज ही आकर्षित हो जाती, शायद वो उम्र ही ऐसी ही थी। एक सजा-धजा सा प्रेमी जो उसकी हर हाँ में हाँ और न में न कहे,चुटकियों में आकाश से तारें तोड़ लाने की हिम्मत रखे।जब वो दिन को दिन कहे तो वो भी उसमें अपनी सहमति दें पर वो प्रेमी में एक पति की भी तलाश कर रही थी।सच पूछो तो वो प्रेम के साथ एक सुरक्षित भविष्य की भी तलाश कर रही थी पर उसकी यह तलाश अधूरी ही रही।न उसे प्रेमी में पति मिला और न ही पति में प्रेमी…हर औरत अपने जीवन में कम से एक बार ये अवश्य चाहती है कि कोई सजीला सा राजकुमार न सही वो हाड़-मांस का पुतला ही क्यों न हो।उसके मन के किवाड़ों को हौले से खटखटाये और हृदय के उन सातों द्वारों से गुजरता हुआ प्रेम के उस अथाह सागर में डुबकी मारकर मन-मस्तिष्क में हिलोर मारकर गुजर जाए पर हर व्यक्ति के जीवन में खटखटाने वाले वो मजबूत हाथ नसीब हो जरूरी तो नहीं…हो सकता है वो किवाड़ उन उंगलियों के स्पर्श से अछूते रह जाये।

“धाड़…”

खिड़की के टकराने की आहट से सुगंधा अपने सोच के दायरे से बाहर निकल आई। अशोक के माथे पर बाल बिखरे हुए थे ,तकिए को कसकर सीने से दबाये वो नींद में मुस्कुरा रहे थे। चादर तन से खिसकर जमीन पर लोट रही थी।सुगंधा ने दबे कदमों से अशोक की तरफ कदम बढ़ाया और जमीन पर पड़ी चादर को उठा कर अशोक को उड़ा दिया। नींद में कितने मासूम लग रहे थे वो…”क्या तुम मुझे प्यार नहीं करती।”

शाम को चाय पीते वक्त यही तो कहा था उन्होंने… और वो अचकचा गई थी,जैसे अशोक ने उसकी चोरी पकड़ ली हो। आज शाम को वो फिर शिकायतों का पुलिंदा खोलकर बैठ गई थी।शोभा ने उसे फोन पर बताया था,विराज ने वैलेंटाइन डे पर उसे कितने सारे उपहार दिए।हर रोज एक नया उपहार लेकर वो उसे चौका देते।14 तारीख को तो उन्होंने शहर के महंगे होटल में उसे कैंडिल लाइट डिनर देकर आश्चर्य में ही डाल दिया था। सुगंधा कितना कसमसाई थी,

“ये अंग्रेजों के चोचलें हैं तुम भी किन झमेलों की बात करती हो।”

अशोक की बात सुनकर सुगंधा चिढ़ गई थी,

“आप से तो कुछ भी कहना बेकार है, विराज अपनी पत्नी से कितना प्यार करते हैं…$$$ “

“पर क्या शोभा भी?”

अशोक की बात सुन सुगंधा चौक गई थी।

“सुगंधा!मैं शोभा को आज से नहीं बहुत पहले से जनता हूँ, जब उन दोनों की शादी भी नहीं हुई थी।जानती हो सुगंधा! शोभा विराज के इस बेपरवाह व्यवहार से बहुत परेशान हैं। हर समय सरप्राइज के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाना उसे भी पसन्द नहीं पर विराज का मन रखने के लिए वो खुश होने का नाटक कर देती है।वो आज भी प्रेमी बनकर ही जी रहा है पति और पिता तो वो बन ही नहीं पाया।बचत के नाम पर ठन-ठन गोपाल है वो…कल की तो आज तक उसने सोची ही नहीं, वो आज में जीता है। भले ही उसका वो आज कल पर कितना भारी ही क्यों न पड़ जाये। बच्चे बड़े हो रहे हैं, उनका भी भविष्य पर नहीं… घर और गाड़ी की ई एम आई अभी कटी नहीं है और वो शहर के बीचों-बीच मकान खरीदने की सोच रहा है।”

” ये बात तो विराज ने यही घर पर कही थी ।”

“तुम्हें याद है उसने क्या कहा था ये बात शोभा को पता न चले ।मैं उसे उसके जन्मदिन पर उपहार में देना चाहता हूँ।आज मकान की बात थी तब वो शोभा से छिपा रहा है पर पता नहीं वो कल और क्या-क्या छिपायेगा या ये भी हो सकता है आज तक छिपाता रहा होगा।”

अशोक की बात सुन सुगंधा सोच में डूब गई,

“सुगंधा!हमेशा प्रेमी बनकर कब तक रहा जा सकता है, कभी तो पति या पिता बनकर अपनी जिम्मेदारियाँ भी समझनी होगी।एक बात बताओ तुम मुझ से प्यार करती हो।”

अशोक की बात सुन सुगंधा अचकचा गई,जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो।

“शायद तुम्हारे पास आज इस बात का कोई जवाब नहीं पर मुझे पता है तुम मुझ से बहुत प्यार करती हो।हाँ ये बात अलग है कि ये प्यार रोमियो-जूलियट वाला नहीं,हीर-रांझा वाला भी नहीं और न ही लैला मजनू वाला ही है पर मैं ये यकीन से कह सकता हूँ कि तुम मुझ से प्यार करती हो।

सुगंधा मंत्र-मुग्ध सी अशोक की बात सुन रही थी।

“ऑफिस जाते वक्त मेरे बिना कुछ कहे गुसलखाने में तौलिया, बेड पर रुमाल,मोजे,कपड़े और फ़ाइल रखने वाली तुम ही हो न…घड़ी की सुई पर डायनिंग टेबल पर नाश्ता रखने वाली तुम ही हो न, पराठे थोड़े ठंडे ,चाय एकदम गर्म और पानी हल्का कुनकुना का ध्यान रखने वाली तुम ही हो न…शाम को ऑफिस से लौटते वक्त जरा सी देर होने पर तुम्हारे मन की चिंता तुम्हें दरवाजे से गेट तक ले आती है। मायके जाने के चार दिन पहले से ही तुम सूखे नाश्ते बनाने लगती है कि अगर कहीं मुझे भूख लगे तब मैं क्या करूँगा।जबकि तुम जानती हो तुम जब घर पर भी होती हो मैं खुद कभी अपने हाथ से उठाकर ये सब नहीं लेता।तुम ही मुझे हाथ में ज़बरदस्ती खाने के लिए पकड़ाती हो। बिजली का बिल,बच्चों की फीस या फिर राशन लाना हो सब की जिम्मेदारी तुम ही ने तो उठा रखी है,क्योंकि तुम मुझ से प्यार करती हो, नहीं चाहती कि ऑफिस की परेशानियों में उलझा हुआ मैं… घर की उलझनों में दबकर रह जाऊँ।रिश्तों के रेशमी जाल को उलझने से पहले ही तुम सुलझा लेती हो।”

माँ सही कहती थी माता-पिता द्वारा तय की हुई शादी में प्यार शादी के पहले नहीं बाद में होता है।सुगंधा एकटक अशोक को देख रही थी।अशोक ने कितनी सरलता से सुगंधा के प्यार को समझ लिया था पर क्या उसने भी…

“सुगंधा!विवाह एक अहसास है जो जीवन भर एक-दूसरे को कभी तन्हा नहीं होने देता।ज़रूरी नही कि कोई आपके साथ चल रहा है तभी साथ है,ज़रूरी तो ये है कि किसी की मौजूदगी आपको कभी अकेला महसूस न होने दे..मेरे लिए तुम्हारा साथ कुछ इस तरह की है।”

अशोक सच ही तो कह रहे थे,उनकी हँसी में उसकी खुशी कब शामिल हो गई उसे पता भी नहीं चला,अशोक के दर्द और तकलीफ में उसकी आँखें भी तो न जाने कब और क्यों नम हो जाती है।उनके आँसू उसके पलकों पर आकर आखिर क्यों ठहर जाते है… ये बस एक विश्वास है जो आपको कभी कमज़ोर नही पड़ने देता।बस एक एहसास जो दो लोगो को आपस में जोड़े रखता है… हमारे बीच प्रेम नहीं था पर ऐसा कुछ तो था जिसने हमें इतने सालों से बांधे रखा हुआ था। एक ऐसा बंधन जो खुशी में मजबूत और दर्द में और अधिक मजबूत हो जाता था। आज न जाने क्यों सुगंधा को टूटे हुए सपनों और आकांक्षाओं की किरचन की चुभन महसूस नहीं हो रही थी। मन का उजास न जाने कब चुपके से उसके चेहरे पर पसर गया,आज सही मायने में उसे अपनी शादी का मतलब समझ आ गया था।