taza bawri
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

“हां ताजा नाम था उसका?”

“ताजा।”

वो बहुत ही सुन्दर थी। सेबों की तरह अंगारों से लाल गाल। आँखें कटोरे जितनी। नाक बर्फी की तरह तीखी और होंठ जैसे पत्तियाँ गुलाब की। पतला और गठीला शरीर। सिर्फ बारह-तेरह बरस की होगी वो जब ब्याह करके आई थी। उसको देखकर सारे गाँव वाले कहते, “पता नहीं जोना यह परी जैसी कहाँ से ले आई हो।”

जोना खुद भी बहुत ही सुन्दर और मज़ाकिया थी। चाहे घर में कुछ भी हो ना हो फिर भी ऐसा लगता, जैसे उसने सात पदार्थ पकाए हों। उसके होंठों पर सदा मुस्कराहट रहती। जब कभी हमें रस्ते में मिल पड़ती तो हमारी गालें खींचती और हमारी सोनियों को हाथों में मरोड-मरोड कहती- “ज़रा मैं देखू कितनी बड़ी हुई है।” और हम शरमाकर भाग जाते।

हमें जब भी फुरसत मिलती, हम जोना के घर पहुँच जाते। सर्दियों के दिनों में तो उनके घर रौनक लगी रहती। उसका पति आहदमीर काँगड़ियाँ बांधता, साथ ही ऊँचा-ऊँचा गाता रहता। उसके गप्पे सुनने को गाँव के बुजुर्ग-जवान आ जुड़ते।

जब से इस घर में ताजा आई थी, हम किसी-न-किसी बहाने उनके घर चल पड़ते। ताजा की गोरी पिन्नियां देख-देखकर पता नहीं हमारे अंदर किस तरह रस भर जाता। वो जब भी कभी हमारे ओखली पर धान लेकर आती तो हम बड़े पत्थर पर आ बैठते। जब वो मुस्ले के साथ धान छड़ती तो उसकी छोटी-छोटी छातियाँ फिरन के गले में से बाहर झाँकती। हम चोर नज़रों से उसकी छाती को झाँकते रहते और हमारे अंदर एक झनझनाहट जैसी होने लगती।

रुसला, ताजा दा घरवाला बड़ा शरीफ और सादा तबियत का आदमी था। ताजा उससे उम्र में काफी छोटी थी। रुसला हमारे खेतों में काम करता रहता। उनकी अपनी कोई ज़मीन नहीं थी।

एक बार जब मैं अपनी काली बछड़ी ढूँढने पीरां वाले कुएँ की तरफ गया तो आगे मेरे कानों में छड़प-छड़प की आवाज़ पड़ी। मैंने पत्थरों की दीवार से गर्दन झुकाकर देखा तो आगे ताजा कुएँ में निर्वस्त्र नहा रही थी। मेरे अंदर जैसे गुदगुदी जैसी होने लगी। उसकी नज़र मेरे पर पड़ते ही उसने अपना शरीर अपनी गोरी बाँहों में छुपा लिए और चिल्लाई,

“अरे इधर नहीं इधर नहीं?”

एकाएक गाँव में आ घुसे गाँववासी आँखें फैलाए एक-दूसरे की तरफ देखने लग पड़े। फिर गाँव के कई बड़े सज्जन उनकी रहनुमाई करने लगे। हर तरफ अजीब से नारे गूंजने लगे। कम गिनती के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने लग पड़ी। रातों-रात बस्ती के पुल जला दिये, स्कूल खण्डहर बन गये। हर तरफ अफरातफरी-सी मच गई। गाँव के भोले-भाले लोगों को कई दिन कुछ भी समझ नहीं आया। फिर जब घरों में मीटिंग होने लगी तो हर कोई आज़ादी के सपने लेने लगा। जो भी थोड़ी-सी जुबान खोलता या विरोध करता सवेरे लोग उसकी लाश किसी-ना-किसी दरख्त से लटकती देखते। फिर जैसे लोगों ने अपने होंठ सी लिए।

एक सुबह जब ताजा बशीर को जगाने गई तो उसके होश उड़ गए। बशीर बिस्तर में नहीं था। उसने माथा पीटते हुए रुसले को कहा-

“बशीर बिस्तर में नहीं।”

“नहीं जाता कहीं वो, गया होगा नाले पर, मुँह हाथ धोकर आ जायेगा।”

पर बशीर वापिस नहीं आया। किसी ने रुसले को आकर बताया, बशीर तो सरहद पार चला गया। ताजा की दुनिया ही उजड़ गई। उसके हिस्से में अब जैसे रोना ही आ गया था। वो अब दिन-रात बेटे की जुदाई में आँसू बहाती। बेटे के बिछड़ने ने उसको अधमरी कर रखा था।

सुबह हुई तो सारा गाँव क्रैकडाऊन में था। फोर्सेस को इत्तलाह थी कि एक बड़ा ग्रुप सरहद पार कर गया है। सारे लोगों को स्कूल के आँगन में इकट्ठे किया गया और जिन-जिन के बच्चे सरहद पार कर गये थे, उनको एक तरफ करके वो मार दी गई कि रहे नाम साई का। रुसला भी इस जद में आ गया। जिसको ना दीन का पता ना दुनिया का। कई दिन वो बिस्तर में से उठ ना सका। ताजा उसका गर्म टकोरें करती रहती।

गाँव में एक चहल-पहल जैसी लगी रहती। फोर्सेस का क्रैकडाऊन उठता और अनजाने व्यक्ति आ घुसते। अनजाने लोगों की नित नई टोलियाँ आती रहतीं। इधर उनका बँटवारा होता, हर किसी टोली के लिए दिशा-निर्देश लागू होते। लम्बी-लम्बी दाढ़ियों वाले नित्य हुक्म चढ़ाते। गाँव में हर शाम हर घर में पाँच-छ: आदमियों के लिए रोटी बनती। हर ग्रुप का आदमी उनके साथ होता।

आज भी एक ग्रुप रुसले के घर आया। अलग-सा दिखने वाला उनका लीडर था। ताजा इन्हीं मूंछफटों में अपने बशीर को ढूँढ़ने की कोशिश करती। इन्हीं मूंछफटों ने रुसले को बताया यह हमारा लीडर है। यह कश्मीरी नहीं बोलता। रुसले ने खूब उसकी सेवा की। फिर मूंछफटों ने बताया कि हमें पौ फूटने से पहले की कूच कर जाना है। रुसले ने उन सबों के लिए बिस्तर किए। वो सारे ही थकने के कारण गहरी नींद में चले गये। ताजा कितनी देर उन मूंछफटों में अपने बशीर के चेहरे को निहारती जैसे उसका अंदर लहूलुहान हो गया है। अब उसको बशीर के सपने भी नहीं आते हैं। वो बशीर की शक्ल ही जैसे भूल गई थी।

ताजा फिर धीरे-धीरे घर के काम-काज में व्यस्त हो गई थी। पर उसके मुँह की लाली जैसे उड़ गई थी। उसका काँपता शरीर जैसे नारियल-सा हो गया था। वो जैरे हर शह से मुँह मोड़ चुकी थी। रुसला भी अब सारा दिन अपने आँगन में चिल्म पीता रहता। वो अब खेतों पर कम ही जाता।

एक दिन तपती दोपहर को गाँव गोलिरों से गरज पड़ा। हर कोई जहां था, वो वहीं ही रह गया। ताजा अंदर छिप गई। फौजी कैम्प में फिदाइन आ घुसे थे। पता नहीं कितनी देर गोलाबारी होती रही। गाँव में कोहराम मच गया। जब गोलिरों की दनदनाहट ठंडी पड़ी तो सारे गाँव में अफरा-तफरी मच गई। हर कोई अपने-अपने आदमियों को ढूँढने लग पड़ा। सारे गाँव का क्रैकडाऊन किया गया। गाँववासियों पर जैसे मुसीबत आ गई। ताजा को जब होश-सी आई तो वो बाहर रुसले को ढूँढने लग पड़ी, पर रुसला तो कहीं भी नहीं था।

वो गली के बाहर निकली। रुसला हाजी के मकान के साथ टेक लगाकर बैठ गया था। ताजा ने जब उसको उठाने की कोशिश की तो वो ढेर हो गया। वो ठंडा हो गया था। ताजा की जान निकल गई। वो दहाड़ मारती रुसले के साथ लिपट गई। जब उसको रुसले की लाश से अलग किया गया तो वो ठहाके मार-मारकर हँस रही थी। उसकी लटें बिखर गई थीं। वो ठहाके मारती हुई गाँव से बाहर हो गई और कब्रिस्तान की तरफ भाग गई।

मैं कितने वर्षों बाद घर आया हूँ। ताजा का घर शमशान बन गया था। मेरा दिल नहीं किया कि मैं ताजा के घर की तरफ देखू। माँ ने बताया ताजा बावरी हो गई है। कई-कई दिन कब्रिस्तान में ही रहती है। ताजा को देखने की अब मेरी कोई चाहत नहीं रह गई थी।

एक दिन जब ताजा पानी के लिए कुएँ पर गई थी तो एक लम्बी दाढ़ी वाले ने रुसले को आकर बताया कि बशीर सरहद पार करते समय शहीद हो गया था। तन्ज़ीम ने तेरे लिए यह कुछ पैसे और मुकद्दम किताब भेजी है। लम्बी दाढ़ी वाले ने आधे पैसे अपनी जेब में रख लिए और आधे रुसले को पकड़ा दिये। रुसला फैली हुई आँखों से कभी लम्बी दाढ़ी वाले की तरफ कभी मुकद्दम किताब की तरफ देखने लग पड़ा। वो बुत्त बन गया। लम्बी दाढ़ी वाले ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और बशीर की आत्मा की शांति के लिए दुआ माँगी और चला गया।

ताजा को देखते ही रुसले की रुलाई फूट पढ़ी। ताजा के कानों में जब बशीर की शहादत की बात पड़ी तो वो बेहोश होकर गिर पड़ी। कई घंटों तक उसको होश नहीं आई। आस-पड़ोस सारा इकट्ठा हो गया। दूसरे दिन जाकर ताजा के जिस्म में हलचल-सी हुई। वो कई दिन तक बेसुध बिस्तर में पड़ी रही। बशीर उसकी दुनिया ही उजाड़ गया था। उसके सपनों को चूर-चूर कर गया था। वो जब भी सोती, बस बशीर आँखों के सामने आ जाता। कभी उसको घोड़े चढ़ा देखती, कभी बीवी का यूँघट उठाते। आँख खुलती तो हर तरफ वीराना ही वीराना दिखता। घर-बाहर उजाड़ ही उजाड़ दिखता तो वो मुँह फेर लेती।

एक दिन वो भी आया जब बस्ती में फौजियों ने आकर डेरे जमा लिए। पुल और स्कूल बन गये। अनजान आदमियों की नकलों हरकत कम हो गई। ताजा के घर के दायें तरफ फौजियों का कैम्प लग गया। एक दिन फौजियों ने सारे गाँव के मर्दो को ग्राऊण्ड में जमा करके घर-घर तलाशी लेना शुरू कर दी। एक फौजी जो तलाशी वाली पार्टी के साथ था, जब उसकी नज़र ताजा पर पड़ी उसकी नीयत बदल गई। उसको जब भी मौका मिलता वो ताजा के घर तक फेरा मार आता। एक रात उसकी ड्यूटी पहरे पर थी। उसने अपने साथी को ड्यूटी पर रखा और खुद ताजा के घर आ गया। उसने ताजा की इज्जत को तार-तार कर दिया। ताजा के गले में जैसे कोई चीज़ अटक गई थी। उसकी चीखें उसके गले में फंसकर रह गई हैं। वो ना जीने के लिए थी और ना ही मरने के लिए। फौजी ड्यूटी पर वापिस आ गया था। रुसला सुबक-सुबक कर रोई जा रहा था। वो कमरे में से बाहर आया। ताजा को दिलासा दी। होठ बंद रखने की ताकीद की। फिर वो ताजा के गले लगकर सुबक-सुबक कर रोने लग पड़ा। वे सारी रात रोते रहे।

फिर सूरज चढ़ा मरियल-सी धूप लेकर। जैसे उसका सारा रस कोई चूसकर ले गया हो। जैसे उसकी तपश को कोई उधार ले गया हो। ताजा बिस्तर में से नहीं निकली। उसको जैसे लकवा मार गया हो। रुसले ने खुद चूल्हे में आग जलाई। चाय बनाई, एक प्याली खुद पी एक ताजा के सिरहाने रखी। पर ताजा जैसे सब ओर से बेमुख हो गई हो। वो कितने दिन ऐसे ही बिस्तर में पड़ी रही। रात बढ़ने के साथ वो भी अपने बिस्तर में गई। उसकी आँखों के सामने आज सारी रात बशीर ही रहा। उसकी आँख पूरी रात गये लगी। उसने बशीर को सपने में देखा। उसे लगा जैसे बशीर किसी दलदल में फंस गया है और वो इस दलदल में से निकलने की असफल कोशिश कर रहा है। वो चीख-चीख कर अपने अब्बू की तरफ बाजू फैला रहा है,

“अब्बू मुझे बाहर निकालो, अब्बू मुझे बाहर निकालो।”

रुसला उसे बार-बार इस दलदल में से बाहर निकालने की कोशिश करता, पर बशीर उसके हाथों में से फिसल-फिसल जाता। वो और ज़ोर से चीखता है,

“अम्मा अब्बू…..बाहर निकालो।”

परन्तु जितनी बार उसका अब्बा उसे दलदल में से बाहर निकालने की कोशिश करता, बशीर और दलदल में धंसता जाता। दूसरे कमरे में शोर जैसा पड़ा और ताजा की आँख खुल गई। उसका गला भर आया। बशीर तो कहीं भी नहीं था। फिर उनके कमरे की साँकल खटकी। रुसला उठ खड़ा हुआ। एक मूंछफट ने आकर कहा- हमारे कमाण्डर की तबीयत खराब हो गई है वो आज इधर ही रहेगा। इसलिए तुम हमारे साथ गाँव के बाहर तक हमें रास्ता दिखाने ले चलो। रुसले ने फिरन पहना, सिर पर टोपी रखी और उनके साथ चल पड़ा। ताजा बिस्तर में ही लेटी रही। फिर उसके कमरे का दरवाजा खुला, ताजा ने सिर उठाकर देखा! कमाण्डर कमरे में आ घुसा था। ताजा उठने लगी, कमाण्डर ने लेटे रहने का इशारा किया। ताजा भयभीत हो गई। ताजा का गला जैसे किसी ने दबोच लिए। उसके होंठ जैसे सिल गये। ताजा पत्थर बनी जहर पीती रही। फिर कमाण्डर अपनी सलवार का नाड़ा बांधता हुआ दूसरे कमरे में चला गया। ताजा का अंदर-बाहर चिल्ला उठा। उसको लगा जैसे उसके शरीर में किसी बुरी आत्मा ने प्रवेश कर लिए है। वो ज़ोर-ज़ोर रोई। रुसले ने जब सारी बात सुनी तो उसने ताजा को अपने सीने से लगा लिए और चुप रहने की सलाह दी। रुसले ने चिल्म भरी तम्बाकू के मोटे-मोटे कश भरे। जैसे वो अपनी सारी शराफत को एक बार चिल्म में ही पी जाना चाहता था। वो बुड़बुड़ाया,

“पता नहीं कैसा वक्त आ गया, बस होंठ सी कर रखो?”

कमाण्डर किसी ओर तरफ चला गया था।

सूरज निकल आया था। पर ताजा को लगा जैसे सूरज में आज वो तपश ही नहीं रही। जैसे वो तपश कहीं से उधार लेकर आया हो। ताजा उदास-सी रहने लगी। चुप-चुप मुरझाई-मुरझाई। रुसला अब घर ही रहता। जब कभी भी उनके घर कोई नई टोली आती, रुसला खुद उनके लिए रोटी-पानी ले जाता। ताजा को जैसे उनके साथ घृणा हो गई थी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’