bhullan chacha connaught circus dekhne gaye
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Kids story in hindi: भुल्लन चाचा को हुल्लारीपुर गाँव से हमारे घर आए बहुत दिन हो गए थे। पर दिल्ली अभी तक उनके लिए अनजानी ही थी। बस, सरोजिनीबाई कॉलोनी का एक झूले वाला पार्क था, जहाँ वह सुबह-शाम हो आया करते थे।

पार्क अच्छा था। रंग-बिरंगे बूटों वाली एक खूबसूरत हरियाली चादर लपेटे हुए। बड़ा खुशनुमा पार्क। वहाँ सब दिन बच्चों की रेल-पेल और चिल्ल-पों सी मची रहती। चिड़ियों की चहकन भी। और इधर कुछ दिनों सेतो बात-बेबात टों-टाँ करते तोतों की एक शरारती मंडली भी वहाँ आकर जम गई थी। मनोरंजन का पूरा सामान। पर जाने क्यों, भुल्लन चाचा कुछ ऊबने से लगे थे।

अकसर मैं और गौरी दीदी उनके साथ होते। हम दोनों उनका मन लगाने की बहुत कोशिश करते थे। पर भुल्लन चाचा तो अभी तक जैसे गाँव में ही थे। गाँव की गलियाँ, सड़कें, कच्चे-पक्के घर। गाँव की ओस की बूँदों में नहाई हँसती-गाती हरियाली। वहाँ की धींगामस्ती, रौनक-मेला। खूब बड़ा सा तालाब और उसके किनारे खड़ा बरगद का बड़ी-बड़ी जटाओं वाला विशाल पेड़। और सबसे बढ़कर, वहाँ सुबह-शाम की राम-जुहार और हँसी-दिल्लगी।…”

सब कुछ उन्हें याद आता। बार-बार याद आता, और वे कुछ उदास होकर कहते, “अरे भई नीलू, गाँव की तो बात ही कुछ और है। फिर हमारा गाँव हुल्लारीपुर। आहा हा! वहाँ की तो बात ही मत पूछो। तुम हाथ में दीया लेकर तीन लोक घूम आओ, पर हुल्लारीपुर …! उसका तो कोई जवाब नहीं!”

मैंने पापा से कहा तो वे हँसकर बोले, “अगले इतवार को छुट्टी होगी तो भुल्लन को कनाट सर्कस घुमा लाऊँगा। थोड़ा सा तो उसका मन बदलेगा।”

बात मुझे और गौरी दीदी को भी अच्छी लगी। मैंने भुल्लन चाचा को बताया कि जल्दी ही हम कनाट सर्कस घूमने जाएँगे। सुनकर वे खूब खुश हुए। किलककर बोले, “सच्ची नीलू, फिर तो बहुत मजा आएगा।…”

इस बीच पापा ने भी तरंग में आकर भुल्लन चाचा के दिल का तार छेड़ दिया। बोले, “भुल्लन, अभी तुमने दिल्ली देखी कहाँ है? चलो, इस बार तुम्हें कनाट सर्कस दिखाएँगे।”

सुनकर भुल्लन चाचा के भीतर बड़ी गुदगुदी सी होने लगी। सच्ची पूछो तो उनके मन में जाने कब से छिपी हुई इच्छा थी कनाट सर्कस देखने की। बरसों से नाम सुनते आए थे दिल्ली के कनाट सर्कस का, कि उसका तो दुनिया की किसी चीज से मुकाबला ही नहीं। और लो जी, अब वह देखने को भी मिल रहा है। इसे कहते हैं किस्मत…!

सो ललककर बोले, “हाँ-हाँ, भैया, मैंने भी दिल्ली के कनाट सर्कस का बड़ा नाम सुना है। गाँव में भी लोग कहते थे कि भुल्लन, दिल्ली जा रहे हो तो कनाट सर्कस जरूर देखना। … अच्छा रहेगा, इस इतवार को बना लीजिए प्रोग्राम।”

“हाँ, सोचता हूँ, इस इतवार को सब लोग चलें। इसी बहाने थोड़ा बाहर निकलना हो जाएगा।” पापा मुसकराए।

मगर एक-एक कर कई इतवार निकल गए। पापा दफ्तर के काम में व्यस्त थे। रात को देर देर से घर आते। छुट्टी वाले दिन के लिए भी साथ काम बाँध लाते। सो भुल्लन चाचा को कनाट सर्कस दिखाने का प्रोग्राम बन ही नहीं पा रहा था।

बेचारे भुल्लन चाचा कुछ उदास से हो गए। एक-दो बार मुझसे और गौरी दीदी से कह भी चुके थे, “देखो, दिल्ली आए हुए इतना समय हो गया। मगर कनाट सर्कस तो देखा ही नहीं। मेरा भी कैसा भाग्य है …! भाई साहब को समय ही नहीं मिल पा रहा। … अब मैं गाँव जाऊँगा तो लोगों से क्या कहूँगा? वहाँ सब पूछेंगे कि भुल्लन दिल्ली गए थे, तो कनाट सर्कस देखा कि नहीं?”

मैंने थोड़ा दिलासा देते हुए कहा, “भुल्लन चाचा, पापा अभी कल ही तो कह रहे थे कि भुल्लन को कनाट सर्कस दिखाना है, पर काम से फुरसत मिल ही नहीं पा रही। शायद अगले हफ्ते चल पाएँ।”

गौरी दीदी बोली, “बस भुल्लन चाचा, आप मन बना लीजिए। मैं और निक्का भी पापा के कान खाएँगे। कचर-कचर… कचर-कचर। आखिर तो उन्हें चलना ही पड़ेगा। सच्ची चाचा, आपके साथ-साथ कनाट सर्कस देखने में खूब मजा आएगा।”

सुनते ही भुल्लन चाचा की मुरझाई हुई आशा की बेल फिर से हरी हो गई। खुश होकर बोले, “गौरी, तेरे मुँह में घी-शक्कर…!”

“ना जी ना, मैं नहीं खाती घी-शक्कर …!” गौरी दीदी ने हँसकर भुल्लन चाचा को मुँह चिढ़ाया और खिक-खिक करके भाग गई …

मगर गौरी की बात सच निकली। सच्ची-मुच्ची अगले हफ्ते मुहूर्त निकल ही आया। इतवार को सुबह-सुबह पापा ने मुसकराते हुए कहा, “चलो भुल्लन, तैयार हो जाओ। आज चलते हैं कनाट सर्कस देखने।”

सुनते ही भुल्लन चाचा की खीसें निकल गईं। कोई डेढ़-दो फुट उछलकर बोले, “सच्ची भैया, सच्ची…?” और वे चिल्ला-चिल्लाकर पूरे घर को बताने लगे, “कनाट सर्कस देखेंगे जी, कनाट सर्कस। आज आएगा मजा…!”

भुल्लन चाचा का उत्साह देखकर पापा को भी मजा आ गया। उन्होंने हँसते हुए मुझसे और गौरी से भी कहा, “तुम लोग भी झटपट तैयार हो जाओ। मम्मी से भी कह दो।”

मम्मी खुश। उन्हें इस बात की भी खुशी थी कि चलो, आज भुल्लन भी देख लेगा। कई रोज से कह रहा है, कि मुझे भी कनाट सर्कस देखना है।

जल्दी-जल्दी सबने नहा-धोकर नाश्ता किया। फिर कनाट सर्कस की तैयारी। मम्मी बोलीं, “मैं थोड़ी पूरियाँ और आलू-मैथी की सब्जी बना लेती हूँ। वहाँ सेंट्रल पार्क में बैठकर खाएँगे तो अच्छा लगेगा। मैथी की तो महक ही दिल को खुश कर देती है।”

गौरी दीदी बोली, “रहने दो मम्मी, वहीं चाट खाएँगे।”

पर पापा बोले, “ज्यादा चाट-पकौड़ी खाओगे तो गला खराब होगा। घर से पूरियाँ लिए जाते हैं। वहाँ भी कुछ ले लेंगे।”

यह सलाह सबको जँच गई। और मम्मी पूरी-सब्जी बनाने में लीन हो गईं। भुल्लन चाचा को कनाट सर्कस देखने की इस कदर उत्सुकता थी कि सोचा, ‘कहीं ज्यादा देर न हो जाए। मैं भाभी की मदद कर देता हूँ, ताकि जल्दी से पूरियाँ सिक जाएँ।’

सो पूरियाँ सेंकने में उन्होंने पूरी मदद की। फिर गरम-गरम पूरियाँ पैक की गईं। आलू-मैथी की जायकेदार सब्जी और खुशबुएँ छोड़ता आम का अचार भी, जो भुल्लन चाचा को सबसे ज्यादा पसंद था। हर काम में भुल्लन चाचा का उत्साह देखने लायक था।

*

आखिर सारे काम निबटे और पापा की कार में बैठकर सब लोग चल पड़े। खुशी सबको थी, पर भुल्लन चाचा की तो बात ही क्या थी! उनकी बाँछें खिली पड़ती थीं। वे पूरी तरह खयालों की दुनिया में थे और मन ही मन कनाट सर्कस की बड़ी कौतुकपूर्ण कल्पना कर रहे थे। बीच-बीच में जोश में आकर कुछ भी अटरम-पटरम गुनगुनाने लगते। आज उनका सदाबहार आशु कवि जाग गया था। सो बड़ी विचित्र कविता की लाइनें हवा में नाचने लगीं-

अहा रे अहा, अहा रे अहा,

मेरे मन ने कहा, हाँ जी, मन ने कहा,

चलेंगे, चलेंगे, हम सब ही चलेंगे,

कनाट सर्कस चलकर हल्ला करेंगे …!

क्यों जी, भुल्लन जी?

हाँ जी, भुल्लन जी…!

आहा, भुल्लन जी!!…

उनके भीतर रह-रहकर खुशी का गुब्बारा फूल रहा था। फूलता ही जा रहा था। बार-बार हवा में गोते लगाते हुए सोच रहे थे, ‘सब इतनी तारीफ करते हैं कनाट प्लेस की और आज तो मैं भी उसे देखूँगा। बस, थोड़ी देर की ही बात है। चलो, दिल्ली आने का एक तो फायदा हुआ। इतना मशहूर सर्कस देखने को मिल गया। लोग कहते हैं, सारी दुनिया में मशहूर है। बड़े-बड़े अंग्रेज भी देखने आते हैं। और खाली अंग्रेज ही क्यों? चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी और अमरीका के लोग भी।… अरे भई, क्यों न होगा? चीज ही ऐसी है। और फिर दिल्ली देश की राजधानी जो ठहरी। जो चीज दिल्ली में है, उसका तो सारी दुनिया में हल्ला होगा ही।’

कहते-कहते उन्हें शहर की सालाना नुमाइश में देखा हुआ अपोलो ग्रैंड सर्कस याद आ गया, जिसमें पहली बार उन्होंने मौत का कुआँ देखा था। साथ ही हाथी और शेर के बड़े ही अनोखे करतब। जोकर और छुरियों वाला रोमांचक खेल भी। सोचने लगे, ‘वो भी ठीक था, मगर यों तो जी, सर्कस बहुतेरे हैं, अपोलो सर्कस, ग्रेट इंडियन सर्कस, ग्रैंड एशिया सर्कस … और भी न जाने कौन-कौन से! बहुतों के तो नाम भी याद नहीं हैं। पर कनाट सर्कस की तो बात ही क्या है। इसका तो चारों तरफ नाम है। पूरी दुनिया में मशहूरी…!’

फिर उमंग में आकर अपने आप से बोले, ‘हो सकता है, आज भी कुछ विदेशी लोग भी कनाट सर्कस देखने आए हों। तो सर्कस देखते-देखते उनको भी नजदीक से देख लूँगा। सुना है, खूब लंबे, छरहरे होते हैं, और एकदम गोरे। लाल-लाल गाल। … आज तो मुझे भी बिल्कुल नजदीक से सारी चीजें देखने का मौका मिलेगा। कितना मजा आएगा। लौटकर गाँव के अपने दोस्तों को बताऊँगा तो वे हैरान रह जाएँगे। उन लोगों ने तरह-तरह के सर्कस देखे होंगे, पर भला कनाट सर्कस किसने देखा होगा?’

भुल्लन चाचा कार की खिड़की के पास ही बैठे थे। रास्ते भर गरदन इधर-उधर नचाकर देखते रहे, कनाट सर्कस आया कि नहीं? सोच रहे थे, बड़े से परदे पर हाथी, शेर और न जाने कौन-कौन से जानवर बने होंगे, खेल दिखाने वाले पोज में। हाथी सूँड़ उठाकर सरपट भागता हुआ। शेर बिजली की सी फुरती से छलाँग लगने को तैयार।… और परदा भी ऐसा-वैसा नहीं, बड़ा शानदार होगा। एकदम सिलवर स्क्रीन। या फिर हो सकता है, फोर कलर में हो। शानदार।… फिर वैसा ही आलीशान तंबू भी, जिसके भीतर खेल दिखाया जाएगा।…पर, जाने क्या बात है, अभी तक परदा तो दिखा ही नहीं। वैसा बड़ा-बड़ा तंबू भी नहीं है।

भुल्लन चाचा कुछ अधीर होने लगे। गरदन उचकाकर बोले, “अभी तक आया नहीं कनाट सर्कस भाईसाहब?”

पापा हँसकर बोले, “अरे भुल्लन, थोड़ा सबर करो। कनाट सर्कस आया ही जाता है। कनाट सर्कस कोई जादू वाली चिड़िया थोड़े ही है कि हमारे वहाँ जाते ही उड़कर गायब हो जाए!”

सुनकर भुल्लन चाचा झेंप गए। बोले, “ना-ना, इतना बड़ा सर्कस….! कोई पलक झपकते थोड़े ही ना छूमंतर हो जाएगा?”

और लो जी, थोड़ी देर में ही पापा की कार में हम सब कनाट सर्कस पहुँच गए।

वहाँ पहुँचते ही गौरी दीदी और मैंने जोर से ‘हुर्रे…!’ करके कनाट सर्कस का स्वागत किया। पर भुल्लन चाचा…? वे तो चुप, एकदम चुप थे। शांत। शायद उनका कनाट सर्कस अभी नहीं आया था।

गाड़ी पार्क करके हम सब लोग चल पड़े पालिका बाजार के ऊपर बने सदाबहार पार्क में, जहाँ इस समय रंग-रंग के गुलदाउदी और पैंजी के फूलों की बहार थी। मस्त मस्त गेंदे के फूलों की क्यारियाँ भी थीं। और हाँ, बोगनबेलिया के बड़े-बड़े झाड़…! सफेद, लाल, पीले, गुलाबी, हर रंग के बोगनवेलिया। बड़े ही खूबसूरत और शरारती। हवा से ठिटोली करते हुए। लगता था, जैसे होली के गुलाल के बड़े-छोटे पहाड़ हों सामने। देखकर मेरा और गौरी दीदी का दिल खुश हो गया।

गौरी तो उन्हें देख-देखकर उछल रही थी। उसने भुल्लन चाचा का कंधा झिंझोड़कर कहा, “भुल्लन चाचा, भुल्लन चाचा, देखो फूल…! कितने प्यारे-प्यारे …!!”

पर भुल्लन चाचा का ध्यान कहीं और ही था। सामने कुछ बच्चे छुट्टी की तरंग में मगन होकर पतंग उड़ा रहे थे। भुल्लन चाचा की आँखें वहीं अटकी थीं।

पाँच-सात बच्चे। सभी पतंगबाजी में खासे उस्ताद जान पड़ते थे। पर इनमें लंबे कद का एक लड़का हवा में अपनी लाल-बैंगनी पतंग के ऐसे-ऐसे करतब दिखा रहा था कि देखकर आसपास खड़े लोगों ने दाँतों तले उँगली दबा ली। कभी वह पतंग नीचे उतारने लगता तो कभी एकाएक ढील देकर उसे हवा में ऐसे तान देता कि लगता, उसकी पतंग आसमान को जीतने निकली है और वहाँ तक पहुँचकर रहेगी। मगर फिर अचानक वह हवा में डुबकी सी लगा लेती, जैसे देखने वालों को छका रही हो।

पता चला, आज सुबह से सात-आठ पतंगें काट चुका है यह लड़का। पर अभी तक इसकी पतंग का बाल बाँका नहीं हुआ।

सुनकर भुल्लन चाचा खुश। चहककर बोले, “सचमुच पतंग अच्छी उड़ा रहा है यह नीली कमीज वाला लड़का। होशियार लगता है, पर मैं तो इससे भी अच्छी उड़ा सकता हूँ। अगली बार अपन आएँगे तो मैं अपनी भी हुचकी और पतंग लेकर आऊँगा। … पर इस बार हम पतंग उड़ाने थोड़े ही ना आए हैं। अब की तो बस कनाट सर्कस देखेंगे।”

पास ही लंबी दाढ़ी वाला एक बूढ़ा आदमी प्लास्टिक की उड़ने वाली रंग-बिरंगी चिड़ियाँ बेच रहा था। उनमें से एक चिड़िया उसके सिर के चारों ओर गोल-गोल घूम रही थी। देखकर लोग हैरान। आसपास से गुजरते कई लोग ठिठककर खड़े हो गए। चिड़ियाँ बेचने वाला अपनी मस्ती में चिड़िया उड़ाने में लीन था। पर सवाल तो यह था कि चिड़िया उड़ कैसे रही है?

लोग यह राज जान पाते, इससे पहले ही उस दाढ़ी वाले बूढ़े ने एक और करतब किया। उसने अपने झोले में से नीले रंग का हवाई जहाज निकाला और उसमें न जाने कैसा मंतर मारा कि लो जी, वह भी उड़ने लगा। जैसे चिड़िया उड़ रही थी, वैसे ही हवाई जहाज। दोनों झू-झू का अजीब सा गाना गा हुए उसके सिर के चारों ओर गोल-गोल चक्कर काट रहे थे। आगे-आगे चिड़िया, पीछे हवाई जहाज।

अजीब छुआ-छाई वाला खेल था। पर मजे की बात यह कि चिड़िया और हवाई जहाज दोनों एक-दूसरे को छू भी नहीं पा रहे थे। बस, वे आगे-पीछे उस बूढ़े की परिक्रमा कर रहे थे, करते ही जा रहे थे। …

और बूढ़ा खिलौने वाला अपने इकतारे पर ‘तिनक-तिनक तिन’ करके, इस पूरे खेल का आनंद ले रहा था। कभी-कभी दर्शकों की ओर देखकर बड़े कौतुक भरे अंदाज में कहता, “देखो-देखो, हवाई जहाज चिड़िया को पकड़ने जा रहा है। लो, बस अभी पकड़ा, अभी पकड़ा… अभी…! जरा दिल थामकर देखना।”

इस पर किसी और ने दिल थामा हो या नहीं, पर भुल्लन चाचा ने जरूर थाम लिया। और आँखें उस दृश्य पर ऐसे टिका दीं, जैसे गोंद से चिपक गई हों।

उन्हें यों टकटकी लगाए देख, उत्सुकता के मारे सबकी आँखें वहीं जम गईं। कमाल यह था कि हवाई जहाज चिड़िया के पास पहुँचता तो था, पर दोनों आपस में टकराते नहीं थे और वे घूमे जा रहे थे, गोल-गोल, गोल-गोल …!

देखकर भुल्लन चाचा हैरान। अचानक जोश में आकर, हवा में दोनों हाथ लहराकर बोले, “कमाल है भाई… कमाल है!”

इस समय हर किसी की निगाह भुल्लन चाचा पर थी। सो उनकी देखा-देखी, वहाँ खड़ी पूरी भीड़ भी हाथ उठाकर चिल्लाई, “कमाल है भाई… कमाल है …!”

यह ऐसा मजेदार नाटकीय दृश्य था कि देखकर बूढ़ा खिलौने वाला ठठाकर हँसा। पास खड़े दर्शक भी हँसने लगे।

*

आखिर भुल्लन चाचा की उत्सुकता देख, पापा ने उन्हें वह जादुई चिड़िया और उड़ने वाला हवाई जहाज दोनों खरीदकर दे दिए। दोनों चीजों के दाम सौ रुपए थे। पर भुल्लन चाचा का साफ इनकार। बोले, “पहले इस चिड़िया और जहाज का भेद क्या है, यह पता चले। तब लूँगा मैं यह चिड़िया भी, जहाज भी।”

इस पर बूढ़े खिलौने वाले ने हँसते हुए उनका रहस्य भी प्रकट कर दिया। एक बिल्कुल पतले से धागे से वह चिड़िया बँधी थी, हवाई जहाज भी। उसी धागे और उँगलियों के कमाल से वे उड़ रहे थे, जिनकी लीला आँखें पकड़ नहीं पा रही थीं। और वह धागा तो इतना बारीक था कि आँखों से कतई नजर नहीं आता था। सो खेल का खेल और जादू का जादू…!

भुल्लन चाचा ने धीरे से सिर हिलाया, जैसे कह रहे हों, यह हुई न बात…!! बूढ़े खिलौने वाले की जादूगरी उन्हें सचमुच भा गई थी।

वहाँ से आगे गए तो हरे कपड़े पहने एक विचित्र आदमी नजर आया। उसके पास ढेर सारे पिंजरे थे। हर पिंजरे में अलग चिड़िया। कुछ देखी-भाली तो कुछ अजब-अनोखी रंग-बिरंगी चिड़ियाँ थीं। एक पिंजरे में तोता भी था। उसके आसपास बच्चे-बड़े सभी की भीड़ थी। वह हँस-हँसकर सबको उन चिड़ियों की खासियतों के बारे में बता रहा था, “देखो जी, यह ललमुनिया है, यह बुलबुल… यह मैना, यह फुलचुक्की …! जरा देखो इसकी चोंच, देखो इसके पंख…! और पता है बेटे, यह क्या खाती है…?”

लोगों की आँखों में उत्सुकता थी। खासकर बच्चों की आँखें तो वहाँ चिपक ही गई थीं। वे जोश में आकर उन चिड़ियों के बारे में बातें कर रहे थे। कुछ पिंजरे समेत असली चिड़िया लेने के लिए मोल-भाव भी कर रहे थे।

गौरी दीदी ने भी तोता लेने की जिद की। पर मम्मी ने समझाया, “तोते को पिंजरे में डालकर रखो तो तोता खुश थोड़े ही ना होता है। अंदर ही अंदर तो उसका दिल रोता है ना। अपनी खुशी के लिए किसी को तंग करना अच्छी बात है क्या?”

इतने में पापा का ध्यान गया, भुल्लन नजर नहीं आ रहा है। परेशान होकर बोले, “भुल्लन किधर निकल गया? दिखाई नहीं पड़ रहा। … यही तो मुसीबत है। घर से चलते हुए कितनी बार समझाया था कि सब लोग साथ ही रहना। कोई अकेला इधर-उधर न निकल जाए। … अब कहाँ ढूँढू उसे? वैसे भी मस्तोड़ा है। जिधर दिल करे, निकल पड़ता है…!”

मम्मी बोलीं, “न-न, आप परेशान मत होइए। वह समझदार लड़का है। कहीं आसपास ही होगा, अभी नजर आ जाएगा।”

पापा ने आसपास आँखें दौड़ाईं तो भुल्लन चाचा पकड़ में आ गए। वे आँखों पर दूरबीन लगाए, पार्क में दूर-दूर के दृश्य देख रहे थे और खुश हो रहे थे। बीच में कभी-कभी वे आसमान के तारों पर भी अपनी आँखें टिका देते।

दूर से भुल्लन चाचा की यह अजब अदा देख, पापा चकराए। वे पास गए तो पता चला कि एक आदमी दूरबीन बेच रहा है। उसी ने भुल्लन चाचा को उलझा लिया है। भुल्लन चाचा आँखों पर दूरबीन लगाए, गरदन घुमा- घुमाकर चारों ओर देख रह हैं और उस दूरबीन वाले की कमेंटरी चालू है, “लीजिए, साहेबान!…खुद अपनी आँखों पर लगाकर देखिए यह नायाब दूरबीन। इसकी खासियत यह है कि दूर- दूर की चीजें नजर आ जाती हैं। आप अगर चाहें तो यहीं से दिल्ली का लाल किला नजर आ सकता है और जंतर-मंतर भी…!”

“भैया, कुतुब मीनार भी इससे नजर आ जाती है क्या? हमने कुतुब मीनार देखी नहीं है। तुम हमें दिखा दोगे भाई दूरबीन वाले!” एक छोटी बच्ची उस दूरबीन वाले से कह रही थी।

“और भैया, हमने तो चारों ओर नजरें घुमाकर देख लिया, कहीं दिल्ली का लाल किला नहीं दिखा। दूरबीन तुम्हारी अच्छी है, पर माफ करना भाई, इससे लाल किला नहीं दिखता। वरना मुझे दिखाना तो भाई, कहाँ है लाल किला…?” भुल्लन चाचा ने भी बच्ची के सुर में सुर मिलाते हुए कहा।

सुनकर लोग हँस रहे थे। और वह दूरबीन वाली थोड़ा खिसिया गया था। बोला, “ऐसे ही थोड़ा दिखेगा लाल किला? थोड़ी ऊँचाई पर खड़े होओगे, तब नजर आएगा लाल किला।”

दूरबीन वाला भुल्लन चाचा और उस बच्ची की बातों को नजरअंदाज करने की भरसक कोशिश कर रहा था। इस पर भुल्लन चाचा तो किसी तरह चुप हो गए। पर उस बच्ची के मन में कुतुब मीनार देखने की उत्सुकता इतनी अधिक थी कि वह पूछे बिना नहीं रह पा रही थी। बोली, “कुतुब मीनार तो बड़ी ऊँची-ऊँची है भैया!… तो फिर वह तुम्हारी दूरबीन से दिखाई क्यों नहीं देती?”

खीजकर उस दूरबीन वाले ने अपनी दरबीन ली और थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया। वहाँ फिर उसका सुर चालू, “भैया, अगर तुम चाहो तो यहीं से दिल्ली का लाल किला दिखा सकती है यह दूरबीन …! केवल सौ रुपए में एक दूरबीन है। अगर दो लोगे तो डेढ़ सौ रुपए में दो दूरबीन दे दूँगा। देखो भाई, देखो दूरबीन का कमाल, साइंस का धमाल… .!”

इस सबसे बेपरवाह कुछ विदेशी मिलकर गाना रहे थे। पास ही एक लड़का मगन होकर गिटार बजा रहा था और आसपास के लोग सुन रहे थे। कुछ लोग पैसे भी दे रहे थे। वह चुपचाप पैसे अपनी जेब में रख लेता और फिर उसी तरह गिटार बजाने में लीन हो जाता। जैसे खुद अपने ही सुरों में खो गया हो।

कुछ आगे खूब बड़ा सा मखमली लान था। जैसे हरा गलीचा बिछा दिया गया हो। बहुत से लोग लॉन पर बैठे थे। कुछ लेटकर धूप का आनंद ले रहे थे। एक फल वाली स्त्री संतरे और केले बेच रही थी। पास ही एक चाट वाला था, जो आवाज लगाकर खूब जायकेदार गोलगप्पे बेच रहा था। और वहाँ बच्चों की अपार भीड़ थी।

एक औरत अपने छोटे बच्चे को साथ लिए सात गुब्बारों का गुच्छा बेच रही थी। उसके साथ चल रही दूसरी औरत पीं- पीं करती गुड़िया और वाटर बॉल बेच रही थी। दूर तक उसकी आवाज गूँज रही थी, “वाटर बॉल…वाटर बॉल…! देखो-देखो, वाटर बॉल… जादू वाली वाटर बॉल…!”

कुछ आगे पानी पर दौड़ने वाली रेलगाड़ी का कमाल था। उसके इर्द-गिर्द ढेर सारे बच्चे इकट्ठे होकर तालियाँ बजा रहे थे। और रेलगाड़ी गोल-गोल, गोल-गोल पटरियों पर दौड़े जा रही थी। यहाँ तक कि ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर भी। बीच-बीच में अचानक उसकी सीटियों की आवाज मन को मोह लेती।… बड़ा ही दिलखुश नजारा था।

इतने सारे दृश्य…! देख-देखकर भुल्लन चाचा मुग्ध थे। जैसे किसी और दुनिया में आ गए हों। दिल को लुभाने वाली इतनी सारी चीजें। एक से एक सुंदर और रंग-बिरंगी। भुल्लन चाचा इतने खुश कि कभी-कभी बिल्कुल छोटे बच्चों की तरह उचक-उचककर देखने लगते थे। और कभी-कभी तो खुश होकर तालियाँ पीटने लगते।

यों कनाट सर्कस पहुँचकर हम सब खूब मस्ती से घूमे-फिरे और छुट्टी का पूरा आनंद लिया। पर लगा, भुल्लन चाचा थोड़ी उलझन में हैं। उनके भीतर शायद कोई और ही चक्की चल रही थी। इसलिए बीच-बीच में एकदम चुप्प-धुप्प हो जाते।

हम समझ गए कि जरूर भुल्लन चाचा कुछ कहना चाहते हैं, मगर कह नहीं पा रहे हैं। शायद बाद में मौका देखकर कहें।…

अब तक सभी को थोड़ी थकान सी हो गई थी। मम्मी की तो इतनी देर में ही साँस फूल गई। एक जगह हरियाली थी। वे वहाँ अखबार बिछाकर बैठ गईं तो साथ ही निक्का और गौरी भी। पापा बोले, “चलो, ठीक है। कुछ देर आराम कर लो, फिर आगे चलते हैं।”

मम्मी को याद आया, “अरे, खाना तो खाया ही नहीं। घूमते-घूमते देखिए, ढाई बज गए।… तो अब पहले पूरियाँ खा ली जाएँ।”

चाट वाले से मेरे और गौरी के लिए एक-एक प्लेट दही-बड़े आ गए। भुल्लन चाचा ने आलू की टिक्की ली। साथ में आलू मेथी की सब्जी तो थी ही, और स्वादिष्ट आम का अचार। सबने खाना शुरू किया तो पता ही नहीं चला कि पूरियों का इतना बड़ा पैकेट कहाँ हजम हो गया। सचमुच बड़े जोर की भूख लग आई थी।

पापा बोले, “अच्छा ही हुआ, घर से खाना लेकर आ गए। बाहर घूमते हुए कई बार ज्यादा भूख लगती है। फिर कनाट सर्कस में तो पैदल घूमने का ही आनंद है।”

*

‘कनाट सर्कस …!’ सुनते ही भुल्लन चाचा को जैसे करंट सा लगा। एकदम उछलकर खड़े हो गए। बोले, “अरे, आप लोग बैठ क्यों गए?…? चलिए, चलिए, पहले चलकर सर्कस देख लेते हैं ना!”

“सर्कस …?” गौरी दीदी के मुँह से निकला, तो भुल्लन चाचा एकदम अधीर हो गए। बोले, “हाँ-हाँ, भई, सर्कस ही तो देखने आए हैं हम लोग। आप लोगों ने आराम से बैठकर खाना-पीना कर लिया, घूम-फिर लिए। पर कनाट सर्कस…! अभी कनाट सर्कस भी देखना है कि नहीं? उठिए, उठिए, उठिए जल्दी। कनाट सर्कस देखने चलते हैं। मैं तो खासकर उसी के लिए आया हूँ। बैठकर आराम करना तो बाद में भी होता रहेगा।”

“सर्कस, कौन सा सर्कस…?” पापा को हैरानी हुई।

पर भुल्लन चाचा को उससे भी ज्यादा। “अरे, कमाल करते हैं आप भी…!” भुल्लन चाचा को अब गुस्सा आ गया। बोले, “आप हमें तो कह रहे थे कि कनाट सर्कस देखने चलेंगे, कनाट सर्कस देखने। कनाट सर्कस ऐसा है, वैसा है। अब सर्कस तो दिखा नहीं रहे हैं और ऊपर से कहते हैं कि… यहाँ बैठ लो, वहाँ घूम लो। अरे, यही सब करते रहे तो फिर सर्कस देखने का टाइम कहाँ रहेगा? … फिर अभी टिकट भी तो खरीदना है सर्कस का! बिना टिकट के भला कौन सर्कस देखने देगा?”

इस पर पापा एक पल के लिए तो भौंचक्के ही रह गए। फिर इतने जोर की उनकी हँसी छूटी कि देर तक रुकी ही नहीं। बोले, “भुल्लन, तुम क्या समझे, हम तुम्हें सर्कस दिखाने लाए हैं? जैसे अपोलो सर्कस… ग्रैंड एशिया सर्कस… वगैरह-वगैरह।”

“हाँ-हाँ, और का…? आपने ही तो दस दफा कहा कि भुल्लन, चलो कनाट सर्कस, चलो कनाट सर्कस देखने!… मगर यहाँ तो हमें कहीं भी सर्कस नहीं नजर आता। ना वो मजेदार खेल-तमाशे, जोकर, हाथी, शेर और भालू के करतब…! बड़े-बड़े परदों पर सबके आलीशान फोटू…! अभी तक कहाँ देखे हमने?” भुल्लन चाचा का तमतमाया हुआ उत्तर।

अब तो हम सब हँस-हँसकर पागल हो गए। सबसे बुरी हालत थी मेरी और गौरी दीदी की। कनाट सर्कस का मतलब तो हम भी समझते थे। पर भुल्लन चाचा को समझाएँ कैसे?

भुल्लन चाचा गुस्से में बिफरते हुए कह रहे थे, “ठीक है, नहीं दिखाना चाहते हो तो रहने दीजिए। मैं घर जाकर सबको बता दूँगा कि भैया ने दिल्ली में और तो और, कनाट सर्कस तक नहीं दिखाया।”

पापा ने उन्हें ठंडे मन से पूरा माजरा समझाना चाहा, पर भुल्लन चाचा इतने गुस्से में थे कि कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे।

इस पर मैंने और गौरी दीदी ने बड़े आराम से उनका गुस्सा ठंडा करके बताया कि कनाट सर्कस का मतलब है, यहाँ का गोल-गोल बरांडों वाला एक खास किस्म का बाजार। यहाँ शेर, हाथी और जोकर के तमाशों वाला सर्कस कहीं नहीं है।

“तो यानी कि गोल-गोल है, इसीलिए सर्कस…!” भुल्लन चाचा सिर खुजाते हुए बोले।

“हाँज्जी, भुल्लन बाबू, गोल-गोल है, इसीलिए सर्कस…!” पापा खुलकर हँसे।

हमारी बात भुल्लन चाचा को समझ में आई तो उनकी आँखें मारे अचरज के फैली की फैली रह गईं, “ऐं..! यानी कनाट सर्कस में कोई सर्कस नहीं? कैसी बात करते हो…?”

“सच्ची बात तो यही है भुल्लन चाचा!” मैंने हँसकर कहा।

“तो यानी निक्का, सर्कस माने बाजार…?” भुल्लन चाचा ने झटके से गरदन उचकाई।

“हाँज्जी चाचूजान, सर्कस माने बाजार…!” मेरी और गौरी दीदी की भी तुर्की-ब-तुर्की।

“ओफ्फ, कैसी निखद्द भाषा है अंग्रेजी भी!… एकदम ऊटपटाँग भाषा। पता नहीं लोग इसे क्यों पढ़ते हैं?” कहते कहते भुल्लन चाचा ने मुँह बिचकाया और फिर ऐसे जोर का छतफाड़ ठहाका लगाया, कि आसपास बैठे विदेशी लोग भी चौंककर हैरानी से हम सबको देखने लगे।

उस दिन कनाट सर्कस की सैर में मजे तो बहुत आए, मगर बेचारे भुल्लन चाचा एक बार चुप हुए तो उनकी बोली-बानी फूटी ही नहीं। शाम होने को थी। पापा चलते-चलते जनपथ पर कपड़े खरीदने लगे। तभी उन्हें भुल्लन चाचा का खयाल आया।

“अरे भुल्लन, देखो, यह ग्रे वाली जर्सी तुम्हारे लिए ठीक रहेगी…?” उन्होंने थोड़ा लाड़ से भरकर कहा।

पर भुल्लन चाचा को ग्रे नहीं, बादामी वाली जर्सी पसंद आई, जिस पर हँसता हुआ जोकर बना था, और पंजों पर उचककर अपना कोई करतब दिखा रहा था।

उस जर्सी का पैकेट हाथों में पकड़ते हुए भुल्लन चाचा की फिर से हँसी छूटी। हँसते हुए बोले, “चलो, अच्छी जर्सी मिल गई। अब सबसे कह तो पाएँगे कि कनाट सर्कस में सर्कस तो नहीं मिला, मगर एक जोकर जरूर मिला, उसे हम अपने साथ घर ले आए हैं…”

इस पर पापा-मम्मी ही नहीं, मेरी और गौरी दीदी की भी बड़े जोर की हँसी छूट गई। और भुल्लन चाचा भी कनाट सर्कस में सर्कस न देख पाने का सारा मलाल भूलकर जी खोलकर हँस रहे थे।

ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)