Bhullan Chacha India Gate par
Bhullan Chacha India Gate par

Kids story in hindi: भुल्लन चाचा को अभी दिल्ली आए कुछ ही दिन हुए थे। यहाँ की सरोजिनीबाई कॉलोनी में वे मेरे और गौरी दीदी के साथ दो-चार दिन इधर-उधर टहले और घूमे भी थे। हमारे घर के पास एक बड़ा सा पार्क है, जिसे हम बच्चे झूला पार्क कहते हैं। यहाँ भी उनका कभी-कभार जाना शुरू हो गया था। पर दिल्ली अब भी उनके लिए अनजानी ही थी।

गाँव से वे बड़ी हसरत लेकर आए थे कि हम दोनों के साथ जमकर दिल्ली देखेंगे। ये देखेंगे, वो देखेंगे, वो वो देखेंगे। पर पापा की व्यस्तता का हाल देखा तो कुछ कहते ही न बनता था। हाँ, मेरे साथ घूमने में उन्हें जरूर मजा आने लगा था। मैं उनसे कोई चार-पाँच बरस छोटा था, पर दिल्ली को तो उनसे कहीं अच्छी तरह जानता ही था। घूमने-फिरने का शौकीन भी था। फिर भला मेरे साथ भुल्लन चाचा भी क्यों न चहकते?

वे मुझसे कहते भी थे, “निक्का, तू शहर में रहकर भी बड़ा मस्त है, यह बात बहुत अच्छी है। कभी औरों की तरह किताबी कीड़ा मत बनना। आदमी को दुनिया घूमनी-फिरनी चाहिए। तभी जिंदगी का पूरा रंग निखरकर आता है।”

एक दिन की बात, भुल्लन चाचा आस–पड़ोस के बच्चों के बीच घिरे बैठे थे। बातें और बातें और बातें चल रही थीं। अब तक भुल्लन चाचा भी थोड़े दिल्ली के रंग-ढंग से परच गए थे। सो खूब चहक रहे थे। बीच-बीच में गाँव के दो-चार देसी लतीफे भी उन्होंने सुनाए और सबका दिल खुश कर दिया।

इसी बीच दिल्ली के दर्शनीय स्थलों की चर्चा चल पड़ी। तभी अचानक पड़ोस के नटखट आशु ने पूछ लिया, “अरे भुल्लन चाचा, आप दिल्ली आ तो गए, पर कभी इंडिया गेट भी घूमने गए हो, या नहीं…?”

सुनते ही भुल्लन चाचा चौंके, “इंडिया गेट…?” उनका चेहरा उतर गया। अब कैसे बताएँ कि इंडिया गेट तो क्या, उन्होंने दिल्ली का कोई गेट देखा ही नहीं। यहाँ तक कि इतने दिनों में दिल्ली का कोई दर्शनीय स्थल देखने घर से निकल ही नहीं पाए। कारण वही, पापा की व्यस्तता।

‘लेकिन इंडिया गेट…! दिल्ली का इंडिया गेट…?’ भुल्लन चाचा ने थोड़ा माथा खुजाया तो एकाएक उनके दिमाग का बल्ब जला। उन्हें याद आ गया कि उनकी पाँचवीं की हिंदी की किताब में दिल्ली पर एक कविता थी, जिसमें यह लाइन भी थी कि ‘है बड़ी शान से खड़ा हुआ, इंडिया गेट यह प्यारा!’ उसी में दिल्ली के इंडिया गेट का चित्र था। वह उन्होंने देखा था, और उन्हें अच्छी तरह याद भी था। …

पर इंडिया गेट क्या घूमने की जगह है, यानी… यानी…यानी …? भुल्लन चाचा थोड़े अचकचाए।

उन्हें उलझन में देखा तो आशु ने ही उससे उबारा। बोला, “अरे भुल्लन चाचा, वहाँ इतनी दूर-दूर से लोग आते हैं कि क्या कहने! शाम को तो अच्छा-खासा मेला लग जाता है। बस, यहाँ घूमो, वहाँ घूमो। खाओ-पियो और रंग-रंग की चीजें देखो। लोगों को खुश-खुश हँसते और चहकते हुए देखो। बड़ा अच्छा लगता है।… खासकर छोटे बच्चों की तो मौज ही रहती है। हाथों में रंग-बिरंगे गुब्बारे और बाजा लिए छन-छन छनकते हुए यहाँ-वहाँ घूमते हैं। उन्हें देख-देखकर सब खुश होते हैं।”

भुल्लन चाचा ने सोचा, ‘अरे वाह, फिर तो कभी इंडिया गेट पर घूमने जाना चाहिए। बड़ा अच्छा है कि आशु ने बता दिया। ऐसे ही तो दुनिया-जहान की चीजों का पता चलता है।’

खुश होकर बोले, “ठीक है आशु, जाऊँगा। … जाऊँगा मैं भी कभी। देखूँगा वहाँ का नजारा।”

“और क्या, जाओ भुल्लन चाचा… कभी जरूर जाओ। इन दिनों तो वहाँ खासा रौनक मेला लग जाता है। मैं पिछले हफ्ते गया था पापा के साथ। बड़ा मजा आया था। वहाँ खूब सारे खिलौने बिक रहे थे। बड़े ही अजब-गजब खिलौने। साथ ही बड़े-बड़े रंगीन गुब्बारे, और तरह-तरह के बाजे भी। खूब बढ़िया-बढ़िया रंग-बिरंगी कैप भी मिल रही थीं। कुछ भालू, कुछ मंकी जैसी। और एक तो बिल्कुल जोकर वाली कैप। खूब लंबी सी। ऊपर फुंदने। उसे देख के ही मेरी तो हँसी छूट गई।… बच्चे वहाँ एक से एक विचित्र कैप लगाकर तुन-तुन बाजा बजाते हुए घूमते हैं तो बहुत मजा आता है। और… और हाँ…!” बात अधूरी छोड़कर आशु हँसने लगा।

“और क्या बता रहे हो तुम…?” भुल्लन चाचा की उत्सुकता थम नहीं रही थी।

“और भुल्लन चाचा, जब हम गए थे, तब तो ना, वहाँ एक प्यारा सा हाथी भी था। खूब बड़ी सी सूँड़ वाला अप्पू हाथी। वह हँस-हँसकर सारे बच्चों से हाथ मिला रहा था। बच्चे इसके साथ फोटो खिंचवा रहे थे। मैंने भी खिंचवाया। सच्ची, बड़ा मजा आया!” आशु ने बताया।

“अरे वाह, अप्पू हाथी …! बहुत रोबदार होगा वह तो?” भुल्लन चाचा की आँखों में कौतुक था।

“अरे, ऐसा रोबदार कि मजा आ गया…! वह हाथी असल में क्या है, एक लड़का ही तो है, जो अप्पू हाथी का मुखौटा पहने हुए है। नीचे पैंट, जूते। चम चम करते। पर जब वो अप्पू हाथी बनता है न, तो हमेशा हँसता ही रहता है, हा-हा-हा…! और उसे देखकर बच्चे भी हा-हा-हा करके हँसते हैं। बड़ा मजा आता है।… फिर वहाँ खाने-पीने की इतनी दुकानें, ऐसे-ऐसे चाट, दही-भल्ले के ठेले और गोलगप्पे वाले कि मुँह में पानी भर आता है। और हाँ, खूब रोशनी भी होती है, खूब झलर-मलर रोशनी। सच्ची, बड़ा मजा आता है। लगता है, घर जाएँ ही नहीं, रात यहीं काट दें।”

बस, अब तो भुल्लन चाचा के लिए खुद को रोक पाना मुश्किल था। उन्होंने तय कर लिया कि जाना है। एक बार तो इंडिया गेट पर जाना ही है। देखें तो, वहाँ दुनिया आती किसलिए है?

उसी शाम भुल्लन चाचा ने मुझसे और गौरी दीदी से बात की। सुनकर मैं तो वाकई उछल पड़ा। बोला, “चलो चाचा, चलो। अभी चलो।”

गौरी भी खुश थी और खूब चहक रही थी, “अरे वाह, इंडिया गेट देखेंगे! वहाँ एक नई दुनिया देखने को मिलेगी… दुनिया का नया रंग-ढंग। वाह!!”

और फिर जोश और उत्साह में फटाफट इंडिया गेट जाने का प्रोग्राम बन गया।

*

भुल्लन चाचा ने मुझे और गौरी को साथ लिया और पूरे जोर-शोर से घर में ऐलान कर दिया, “जा रहे हैं भाभी, जरा हम लोग इंडिया गेट जा रहे हैं….थोड़ा देर हो जाए तो आप घबराना मत, भाभी। काये से, कि इंडिया गेट पर तो शाम को ही मेला लगता है, जो देर रात तक चलता है।… और फिर, मैं तो हूँ ही ना साथ में। तो फिर चिंता काहे बात की…?”

“हाँ-हाँ, सो तो ठीक है भैया। … पर देखो, देर मत करना भुल्लन। काये से, कि कल बच्चों को स्कूल भी जाना है।” मम्मी ने हँसते हुए अपने ठेठ गँवई देवर की नकल की।

इस पर भुल्लन चाचा के साथ-साथ मैं और गौरी दीदी भी खूब जोर से हँसे। हँसते-हँसते ही हम लोग बस स्टाप पर भी जा पहुँचे।

इंडिया गेट वाली बस में बैठे तो कोई आधे घंटे के भीतर यहाँ-वहाँ चक्कर काटने के बाद, कंडक्टर ने हमें इंडिया गेट के सामने वाले बस स्टाप पर उतार दिया। बोला, “यही है इंडिया गेट, उतरो जल्दी…!”

पहले तो भुल्लन चाचा को समझ में ही नहीं आया कि अरे भैया, यहाँ सड़क पर कहाँ है इंडिया गेट? पर जब मुड़कर पार्क की ओर नजर डाली और फिर उनकी निगाह पार्क के बीचोबीच बड़ी शान से खड़े इंडिया गेट पर गई, तो समझ में आ गया माजरा, “अरे, वह तो रहा इंडिया गेट। किताबों में कितनी बार तो देखा और पढ़ा है इसके बारे में। आज सच्ची-मुच्ची देख लिया…!”

इंडिया गेट पर घूमते हुए भुल्लन चाचा को सचमुच अच्छा लग रहा था। एक रंग-बिरंगी दुनिया उनके चारों ओर बिखरी हुई थी। और हँसी-खुशी, मुस्कानें…! खिले खिले चेहरे । बच्चे-बड़े, स्त्री-पुरुष सब देखकर उनका मन खुश हो गया।

पर इस सबके बीच अचानक भुल्लन चाचा पर अपना कमाल दिखाने का खब्त सवार हो जाएगा, यह कोई नहीं जानता था। खुद भुल्लन चाचा भी नहीं।

पर हुआ ऐसा ही। और हुआ भी कुछ ऐसे ढंग से कि आसपास खड़े सारे लोग चौंके। वे बड़ी अजीब निगाहों से भुल्लन चाचा की ओर देख रहे थे। लेकिन ऐसे मौकों पर भुल्लन चाचा को दीन-दुनिया का कुछ होश ही कहाँ रहता है। वे पूरी तरह अपने आप में खो जाते हैं। और वही यहाँ भी हुआ।

यानी भुल्लन चाचा देखते ही देखते अपने पूरे रंग में आ गए। फिर कुछ न कुछ तो होना ही था।

असल में हुआ यह कि भुल्लन चाचा मुझे और गौरी दीदी को साथ लेकर यहाँ-वहाँ घूमते हुए, एक जगह खड़े होकर एक बड़े से गुब्बारे का कमाल देख रहे थे। वह इतना विशाल था कि देखने पर जादुई गुब्बारा लगता था। वह कभी ऊपर जाता, कभी नीचे। कभी बीच हवा में गोते खाने लगता। उस पर जोकरनुमा टोपी पहने हँसते हुए बच्चों के चित्र छपे थे। बीच में लाल चोगा पहने एक जोकर भी। देखकर सब हँस रहे थे।

गुब्बारे वाला भी खुश था। इस बहाने उसके बहुत से गुब्बारे बिक रहे थे। सौ रुपए का था एक विशाल गुब्बारा, पर उसे लेने के लिए लोग टूटे पड़ रहे थे।

भुल्लन चाचा टकटकी लगाए इसी जादुई गुब्बारे का कमाल देख रहे थे कि अचानक उनका ध्यान मैली सी साड़ी पहने एक गरीब स्त्री पर गया। काले रंग की एक दुबली सी स्त्री। गोदी में लाल झग्गा पहने एक बच्चा। दुबला, कमजोर। कुछ बीमार सा। वह स्त्री छोटे-छोटे सात रंगीन गुबारों का एक गुच्छा बेच रही थी, “पाँच रुपए में ले लो बाबू साब, पाँच रुपए में…सतरंगी गुब्बारे। आपके बच्चे खेलेंगे। नाती-पोते खेलेंगे। खूब खुश होंगे। ले लो बाबू साहब… ले लो मेम साब!” वह अपनी पतली, करुण सी आवाज में जैसे मिन्नतें कर रही थी।

गोदी में बच्चा बीच-बीच में रोने लगता। इस पर वह स्त्री और भी परेशान हो जाती। एक हाथ से बच्चे को थपकियाँ देती। दूसरे हाथ में गुब्बारे लिए और भी करुण आवाज में गुहार लगाती, “ले लो जी ले लो, गुब्बारे ले लो… रंग-बिरंगे गुब्बारे ले लो। आपके बच्चे खेलेंगे, खूब खुश होंगे…लो जी, ले लो…!”

यहाँ तक आते-आते उसकी आवाज रोने- रोने को हो उठती। जैसे कह रही हो, “अगर गुब्बारे नहीं बिके तो मेरा बच्चा भूखा मर जाएगा, बाबू जी। ले लो, ले लो ये गुब्बारे, ले लो…!”

उसके गुब्बारे नहीं बिक रहे थे। जबकि दूसरी औरतें जो गुब्बारे बेच रही थीं, थोड़े अच्छे कपड़ों में थीं। चेहरे पर खिली-खिली सी मुस्कान। शायद इसी का जादू था कि उनके गुब्बारे खूब बिक रहे थे।

यहाँ-वहाँ घूमते वह गरीब औरत भुल्लन चाचा के पास आकर खड़ी हो गई। बड़ी दीनता से बोली, “भैया जी, इन छोटे बच्चों के लिए ले लो ये सात रंग के गुब्बारे। पाँच रुपए के सात गुब्बारे। आप ले लोगे तो दो रोटी का इंतजाम हो जाएगा।…”

सुनकर भुल्लन चाचा का दिल पिघल गया। उन्होंने पूछा, “अब तक तुम्हारे कितने बिक गए गुब्बारे?”

“बस, दो ही बिके हैं, बाबू जी।” उस औरत ने थोड़ी मायूसी से बताया। साथ ही अपनी मजबूरी भी बताई, “बच्चा बीमार है। इसकी दवा भी लानी है, बाबू जी।”

“तो ठीक है। लाओ, दे दो।” भुल्लन चाचा ने गुब्बारों का एक गुच्छा खरीदा और पाँच रुपए दे दिए। वह गुच्छा उन्होंने मेरे हाथ में पकड़ा दिया।

पर मैंने देखा, भुल्लन चाचा कुछ उदास से हैं। साथ ही लगा, जैसे वे किसी उधेड़बुन में हैं और मन ही मन कुछ सोच रहे हैं।

अचानक भुल्लन चाचा ने उस गुब्बारे वाली स्त्री को बुलाया। और उसके पास आने पर बोले, “सुनो, तुम्हारा नाम क्या है?”

“रामंती, बाबूजी।” उस स्त्री ने बताया।

“रामंती, मैं तुम्हारे गुब्बारे बेच दूँ?” भूल्लन चाचा ने पूछा।

“आप… आप बेचोगे बाबूजी?” रामंती हैरत में थी। उसे बिल्कुल समझ में नहीं आया कि भुल्लन क्या कहना चाहते हैं? कहीं ये मजाक तो नहीं कर रहे। या कहीं ऐसा तो नहीं कि ये गुब्बारे बेचें और फिर सारे पैसे लेकर रफूचक्कर ही हो जाएँ।

“क्यों, झटपट बेच दूँगा। … फिर पैसे हो जाएँ तो दवा ले आना।” भुल्लन चाचा ने बड़ी सहानुभूति से कहा।

अब गुब्बारे बेचेने वाली रामंती को यकीन हो गया कि यह लड़का कुछ अलग है। पर उसकी आँखों में असमंजस अब भी था, “ठीक है बाबूजी, पर आप…?”

उसे लगता था कि गुब्बारे बेचना तो गरीब-गुरबा लोगों का पेशा है। तो फिर ढंग के कपड़े पहने हुए कोई पढ़ा-लिखा और भले घर का लड़का गुब्बारे बेचे, यह भला कैसे हो सकता है?

*

फिर भी भुल्लन चाचा की बातों में कुछ था कि उसे यकीन हो गया। कुछ देर वह भुल्लन चाचा के चेहरे पर टकटकी लगाए देखती रही। फिर बोली, “ये तो कुल बीस हैं, भैया। बाकी मैं उधर रख आई हूँ।”

“वो कितने होंगे?” भुल्लन चाचा ने पूछा।

“सारे मिलाकर सौ होंगे शायद…!” रामंती ने कहा।

“ले आओ, मैं सारे बेचकर अभी आधे घंटे में पैसे तुम्हें देता हूँ।” भुल्लन चाचा ने पूरे आत्मविश्वास से भरकर कहा।

रामंती ने ऐसा अपने जीवन में तो नहीं देखा था। पर जाने कैसे उसे यकीन हो गया था कि यह लड़का झूठ नहीं बोल रहा। कुछ न कुछ अलग बात है इसमें जरूर।

उसके चेहरे पर पहली बार उम्मीद की एक किरण चमकी। आँखों में खुशी के छोटे-छोटे दीये झलमलाए।

वह झटपट गई और पाँच मिनट में अलग रखे गुब्बारे भी ले आई। भुल्लन चाचा प्यार से बोले, “रामंती बहन, तुम यहीं बैठो इन बच्चों के साथ। मैं अभी आया।… बाकी के गुब्बारे भी अपने पास रखो। मैं आ-आकर लेता रहूँगा।”

फिर हम दोनों की ओर मुड़कर बोले, “सुनो निक्का, गौरी…! तुम लोग यहीं रहना। यहाँ से कहीं जाना मत। बस, मैं जरा सी देर में रामंती बहन के ये गुब्बारे बेचकर अभी आया। फिर यहाँ से और भी गुब्बारे ले जाऊँगा।“

“पर…! पर भुल्लन चाचा आप…?” गौरी पता नहीं क्या कहना चाहती थी। उसे अंदर ही अंदर कुछ डर लग रहा था।

“अरे गौरी, रामंती मौसी हैं न, यह तुम्हारा खयाल रखेंगी। मैं बस गया और झटपट आया।” भुल्लन चाचा जैसे किसी लहर पर सवार थे।

रामंती ने सुना तो उसकी आँखें भीग गईं।

यों भुल्लन चाचा का यह नया रूप मुझे और गौरी दीदी को भी अच्छा लग रहा था। फिर भी वे जाने लगे तो मैंने जोर से पुकारकर कहा, “भुल्लन चाचा, आप दूर नहीं जाना, पास ही …!”

“हाँ-हाँ, ज्यादा दूर नहीं, आसपास ही घूमूँगा। तुम बिल्कुल चिंता मन करना। एक आवाज दोगे तो मैं दौड़कर आ जाऊँगा।” भुल्लन चाचा बड़े इतमीनान से मुकराए।

और फिर भुल्लन चाचा का वही जाना-पहचाना तरीका। उन्होंने झटपट अपनी पसंदीदा एक सुंदर सी जोकर छाप टोपी खरीदी। तू-तू-तू बाजा खरीदा। फिर गले में खूब सारे सतरंगे गुब्बारों के गुच्छे लटकाए और अपने इस विचित्र मनमोहक रूप में, तू-तू-तूं बाजा बजाते चल पड़े।

और बस, देखते ही देखते जैसे जादू हो गया।

लोगों ने समझा कि सच्ची-मुच्ची कोई जादूगर आ गया। कुछ रोज पहले जादूगर शंकर ने यहीं अपने जादू का कमाल दिखाया था। फिर उन्होंने हँसते-हँसते लोगों से कहा था, ‘अभी आपने मेरे गुरु जग्गी घोष के जादू के कारनामे नहीं देखे। देखते तो हँसते-हँसते बेहोश हो जाते…!’

लोगों ने सोचा, आहा, यह तो अवश्य ही जादूगर शंकर के उस्ताद जग्गी घोष दादा प्रकट हो गए हैं, और अपनी मनमोहक अदाओं से रिझा रहे हैं। लिहाजा वे दौड़-दौड़कर भुल्लन चाचा के आसपास घिर आए। इतने विशाल इंडिया गेट पर जैसे उनका जादू चल गया हो। हर किसी की निगाहें उनकी ओर घूम गई थीं। उनके शानदार बाजे की ‘तू-तू… तू तू’ के साथ ही लोग मुँह से ‘तू-तूं…तू-तू-तूं…’ बोल रहे थे, नाच रहे थे और खुश होकर भुल्लन चाचा की ओर देख रहे थे कि वे अगला क्या कारनामा करने वाले हैं।

और भुल्लन चाचा…? वे तो बड़े सुरीले ढंग से गाना गाते हुए, अपनी गरीब रामंती बहन के गुब्बारे बेच रहे थे।” ले लो जी, ले लो, जादू वाले गुब्बारे, हाँ जी, प्यारे गुब्बारे…!” कहकर मजे में बाँहें फैलाए, दाएँ-बाएँ घूमते हुए वे झूम से रहे थे। बीच-बीच में अजब ढंग से गरदन नचाते, होंठ फड़काते, यहाँ-वहाँ नजरें घुमाते हुए वे बिल्कुल सर्कस के जोकर की तरह हाव-भाव बनाकर, लोगों के पास जाते और पुकार लगाते-

अजी, अजी हाँ, ये गुब्बारे,

ओहो, ओहो, ये गुब्बारे…

जादूगर दादा लाए हैं

कलकत्ता से ये गुब्बारे,

इंद्रधनुष ये इतने सारे

सात रंग के प्यारे-प्यारे,

ले लो, ले लो जी गुब्बारे,

पाँच रुपए में ले लो, ले लो

सात-सात बढ़िया गुब्बारे

ले लो, ले लो, ले लो सारे…

ओहो, ओहो ये गुब्बारे…!

जादू वाले ये गुब्बारे…!!

उन्होंने देखते ही देखते एक खूबसूरत कविता बना ली थी। और पता नहीं यह उनके गाने का कमाल था या कि उनकी अलबेली मस्ती का, देखते ही देखते गुब्बारे बिक रहे थे, बिकते जा रहे थे …!

लोग दौड़-दौड़कर आते और हाथों में पैसे लिए पुकार लगाते, “दादा, हमें भी दो, हमें भी… हमें भी…! हमें पहले देना दादा, हमें पूरे चार गुच्छे… हमें पाँच….!!”

बिल्कुल मामूली लोग हों या पैसे वाले, सब देखते ही देखते भुल्लन चाचा के दीवाने हो चुके थे। हालाँकि इस वक्त वे भुल्लन चाचा नहीं, जादूगर दादा बने हुए थे और अपनी मोहिनी से उन्होंने सचमुच सब पर जादू डाल दिया था।

फिर भुल्लन चाचा सुर बदलने में भी उस्ताद थे। सो किसी पढ़े-लिखे आदमी को देखते तो पूरे पक्के अंग्रेजीदाँ हो जाते। हर किसी के पास जाकर मुसकराते हुए कहते, “फाइव रुपीज ओनली। … सर, यु सी सच ए वंडरफुल बंच ऑफ बैलून्स!! ओनली, ओनली, फाइव रुपीज ओनली सर!”

बच्चे के साथ किसी सजी-धजी माँ को देखते तो मुसकराकर कहते, “प्लीज मैम, प्लीज…! सी दिस ब्यूटीफुल बंच ऑफ बैलून्स, विच इज लाइक ए कलरफुल मैजिक। प्लीज, हैव वन फॉर योर बेबी, वॉन्ट यू?”

और सचमुच उनकी बातों का जादू जैसा असर होता। गुब्बारे खूब धड़ा-धड़ बिकते जा रहे थे, और वे बार-बार रामंती के पास जा जाकर और गुब्बारे ले आते।

*

अब तक लोगों की अच्छी-खासी भीड़ उनके आसपास जमा हो गई थी। वे सबसे खूब हँस-हँसकर बात करते, और फिर गुब्बारों का गुच्छा आगे बढ़ा देते। लड़कियों, औरतों को देखते तो किसी को दीदी कहकर बुलाते, किसी को बहन जी, और किसी को आंटी। शानदार साड़ी पहने एक मोटी सी आंटी उत्सुकता से पास आई तो वे बोले, “आंटी, ले लो ना प्लीज। मैं किसी की हेल्प के लिए कर रहा हूँ।… इट वुड हेल्प अ पुअर लेडी। उस गरीब औरत का बच्चा बीमार है…!”

आंटी बोलीं, “ओह, तभी तो…! तुम गुब्बारे बेचने वाले तो नहीं लगते?”

“जिस लेडी के ये गुब्बारे हैं, उसको पैसों की जरूरत है, इसलिए मैं ये बेच रहा हूँ।”

इस पर वह आंटी पिघल गई, “अरे-अरे, ऐसी बात है तो चल, दो दे दे। एक मैं किसी को दे दूँगी।”

और सचमुच आधे घंटे के भीतर कोई सौ गुब्बारे बेचकर भुल्लन चाचा ने पाँच सौ रुपए रामंती के हाथ में रखे, तो उसकी आँखें गीली थीं। उसने भुल्लन चाचा को भरपूर असीसें दीं। मेरे और गौरी के सिर पर भी बार-बार हाथ फेरा। बोली, “तुम लोग खुशकिस्मत हो। ऐसे प्यारे-प्यारे भुल्लन चाचा तुम्हें मिले हैं। लाखों में एक…!”

भुल्लन चाचा ने दस रुपए का नोट अपनी जेब से निकालकर रामंती को देते हुए कहा, “ये भाई के हिस्से के दस रुपए भी उनमें जोड़ लो।” फिर बड़े मुलायम स्वर में बोले, “खाना खा लो और इसका ढंग से इलाज कराना। ठीक?”

गुब्बारे बेचने वाली रामंती असीसें देती चली गई।

अब भुल्लन चाचा हम दोनों के साथ घूमने निकले। उन्होंने अपनी टोपी अभी तक नहीं उतारी थी। लिहाजा उन्हें दूर से ही देखकर लोग पास आ जाते। कुछ विदेशी भी उन्हें आश्चर्य से देख रहे थे।

“वेयर इस योर बंच ऑफ बैलूंस विद कलरफुल मैजिक …? प्लीज गिव मी वन।” जर्मनी से आए एक खुशमिजाज पर्यटक विल्सन ने हँसते हुए कहा।

“ओह सर, नाउ दे आर फिनिश्ड…!” कहकर भुल्लन चाचा हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गए।

“पर… पर तुम बड़ा अच्छा लड़का है। कभी जर्मनी आना, तो मेरे घर पर भी आना। यह मेरा विजिटिंग कार्ड… इसमें पता है… मैं राइटर हूँ… विल्सन लोत्से…!” कहते हुए उसके चेहरे पर भुल्लन चाचा के लिए जो कोमल प्यार झलक रहा था, उसे देखकर भुल्लन चाचा ही नहीं, निक्का और गौरी के चेहरे भी खुशी से खिल गए।

जर्मनी के उस नेक और खुशदिल शख्स को धन्यवाद देकर भुल्लन चाचा आगे बढ़े, तो उनके होंठों पर किसी फिल्मी गाने की लाइनें थीं, “मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंगलिस्तानी, सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी…!”

कुछ भी हो, उस दिन इंडिया गेट पर बस भुल्लन चाचा का ही जलवा था। हर कोई प्यार से उनसे मिल रहा था। और उन्हें मिलने वाले प्यार का एक हिस्सा मुझे और गौरी को भी मिल जाता था। सो हम दोनों की खुशी का भी ठिकाना न था।

उसी का नतीजा है कि जब मैंने और गौरी दीदी ने भुल्लन चाचा के साथ एक चाट वाले से चाट खाई, तो उसने पैसे लेने से इनकार कर दिया। बोला, “हमने इतने अच्छे लोग पहली बार देखे हैं साब। हम आपसे पैसे लेंगे तो आत्मा कलपेगी।”

भुल्लन चाचा ने बहुत कहा, पर वह माना नहीं। बोला, “नहीं भाई, आप तो फरिश्ता हो। एक गरीब औरत की ऐसी मदद…!”

काफी देर तक भुल्लन चाचा के साथ हम दोनों इंडिया गेट की धूम-धाम का आनंद लेते रहे।

एक जगह बच्चों के गाने की प्रतियोगिता चल रही थी। भुल्लन चाचा के कहने पर मैंने और गौरी दीदी ने भी उसमें हिस्सा लिया। इसमें दोनों ने मिलकर वही गीत गा दिया, जिसे उन्होंने न जाने कितनी बार भुल्लन चाचा से सुना था, और उन्हें खूब अच्छी तरह याद भी हो गया था, ‘मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंगलिस्तानी, सिर पर लाल टोपी रूसी, पर दिल है हिंदुस्तानी…!’

गौरी उसे बहुत अच्छा गाती थी। मैंने भी पूरा साथ दिया, और फिर हम दोनों ने खूब रंग बाँध दिया। हमारे साथ आसपास खड़े लोग भी तालियाँ बजाते हुए, साथ-साथ गा रहे थे।

और सचमुच हम दोनों भाई-बहन की जोड़ी को उस गाने पर एक सुंदर मैडल मिल गया। खुशी के मारे हमारे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

“भुल्लन चाचा, अब घर लौटें? मम्मी-पापा परेशान होंगे…!” तभी एकाएक गौरी दीदी ने याद दिलाया।

भुल्लन चाचा भी अब लौटना ही चाहते थे कि सामने से दौड़ता हुआ अप्पू हाथी नजर आ गया। देखकर भुल्लन चाचा का जी खुश हो गया। बोले, “अरे वाह! अप्पू हाथी, देखो-देखो अप्पू हाथी … यही तो है अप्पू…!!”

इस पर गौरी दीदी तो इतनी खुश हो गई कि जोर-जोर से तालियाँ बजाने लगी, “अप्पू हाथी, अप्पू हाथी, मेरे साथी अप्पू हाथी…!”

पर अप्पू हाथी पास आया तो पता चला कि वह तो हमें ही ढूँढ़ता हुआ दौड़ा चला आ रहा है। आते ही बोला, “अरे भुल्लन चाचा, भुल्लन चाचा, और निक्का, गौरी…! आप लोग अच्छे हैं, बहुत अच्छे। इसीलिए तो मैं आपको इतनी दूर से ढूँढ़ता हुआ, दौड़ा चला आया। मुझे रामंती दीदी ने सब बताया…सब कुछ। बताया कि एक भुल्लन चाचा हैं और दो उनके साथ दो बच्चे। वे तीनों बच्चे बिल्कुल फरिश्ते हैं। …तो मैं आपसे कैसे हाथ न मिलाता? मुझे किसी ने इशारा करके बताया कि वहाँ खड़े हैं और बस मैं दौड़ा चला आया…!”

कहकर उसने बड़े प्यार से पहले भुल्लन चाचा से हाथ मिलाया। फिर मुझसे और गौरी दीदी से भी।

आश्चर्य! भुल्लन चाचा तो खुद ही अप्पू हाथी के इंतजार में थे। सोच रहे थे इंडिया गेट से घर लौटें, इससे पहले कम से कम एक बार अप्पू हाथी से हाथ तो मिलाना चाहिए। पर क्या पता था कि वह भी इस कदर बेसब्री से हमसे मिलने दौड़ा-दौड़ा चला आएगा।

देखकर भुल्लन चाचा की आँखें नम थीं, अप्पू हाथी की भी।

और फिर जब भुल्लन चाचा वहाँ से वापस जाने के लिए मुड़े, तो जाने क्या सोचकर अप्पू एकाएक चिल्लाया, “रुकिए… रुकिए, रुकिए भुल्लन चाचा!”

उन्होंने हैरानी से देखा। भला अब क्या कहना चाहता है अप्पू हाथी? तब अचानक अप्पू मुसकराते हुए बोला, “आप… आप तीनों लोग प्लीज, थोड़ी देर के लिए सामने खड़े हो जाइए!”

और जब भुल्लन चाचा हम दोनों के साथ खड़े हुए तो उनके बिल्कुल ठीक सामने अप्पू खड़ा था। उसने बड़े आदर से सूँड़ उठाकर उन्हें सलामी दी। और जोर से कहा, “भुल्लन चाचा, जिंदाबाद…!”

“भुल्लन चाचा, जिंदाबाद…!” मेरे और गौरी दीदी के मुँह से भी निकला। और हम लोग वहाँ से चलने के लिए मुड़ते, इससे पहले ही एक और चमत्कार…।

देखा तो एक फोटोग्राफर ने, जो कहीं आसपास ही था, ‘क्लिक…!’ करके यह शानदार तसवीर खींच ली थी। भुल्लन चाचा कुछ समझ पाते, इससे पहले ही वह बोला, “अगर आप लोग पाँच मिनट रुकें, तो अप्पू के साथ अपनी यह तसवीर भी साथ लेते जाइए, प्लीज…!”

और सचमुच पाँच मिनट में उसने तसवीर भुल्लन चाचा के हाथ में पकड़ा दी, जिसमें अप्पू हाथी सूँड़ उठाकर उन्हें सलामी दे रहा था।

भुल्लन चाचा ने खुश होकर फोटोग्राफर से कहा, “अंकल, कितने पैसे…?”

“नहीं, नहीं…!” वह हँसा, “आपसे पैसे कौन लेगा? हम समझ गए, आप तो कुछ अलग ही तरह के इनसान हैं। जिंदगी में बहुत लोग देखे, पर आप जैसा कोई नहीं!”

इतने में और भी गुब्बारे और खिलौने बेचने वाले लोग वहाँ आ-आकर इकट्ठे हो गए। शायद रामंती ने बताया होगा। सभी प्यार से हाथ हिलाकर भुल्लन चाचा और हम दोनों को विदा कर रहे थे।

*

उस दिन भुल्लन चाचा के साथ हम दोनों घर लौटे तो खुश थे, बहुत खुश। पर सबसे ज्यादा खुश थी गौरी दीदी, जो लगातार चहक रही थी। तीनों के सिर पर जोकर कैप देखकर मम्मी हँसीं, “लगता है, तुम तीनों किसी सर्कस से चले आ रहे हो…!”

“सर्कस से नहीं, भाभी, इंडिया गेट से… यानी द ग्रेट इंडियन सर्कस!” भुल्लन चाचा हँसे।

और उसी समय मैंने और गौरी दीदी ने भुल्लन चाचा को एक साथ सलामी देकर नारा लगाया, “भुल्लन चाचा जिंदाबाद, भुल्लन चाचा इज ग्रेट…!”

मम्मी-पापा को पता चला पूरा किस्सा तो उनके होंठों पर भी एक मीठी-मीठी हँसी छलक पड़ी, जिसमें भुल्लन चाचा के लिए एक छिपा हुआ प्यार था। सचमुच भुल्लन चाचा अब हमारे हीरो बन चुके थे।

ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)