Best Hindi Kahani: गुल्लो के पास पहले भी एक बहुत सुंदर-सी प्यारी गुड़िया हुआ करती थी, जिसके काले-काले बाल, मटकती आंखें, हरे रंग की फ्रॉक, पैरों में सुंदर जूतियां हुआ करती थीं।
अपने बेटे शंकर के घर में पोती गुल्लो और मोहल्ले भर के सब बच्चों को देख कर दादी का मन हर्ष से प्रसन्न
हो उठा। बेटा आंगन में चारपाई पर बैठा है। उसके सामने रखी थाली में गेंहू और चने के मिश्रित आटे से बनी बिर्रा की रोटी है। साथ में है- नमक, मिर्च, धनिया, लहसुन की टमाटर वाली चटनी जो उसे हमेशा से पसंद है
और चूल्हे में भुना हुआ बैगन का छोंका गया भर्ता। बहू भीतर रसोई में जरूर रोटियां बना रही होगी क्योंकि वह सामने न दिखी थी। नन्ही गुल्लो हाथ में अपनी प्यारी डिंपी गुड़िया को हाथ में लिए, मुहल्ले के बच्चों, संगीसाथिनों के साथ आंगन में पकड़म-पकड़ाई और घोड़ा दिमानसाई खेल रही थी। तभी दादी ने आवाज लगाई- ‘रे! लड़कियों, भोजन का वक्त हो गया, अपने-अपने घर जाओ।
नहीं तो तुम्हारी मां परेशान होकर ढूंढने निकल पड़ेंगी।’ ‘दादी! दादी! थोड़ी देर और खेलने दो न।’ गुल्लो ने लाड़ से आंखें मटकाई थीं। ‘हां, गुल्लो की दादी, थोड़ी देर और खेलने दीजिए।’ दो-चार सहेलियों ने भी मनुहार की।
‘अच्छा, चलो थोड़ी देर और खेल लो, फिर सब अपने-अपने घर चली जाना।’दादी मान गई। गुल्लो और उसकी सखियां फिर से खेलने लगीं। गुल्लो के हाथ में हरदम उसकी प्रिय गुड़िया डिंपी दबी रहती थी। यह डिंपी नाम भी उसने दादी से कह कर ही रखवाया था। जिस दिन मामा गुड़िया लेकर आया था, उसी दिन की बात है। गुड़िया को हाथ में पकड़ने के बाद गुल्लो ने मामा की ओर देखा भी नहीं।
भूल गई कि कौन लाया है!! गुल्लो के पास पहले भी एक बहुत सुंदर-सी प्यारी गुड़िया हुआ करती थी, जिसके काले-काले बाल, मटकती आंखें, हरे रंग की फ्रॉक, पैरों में सुंदर जूतियां हुआ करती थीं।
उस दिन दादी भी दीवाली का त्यौहार मनाने बेटे के पास पहुंची हुई थीं। सफाई के वक्त किसी ने कुर्सी के पाए के कोने से गुड़िया की एक आंख और कंधे को दबा दिया था। गुड़िया का यह हाल देखते ही गुल्लो मचल
गई, हाथ-पैर फेंकती हुई आंगन में ही पसर गई, बहुत रोई।
गुड़िया की एक आंख नीचे को लटक कर कनपटी से चिपकी रह गई थी, मानो एक आंख से सो रही हो। ऊपर उठती-गिरती न थी और कंधा पिचक कर हाथ को लटका चुका था। दादी ने बहुत समझाया था कि बिटिया, तुम्हारी गुड़िया का एक्सीडेंट हो गया है। अब यह ऐसे ही रहेगी। जिनके एक्सीडेंट हो जाते हैं और जो ठीक नहीं हो पाते, वे भी जिंदा रहते हैं बेटी, लेकिन गुल्लो न मानी। वह आंसू पोंछते हुए बोली- ‘दादी, एक्सीडेंट होने
से तो लोग मर जाते हैं, तो मेरी गुड़िया मर गई है क्या? मरना क्या होता है? दादी के दिल में हौल पड़ गया, वे सदमे से चौंक गई।
बोलीं- ‘नहीं बेटी, मरना क्या होता है। तू मत पूछना कभी। मेरी लाड़ो! तू जुग-जुग जिये मेरी गुल्लो रानी। उन्होंने पोती को अपने गले लगा लिया था, समझाया फिर, ‘तेरी गुड़िया सिर्फ घायल हुई है। इसे छोटी-मोटी चोट बोलते हैं।
‘हां! बेटा मगर जब कोई छोटी-मोटी दुर्घटना होती है तो इलाज किया जा सकता है। तुम अपनी साथी गुड़िया के साथ अब भी खेल सकती हो। मैं इसका इलाज कर दूंगी।
मचलती गुल्लो एकदम से दादी की गोद में आ बैठी थी, ‘दादी आप कैसे इलाज करोगी? आप कोई डाक्टर हो?’
‘हां री, ये ले, मैं गुड़िया की डॉक्टर बन जाती हूं।’ उन्होंने आंखों पर अपना चश्मा चढ़ाया और अपना पिटारा लेकर बैठ गईं।
उसमें सुई, डोरा, सिलाई से बचे हुए कपड़े थे। कपड़े सिलने पर बचे कतरनों में से निकाल-निकाल कर उन्होंने गुड़िया की पूरी बांह की सुंदर सी फ्रॉक और सलवार सिल दी थी ताकि पिचका कंधा और लटकी बांह ढंक जाए मगर आंख लटकी ही रही, गुल्लो अंगुलियों से पकड़कर उसकी पलकें उठाती, आंख सीधी करती, लेकिन वह छोड़ते ही वापस गिर जाती।
मामा को तो गुल्लो को चिढ़ाने में बहुत आनंद आता था, उसने खोज-खाज कर गुड़िया का हाथ भी टटोल लिया, बोला, ‘गुल्लो! तुम्हारी गुड़िया तो लूली भी है, मैं इसके लिए काना और लूला दूल्हा ढूंढ़कर ला दूंगा, चिंता न करना।’ सुनकर गुल्लो मामा से ऐसे रुठी मानो स्वयं उसी के लिए लूला, काना दूल्हा ढूंढा जा रहा हो।
दादी से आकर बोली, ‘देखो दादी, मामा मुझे कैसा परेशान कर रहे हैं।’
दादी ने भी गुल्लो को धीरे से सुझाव दे दिया। ‘चिढ़ाता है न, जा फिर मामा से नई गुड़िया मंगा ले। कह कि कानी लूली है तो नई लाकर दो।’और तुरंत उसी शाम मामा अपनी गुल्लो के लिए ऐसी गुड़िया ले आया, जिसके आंखें,
हाथ, पांव सब मटकते थे। तब डिंपी नाम रखा गया उसका।
गुल्लो ने कितने दिनों तक तो उसे अपने तकिए पर सुलाया था। वह उसे नजर से ओझल नहीं होने देती थी। कहीं फिर से एक्सीडेंट हो गया तो? आज उसी डिंपी को अपनी कांख में दाबे गुल्लो छोटे-छोटे पांवों से दौड़ती छुम-छुम पायलें बजाती खेल रही थी। सभी सखियों की खुसर-पुसर आवाजें तो आ रही थी मगर दिख कोई न रही थी। गुल्लो ने जैसे ही दादी की तरफ देखा, दादी ने साड़ी में हाथ छिपा कर गुल्लो को इशारा कर दिया।
इशारे का अनुसरण करती गुल्लो ने झट से मीना और रिया को ढूंढ़ निकाला।
अभी एक और सखी बची थी, उसको ढूंढने के लिए तीनों खिलखिलाती धमाचौकड़ी करती साथ हो ली। चौकोर आंगन बड़ा सा था। उसके दो तरफ कमरे और एक तरफ दो गुसलखाने, फिर चौथी तरफ बरामदा था। जो
सामने प्रवेश द्वार से लगी बैठक में खुलता था, इसी आंगन में गुसलखाने से लगी कुइया भी थी। कुइया की मुंडेर फर्श के लेबल से बस आधा पौन फीट ऊंचाई पर थी और लंबी सी रस्सी को गिर्री पर लगाया गया था।
परिवार के लोग अपनी जरूरत के हिसाब से पानी निकालते रहते थे। वह कुइया करीब सत्तर साल पुरानी थी। अनायास गुल्लो अपनी सहेलियों के साथ दौड़ती हुई कुइया वाले कोने की ओर चली गई। पलक झपकते उसका पैर रस्सी में लिपटा और ठोकर खाकर वह कुइया में चली गई। दादी एकदम जी छोड़कर चिल्लाई, ‘बचाओ रे! बचाओ! मेरी गुल्लो कुइया में गिर गई मगर उनकी आवाज न निकलती थी। वे पूरी दम लगाकर चिल्ला रहीं थीं। भागते-भागते पास जा पहुंची पास और चिल्लाती हुई झांकने लगीं कुइया में। ‘गुल्लो, बिटिया गुल्लो!! मगर कुइया में नीचे तली से बस एक सनसनाहट सी, अंदर से बुलबुले लगातार चले आ रहे थे और एक उबाल-सा आ रहा था। जहां वह गिरी थी, गोल-गोल घेरों में लहरें मचल रहीं थीं और एक भंवर सा पड़ गया था। ‘हे! ईश्वर! मेरी गुल्लो को बचा लो! उन्होंने प्रयास किया कि रस्सी थाम कर कुइया में उतर जाए, कोशिश भी की, पर अपने बढ़े हुए वजन एवं उम्र की वजह से कामयाब नहीं हुईं अब मैं क्या करूं! कैसे गुल्लो को निकालूं!!
‘अरे शंकर! तू बुला जल्दी से किसी को। जल्दी कर! वो कुइया में उतरता है न फईम चच्चा, उसे बुला। पानी पी गई एक बार तो फिर नहीं बचेगी।
शंकर बदहवास सा सिर के बाल नोंचता इधर से उधर दौड़ता फिर रहा था लेकिन अपनी मां की पुकार सुनकर वह चिल्लाया, ‘क्या बदहवास हो रही हो मां, कहीं तुम न गिर जाना! कहां तो तुम फईम को घर की देहरी से भीतर झांकने नहीं देती, सबके कप में उसे चाय नहीं पीने देतीं, कि मुर्ग मुसल्लम खाता है! कहां अपनी पीने के पानी की कुइया में उसे उतारोगी।’
‘अरे! तेरा दिमाग ठिकाने पर है? तू जा जल्दी। फोन कर उसे, नंबर ढूंढ़। मेरी गुल्लो की जान से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं। कह देना उसे कि मैं उसके पैर धोकर पियूंगी, चाय क्या चीज है। बस मेरी गुल्लो को सही साबित
निकाल दे।’ ये राबड़ा सुनकर गुल्लो की मां भागी आई अंदर से। उसने आटा सने हाथों से पति को पकड़ लिया, घिघियाई ‘सुनो, जल्दी जाओ बुला लाओ चच्चा को।’
‘हे भगवान मेरी बिटिया! उसे कुछ हो न जाए!’वह भी कुइया में झांकने लगी थी। शंकर हतबुद्धि सा कुछ भी सोच समझ नहीं पा रहा था, उसे लग रहा था कि इस बबाल में घर का एकाध सदस्य और न कुद जाए। तब
तक गुल्लो को पानी ने सतह पर उछाल दिया था।
पानी का नियम है कि कुएं में गिरे हुए को वह पानी की सतह पर तीन बार उछालता है। तब तक आपने गिरने वाले को निकाल लिया या वह हाथ पैर मार कर किनारे पर आ गया तो बच भी सकता है।
उतराती गुल्लो आधी बेहोश आंखें बंद करे, हाथ पांव फेंकती पुन: पानी में जाने लगी थी। तब तक कोई पीछे से आया और कुइया में छलांग लगा दी। एक ही पल में यह घटना हो गई।
मुहल्ला पड़ोस के लोग भी ठठ के ठठ एकत्रित होने लगे थे। वे सखी सहेलियां भी भागी अपने घरों को और बताने के लिए। उन्हीं में से कोई मोटरसाइकिल लेकर दौड़ गया फईम चच्चा को लेने। फईम चच्चा चिल्ला, ‘जल्दी रस्सी फेंको। शंकर ने तुरंत रस्सी फेंकी, फिर आवाज आई, ‘रुको, जब कहूं तब खींचना।
दादी नजरें गड़ा, कुइया की जगत पर ही खड़ी थीं, चच्चा कुइया की दोंनो ओर की दीवारों पर पैर अड़ाए, हाथों में गुल्लो को थामे थे। रस्सी पाते ही उन्होंने छोर अपनी कमर में गांठा। एक बार फिर चिल्लाए ‘खींचो।’
दो-तीन लोग मिल कर खींचने लगे, फिर गुल्लो को औंधा लिटाया गया। उसके पेट से ढेर सारा पानी निकला, ‘हिच्च…।’ एक हिचकी आई तो फईम चच्चा खुशी से चिल्लाए, ‘बच गई अम्मा, तुम्हारी बच्ची। बच गई! लाओ मेरा इनाम। दादी ने गीली पानी से निचुड़ती गुल्लो को अपनी गोद में ले लिया और घबरा कर उसकी धड़कनें महसूस करने लगीं। बस मेरी गुल्लो ठीक होनी चाहिए। सांसे चल रहीं थीं अच्छे से। फिर उन्होंने फइम
चच्चा को देने के लिए अपनी सोने की वजनी अंगूठी उतार दी।
तभी उनकी आंखें एक झटके से खुल गईं, वह अभी भी नींद में कांपे जा रहीं थीं। उनके मुंह से निकला, ‘गुल्लो! मेरी गुल्लो!! गोद में हाथ फेरा तो खाली थी। तब उन्हें समझ आया कि वे अपने गांव वाले घर के कमरे में सोते हुए, स्वह्रश्वन देखे जा रहीं थी।
अभी भी उन्हें ऐसा लग रहा था मानो, सारी बात सच्ची हो। एक-एक घटना जैसे अभी-अभी घटी हो। उस दृश्य को अनुभव करते हुए उनका दिल बड़ी तेज रफ्तार से धड़के जा रहा था। उन्होंने आंखों को छूकर देखा, अभी भी आंसू थे, यह कैसा सपना देखा? हे राम! क्या करूं? कहीं ईश्वर का संकेत तो नहीं यह? वे बिस्तर से उतर पड़ीं। एक गिलास पानी पिया। घड़ी देखी पांच बज रहे थे। सुबह का सपना, कहीं फलीभूत न हो जाए!
उन्होंने घर के मंदिर में शीश नवाया, मन ही मन प्रार्थना करतीं वे झटपट निवृत हुई, अपना थैला लिया और चल दी शंकर के पास। शहर का रास्ता कोई दो घंटे का था। पहुंचते-पहुंचते दिन चढ़ आया। जब वे घर पहुंची तो गुल्लो के रोने की आवाजें आ रही थीं।
उसकी उन तीनों सखियों का भी मुंह उतरा हुआ था। दादी को देखते ही गुल्लो लिपट गई, ‘दादी, मेरी डिंपी कुएं में चली गई। उसने सिसकते हुए पहला समाचार सुनाया। ‘कब? कब चली गई बिटिया? क्या वह कुएं में गिर गई है?
‘हां! दादी, हम सब खेल रहीं थीं कि मेरा पैर रस्सी में उलझ गया। मेरे हाथ में डिंपी थी और वह मेरे हाथों से छूटकर जा गिरी। फिर से उसने नीचे का होंठ आगे की ओर निकाला और तरह-तरह के मुंह बनाती रोआंसी हो उठी।
‘ये बच गई नहीं तो आज तो ये भी डिंपी के साथ ही गिर जाती दादी। उसकी सखी मीना ने विस्तार से बताया। दादी ने देखा, ‘शंकर वहीं खाट पर बैठा कलेवा कर रहा था, हरी मिर्च, धनिया, लहसुन की चटनी, चूल्हे में
भुना हुआ बैंगन का छोंका हुआ भुर्ता और मोटी-मोटी बिर्रा की रोटी थाली में रखी थी। द्वार में प्रवेश करने से लेकर आंगन तक बिर्रा और भुने बैगन की महक फैली हुई थी। पूरे आंगन में गुल्लो की मां कहीं दिखाई नहीं
दे रही थी, शायद भीतर रसोई में रोटी बना रही होगी। दादी ने गुल्लो को अंक में समेट लिया और प्यार
करने लगीं।
‘मेरी रानी बिटिया! मेरी लाड़ो रानी!!
लेकिन गुल्लो रोआंसी ही बनी रही। उसकी डिंपी जो पड़ी थी कुइया में, जैसै लाड़ली गुल्लो के कुइया में पड़े होने का स्वपन देखकर दादी अपने सारे जरूरी कार्य छोड़कर दौड़ी भागीं आई थीं,
वैसे ही तो गुल्लो की लाड़ली डिंपी थी। भावनाओं में जरा भी अंतर कहां था!! पर उनका बेटा शंकर समझे तब न। वह तो रोटी के टुकड़े करके उसे चटनी और भुर्ते के साथ चटकारे लगा कर खाए पड़ा था। उन्होंने झिड़का बेटे को, ‘क्यों शंकर, तुझे अपनी लाडली का रोना नहीं दिखाई दे रहा, अब तक क्यों न निकाली इसकी डिंपी, रोटी तो बाद मे भी खा सकते हो। देखो तो कैसे रोई पड़ी है बेचारी।
‘उंह, यह तो इसका रोज का रोना है, आज गुड़िया गिरी तो कल कोई और खिलौना।
‘नहीं दादी, मेरा कोई भी खिलौना कुइया में नहीं पड़ा है। पहली बार हुआ है ऐसा और यदि मैं गिर जाती तो क्या पापा मुझे भी न निकालते? गुल्लो ने मासूमियत से पूछने की हिम्मत की क्योंकि अब तो उसकी दादी
उसके साथ थीं।
‘मां! ये न ऐसे ही दिन भर धमा चौकड़ी मचाती रहती है बस। मैं इसकी गुड़िया निकालने में समय खराब करूं या काम पर जाऊं!! आज गैराज में आठ मोटरें खड़ीं है सॢवसिंग के लिए।’
‘तो बिटिया का दिल तोड़ देगा क्या? तुझे पता नहीं है क्या कि उसे अपनी गुड़िया कितनी प्यारी है।
‘इसकी मां निकाल देगी।’ गुल्लो ने दादी की ओर ऐसी निगाहों से देखा, जैसे कह रही हो देखिए दादी, न ही मुझे और न ही मेरी डिंपी गुड़िया को, इस घर में कोई लाड़ करता है।
‘मैं करती हूं न लाड़, तुझसे और तेरी गुड़िया से, इसीलिए तो भागती-दौड़ती चली आई हूं। मुझे तो लग ही रहा था कि कुछ-न-कुछ तो हुआ है। तू बच गई गुल्लो, मेरे लिए सबसे अच्छी बात तो यही है!! तब तक हाथ में
चाय का कप लिए हुए बहू आ गई थी। दी गई चाय की ह्रश्वयाली एक तरफ रख कर, वे उद्यत हुईं, ‘पहले इसकी डिंपी को निकालूंगी। देख, कैसे बेचैन हो रही है ये। इसे पकड़ ले जरा गोद में, नहीं तो ये मेरे साथ जाकर मुड़ेर से होकर कुएं में झांकने लगेगी।

जाकर उन्होंने कुइया में झांका, गुड़िया एक किनारे औंधी पड़ी तैर रही थी जैसे कह रही हो, ‘मुझे बचा लो नहीं तो मैं डूब जाऊंगी। दादी ने शीघ्रता से बरामदे में लटकी बांस की टोकरी उठाई और रस्सी से उसको तीन
कोने से बांध कर डलिया का झूला सा बनाया। फिर रस्सी ढीली करते हुए उसे कुइया में उतार दिया, हिला डुलाकर, थोड़ा आगे थोड़ा पीछे करके उन्होंने गुड़िया को टोकरी के अंदर ले लिया, फिर धीरे-धीरे रस्सी खींच
ली। तब तक शंकर निकल गया यह कहते हुए कि मां, मैं आपसे लौटकर बात करता हूं। डिंपी को दादी ने औंधा लिटाया, फिर उसका पेट दबाकर सारा पानी निकाल दिया। गुल्लो ऐसा करते हुए देख कर सीख रही थी,
‘दादी, जब कोई डूब जाए तो उसे उल्टा लिटाना चाहिए। पेट दबाकर उसका पानी निकालना चाहिए।
‘हां मेरी लाडो, नहीं तो पानी फेफड़ों में भर जाने से सांस भी रुक सकती है। ‘मेरी डिंपी की तो नहीं रुक गई, एक बार चैक करिए? गुल्लो एक पल को सांस रोककर देखने लगी।
‘नहीं बिटिया, इसको कुछ भी नहीं हुआ, तू चिंता ना कर। उन्होंने उसी एक पल निर्णय ले लिया, कल ही मिस्त्री बुलाकर इस खुली कुइया पर जाल और भीतर मोटर फिट करवा देंगी। न जाने कब कोई दुर्घटना घट जाए
शायद स्वपन और इस घटना का कोई ईश्वरीय इशारा था।
कल को डिंपी की जगह गुल्लो हुई तो!! वह ऐसा कभी नहीं होने दे सकती क्योंकि शंकर और उन्हें, स्वयं को भी कुइया के ठंडे मीठे पानी को बाल्टी से खींचकर नहाने में अति आनंद आता था इसलिए पिछले बीस सालों
से जिस कार्य को सरंजाम दिया न जा सका था। एक स्वपन के इशारे ने पल भर में तय करवा दिया।

‘हे भगवान मेरी बिटिया! उसे कुछ हो न जाए!’ वह भी कुइया में झांकने लगी थी। शंकर हतबुद्धि-सा कुछ भी सोच समझ नहीं पा रहा था, उसे लग रहा था कि इस बबाल में घर का एकाध सदस्य और न कूद जाए। तब तक गुल्लो को पानी ने सतह पर उछाल दिया था।‘
