Shukra Tirtha
Shukra Tirtha

Hindi Katha: सत्युग की बात है, अंगिरा मुनि के घर जीव नामक एक बालक और भृगु मुनि के घर कवि नामक एक बालक का जन्म हुआ। दोनों ही बालक बड़े बुद्धिमान थे। उनके यज्ञोपवीत संस्कार के समय महर्षि भृगु ने निश्चय किया कि उन दोनों बालकों को महर्षि अंगिरा ही शिक्षा प्रदान करेंगे। तदंतर उन्होंने कवि को अंगिरा मुनि की सेवा में सौंप दिया। किंतु अंगिरा बालकों के प्रति पक्षपात का व्यवहार करने लगे। वे उन्हें पृथक-पृथक पढ़ाते थे।

जब इस प्रकार अनेक दिन बीत गए, तब एक दिन कवि महर्षि अंगिरा से बोला – “गुरुदेव ! आप मुझे विषम भाव से पढ़ाते हैं। गुरु के लिए यह कदापि उचित नहीं है कि वे पुत्र और शिष्य में किसी प्रकार का भेदभाव रखें, क्योंकि शिष्य भी पुत्र के समान होता है। ऐसा करने वाले मनुष्य पाप के भागी बनते हैं। गुरुदेव ! चूँकि आपका व्यवहार पक्षपातपूर्ण है, अत: मैं यहाँ नहीं रह सकता। अब मैं किसी अन्य गुरु से शिक्षा प्राप्त करूँगा । ‘

यह कहकर उसने महर्षि अंगिरा से आज्ञा ली और अपने घर की ओर चल पड़ा। मार्ग में उसकी भेंट गौतम मुनि से हुई। उसने उनकी स्तुति कर उनसे श्रेष्ठ गुरु के विषय में पूछा।

गौतम मुनि बोले ‘वत्स ! केवल भगवान् शिव ही इस ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं। उनके समान परम ज्ञानी जगत् में कोई दूसरा नहीं है । वत्स ! सर्वप्रथम तुम गौतमी गंगा में स्नान कर पवित्र हो जाओ। फिर भगवान् महादेव की पूजा-आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो। परम दयालु और भक्त-वत्सल भगवान् महादेव शीघ्र ही प्रसन्न होकर भक्तों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। संतुष्ट होने पर वे तुम्हें विद्या अवश्य प्रदान करेंगे।

गौतम मुनि के कहने पर बालक कवि गोदावरी नदी के तट पर आया और वहाँ स्नान कर भगवान् शिव की आराधना करने लगा। उनकी श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् शिव साक्षात् प्रकट हुए और उनसे वर माँगने के लिए कहा।

.कवि उन्हें प्रणाम कर बोला ‘भगवन्! आप मेरे गुरु और आराध्य देव हैं। आप समस्त विद्याओं के ज्ञाता हैं। प्रभु! मुझे वरस्वरूप वे समस्त विद्याएँ प्रदान करें जो ब्रह्मादि देवगण तथा ऋषि-मुनियों को भी प्राप्त न हुई हों। “

तब देवाधिदेव महादेव ने उसे मृत संजीवनी नामक महाविद्या प्रदान की, जिसका ज्ञान देवताओं को भी नहीं था। साथ ही लौकिक, वैदिक और अन्य प्रकार की विद्याएँ भी प्रदान कीं। फिर विद्या प्राप्त कर कवि अपने पिता के पास लौट गया। आगे चलकर भृगु-पुत्र कवि दैत्यगुरु शुक्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने गोदावरी के जिस तट पर भगवान् महेश्वर की आराधना कर विद्या प्राप्त की थी, वह स्थान शुक्र तीर्थ कहलाने लगा।