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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

परमा हर दिन की तरह आज भी उषाकाल में जाग गया था। वह प्रातः ही स्नानादि से निवृत्त हो जाता था। लेकिन आज शीत लहर अधिक चल रही है। पिछले सप्ताह से ही बारिश हो रही है, जो थमने का नाम नहीं ले रही है। कहते भी हैं न- शनि की लागि शनि को ही भागी।’

परमा ने पानी को हाथ लगाया ही था कि, ओह-ओह का सुर निकालते हुए ऐसे भयभीत हुआ, जैसे दरिया चिनाब में गोता लगा दिया हो। उसने बेटी को आवाज लगाई। बेटी के उत्तर न देने पर पत्नी को भी आवाज दी। फिर उसे याद आया कि वह तो वैष्णों देवी गई है। उसने फिर से बेटी शानों को पुकारा। छोटी-सी शानो पिता के कहे को अनुसना कर रही थी। ठण्ड बहुत ज्याद थी। परमा जोर से बोला-“शानो, ओ शानो आधी बाल्टी गर्म पानी तो कर दे। आज इस ठण्डे पानी से नहीं नहाया जायेगा।’ शानो की उम्र कोई अधिक न थी। पौष की ठण्डी हवाओं का असर नन्हीं जान सहन नहीं कर पा रही थी। मातृविहीन शानो पिता की सुने या अनुसना करके सोई रहे। आखिर शानो ने पानी गर्म कर दिया। परमा स्नानादि से निवृत्त होकर अपनी दैनिक दिनचर्या में शामिल देव-अर्चना के लिए गाँव के शिव मंदिर जाता था। वैसे तो वैचारिक दृष्टि से सभी के प्रति उसमें साम्यभाव था, लेकिन था पक्का ब्राह्मणवादी। वह अपनी छोटी-सी हैसियत में भी जाति-पाति के अभिमान को बनाये हुए था। प्रतिदिन गाँव के चौगान पर कहता-“माँस नहीं खाओ, अण्डे आदि का आमिष भोजन मत खाओ, इसके सेवन से स्वस्थ नहीं, उल्टे बीमार पड़ोगे। शराब मत पीओ। यह तुम्हें ले डूबेगी तुम्हारा यह खराब हो जायेगा, वह खराब हो जाएगा।’

इस प्रकार के भाषण देकर भावुक हो जाता। एक दिन भाषण के बीच में ही शम्भु काका के पूछने पर कि, हमारे ताऊ तो पचास वर्ष की आयु में चल बसे। वे तो शराब को छूते भी नहीं थे। तभी परमा कह उठता, भाई रोगों का कौन-सा अन्त है, वे अनन्त हैं। यह मैंने कब कहा कि, शराब-मीट ही सभी की जान लेते हैं। यह तो तुमने ही कहा, शम्भु। इस प्रकार उसने शम्भु को चुप किया। कई दफा परमा स्वयं ही मकड़ी की तरह अपने ही बुने हुए जाल में फंस जाता। अपनी बातों का उत्तर स्वयं उसके पास नहीं था। यह बात वह जानता था। परमा चालीस का हो चुका था। बाल सफेदी पकड़ रहे थे और मूंछे सफेद होने को तैयार थीं। परमा हर हफ्ते एक अन्धेरी कोठरी में घुसते हुए कहता- ‘इस ओर कोई अपरिचित न आये।’ फिर वह अन्धेरी कोठरी से तीस बनकर निकलता था।

“शानो हर आगन्तुक से पिता का कहा दोहराती वे घर पर नहीं है। शानो को ड्रामेबाजी करने की क्या कला है?

‘परमा’ के शादी के बारह वर्ष के बाद शानो पैदा हुई थी। देवी-देवताओं के आगे मन्नते मांगने के बाद सावित्री ने शानो को जन्म दिया था। लड़की पैदा होने पर भी दोनों प्रसन्न थे। उनके माथे पर शिकन न थी। सारे गाँव में परमा ने बताशे बाँटे। सावित्री शानो के जन्म के बाद बीमार रहने लगी। एक दिन सावित्री चल बसी। परमा की तो मानो किसी ने सांसे ही खींच ली थी। उसने ही शानो का लालन-पालन किया। उसने बड़े यत्न से शानो को पाला। उसे लोरियाँ सुनाता। उसके लिए गीत गुनगुनाता। शानो के रोने पर कहता-‘बेटी शानो, ऐसे मत रोया। कर। तुम्हें रोता देखकर मेरा कलेजा भी रोता है। नाप-तौल के दफ्तर का चपरासी परमा कई बार जला-भुना भोजन करके दफ्तर चला जाता था। शानो भी साथ ही होती थी। महिलाओं की तरह कन्धे पर बैग और उसमें बच्चों से सम्बन्धित सारा सामान होता थी। रास्ते में लोग ताना कसते-‘परमा भाई यह अच्छा सम्भाला है। कुछ अपना भी और इस शानो का भी सोचो। कहने वाले चलते बनते। लेकिन ये लोग क्या जाने कि पाँव की फटी बिवाई कितना दुख देती है। उसके ऊपर जब तक जलती मोमबत्ती के अँगार न डालो, तब तक आराम नहीं मिलता है। परमा मन में कहता कि, भाई अगर यह बिवाई मेरे पैर फटी है तो इसकी पीडा भी मैं ही सहूँगा। आप क्यों मेरी शानो का उपहास उड़ाते हो।’

साहब जब आवाज लगाता- “परमा एक गिलास पानी।” वह शानो को बेन्च पर लिटाकर साहब के सामने पानी लेकर पेश होता। शानो के रोने की आवाज पूरे ऑफिस में सुनाई देती। आज भी ऐसा ही हुआ साहब के पूछने पर कि, यह किसका बच्चा है। परमा ने घबराहट में कहा यह मेरा बच्चा है।

“तेरा बच्चा! यह दफ्तर है या आँगनबाड़ी सेन्टर? बच्चे खिलाने हैं तो नौकरी छोड़ दो।’ इसके बाद गोलमटोल साहब हँसने लगा। परमा बरामदे में आकर सुबुक-सुबुक कर रोने लगा। आँखों में जैसे बाढ़ आ गई हो। इस दफ्तर में मानो सभी जानवर हैं। किसी ने भी एक बार भी नहीं पूछा कि, क्या बात है? रोने वाली, लेकिन स्टैनो तोषी ने क्या बात है परमा? तोषी के पूछने पर आंसु पोंछते हुए बताया, साहब ने मेरा और मेरी शानो का मजाक उडाया है। तोषी ने कहा-‘तुम इस मोटे की बातों को दिल पर मत लो। यह ऐसे यहाँ-वहाँ की फेंकता है। परमा को लगा कि, कोई तो है, जो उसकी पीड़ा समझता है। तोषी ने रोती हुई शानो को उठा लिया। तोषी भी बॉस की हरकतों से नाराज थी। तमतमाते हुए बोली-‘इस मुए की बीवी तो इससे पीछा छुड़ा करके दूसरे के साथ भाग गई। यह मुआ किसी का दुख क्या जाने! पता नहीं, इसका तबादला यहां से कब होगा। इसका तो न कोई आगे है न पीछे। तोषी अधिक क्रोधित थी। उन दोनों को बातें करते देखकर दूसरे सहकर्मी इशारे करने लगे। तोषी अधिक क्रोधित थी। उन दोनों को बातें करते देखकर दूसरे सहकर्मी इशारे करने लगे। तोषी इस दफ्तर में अकेली महिला थी। वह हद से ज्यादा फ्रैंक थी। उसके फ्रैंकपन का सहकर्मी गलत अभिप्राय निकालते थे। तोषी भी परमा की तरह अकेली थी। उसका पति श्रीलंका में शहीद हो गया था। जब दो सरकारों ने एक-दूसरे की सहायता की सन्धि की थी। तोषी का पति टेलिफोन से हालचाल पूछ लेता था। उसके शहीद होने के बाद ससुराल वालों ने गाँव के ओझा से मिलकर उसे डायन साबित कर दिया कि, इसी ने उसका बेटा खाया है। उस समय तोषी तीस वर्ष की थी। तोषी ने मिन्नतें की कि उसे घर में नौकरानी बनाकर ही रहने दो। तोषी की एक न सुनी गई। तोषी का कोई भाई नहीं था। एक बहन परदेश में रहती थी। अब योग्यता से स्टैनो है। वह बाहर से चाहे ही हँसती थी, लेकिन अन्दर से दुखी थी। उस थकी-हारी जिंदगी को शानो के रूप में एक नयी किरण दिखाई दी। वह मन में सोचती क्यों न शानो मेरी हो जाये। शानो को गले लगाकर उसे ऐसे सनतोष मिलता, मानो जैसे कोई छोटी नदी समुद्र में समाहित हो रही हो। परमा, शानो और तोषी इस तरह खुश होते। सोचता- मेरा क्या है, इसका मन खुश रहे। दफ्तार में एक दिन परमा नहीं आता तो तोषी साथियों से पूछ बैठती आज शानो नहीं आई? वे व्यंग्य से कहते- तोषी जी शानो या परमा।

“क्या मतलब आपका?’

‘हमारा मतलब है शानो, नाम की कोई भी मुलाजिम यहाँ काम नहीं करती हैं। यह कहकर सभी हँस पड़ते। लकिन वह चुपचाप सह लेती। वह मन ही मन उन्हें सबक देने का निश्चय करती। उसने बड़े साहब से शिकायत की तो उल्टे मजाक बनाते हुए बोला- ‘भंवरे फूलों पर न जाएंगे तो कहाँ जाएंगे।’ तोषी निराश होकर घर आ गई। वह नौकरी छोड़ने की सोचने लगी। उसके सामने शानो का चेहरा आ जाता। फिर सोचती- नौकरी छोड़ देगी तो कहाँ जाएगी। उसका कौन है, जो उसे सहारा देगा, जो उसे आश्रय देगा। ये सभी प्रश्न उसे रात भर परेशान करते रहे। उस रात वह सो न सकी।

“परमा मार ले डुबकी, अभी तुम भी जवान हो।”

“लोग सलाह देते।

‘आपका क्या मतलब है’

‘मतलब यह कि, तुम तोषी के साथ….

परमा यह सुनकर गुस्से में आ जाता।

“यह क्या बकवास कर रहे हो। तोषी जी और उसमें जमीन-आसमान का अन्तर है। मैं कहाँ और वे कहाँ? मैं वह एक मामूली चपरासी हूँ।

लोग कहते ‘अपना तो नहीं, कम से कम शानो का सोचो। उसे माँ मिल जाएगी और तुम्हें बुढ़ापे में सहारा। लेकिन शानो को तोषी अपनाएगी। उसकी बच्ची की हालत पड़ोसी गैंकू के बच्चों की तरह तो नहीं होगी। शैंक के बच्चों को जब उसकी दूसरी औरत मारती, तो पूरा मोहल्ला सुनता था। क्या करूं मेरी बच्ची भी ….। परमा इस ऊहोपोह में कई दिन रहा। क्या तोषी मान जाएगी। बीमार होने के कारण ऑफिस नहीं जा सका। तोषी घर आकर शानो से मिल जाती। परमा को तोषी भी मन की बात न कह पा रही थी। परमा को अब सही मायनों में शानो के लिए मां की जरूरत महसूस हुई। दफ्तर आने पर उसे फिर से साथियों के व्यंग्य बाणों का शिकार होना पड़ा।

“वाह! अब तो मेले घर में भी लगने लगे हैं अब तो परमा सच में स्वर्ग के झूले झूल रहा है। यह सुनकर परमा और तोषी परस्पर देखने लगे। फिर दोनों ही अपनी-अपनी जगह से उठे और एक-दूसरे की ओर बढ़ने लगे। साथ वाले सोचने लगे कि आज दोनों ही क्रोध में है। कहीं पीट न दें। सभी भयभीत होकर अपने अपने स्थान से पीछे हट गये। परमा काउन्टर के अन्दर आया और तोषी के हाथ को जोर से पकड़ लिए। शानो को तोषी ने उठा ली। तोषी परमा के गले लग गई। सामाजिक सीमाओं को लांघ कर उन्होंने एक होने का निर्णय कर लिए था। उन्होंने बातें करने वालों का मुँह बन्द कर दिया। तोषी और परमा ने एक होने का समझौता कर लिए था। शानो को माँ मिल गई।

ठक् ठक् ठक् परमा ने दरवाजा खोला। तोषी वैष्णो देवी से लौट आई थी।

तोषी और परमा ने एक होने का समझौता कर लिए था। शानो को भी माँ मिल गई।

ठक् ठक् ठक्। परमा ने दरवाजा खोला।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’