भाग – तीन
रागनी ने सैण्डल में पांव डाला और इधर-उधर पैर करके देखने लगी। अचानक पीछे से मुरली की आवाज सुनाई दी- ‘हाय, हाय अरे यह क्या करती है।’
‘देख रही हूं पहनकर!’ रागनी ने शोखी से कहा।
‘अरी, अगर मालकिन ने देख लिया तो तेरे पांव से निकलकर सीधा मेरे सर पर आएगा यह सैण्डल।’
‘कितना सुन्दर लगता है।’ रागनी ने पैर से उतार कर हसरत भरे स्वर में कहा।
‘और तेरे पैर में तो इसकी सुन्दरता और बढ़ जाती है।’ मुरली ने दांत निकालकर कहा।
‘बस, लगे खुशामद करने।’ रागनी ने चिढ़कर कहा- ‘ऐसे ही पुजारी हो कि आज तक दो रुपये की चप्पल तक लाकर नहीं दीं।’
‘अच्छा, दे देता तो क्या होता?’
‘मुझे मालूम होता कि तुम्हें मेरा कितना ख्याल है।’
‘और अगर सैण्डल ला दूं तो?’
‘तो मैं समझूंगी सचमुच तुम मुझे प्यार करते हो।’
‘और यही सैण्डल तुझे पहनने को मिल जाएं तो?’
‘सच……! तब तो मैं सोचने लगूंगी…।’
‘क्या? क्या सोचने लगेगी?’
‘यही… कि तुम्हारे बच्चों की मां बन जाऊं।’
कहते-कहते रागनी ने दोनों हाथों से मुंह छुपा लिया- मुरली लपककर रागनी के करीब आया और उसी वक्त बाहर से रामू को आवाज सुनाई दी-
‘अरे…… मालकिन सैण्डल मंगवा रही है।’
‘धत्त् तेरी……।’ मुरली बुरा-सा मुंह बनाकर बोला- ‘यह साला हमेशा गलत वक्त पर आता है। अब ओ रामू के बच्चे!’
‘जी साहब!’ रामू अन्दर आकर बोला।
‘आज बड़े मालिक का कोई सिगार गिराया… या नहीं।’
‘गिराया साहब… भला आपके लिए न गिराता!’
उसने सिगार निकालकर मुरली को दिया और मुरली ने बड़ी शान से सिगार दांतों में दबाया और सुलगाने लगा। रागनी ने सैण्डल उठाए और चलने लगी।
आशा ने आईने के सामने बैठकर अपने बालों का जूड़ा ठीक किया और फिर खड़ी होकर अपने आपको निहारने लगी। इतने में आईने में नौकरानी का अक्स नजर आया जो लम्बा-सा घूंघट काढ़े खड़ी थी। उसके हाथ में सैण्डल थे। आशा ने गुस्से से कहा- ‘इतने देर लगा दी पॉलिश में! ला इधर रख-।’
रागनी ने बढ़कर सैण्डल आशा के पैर के पास रख दिए। आशा ने पलटकर रागनी से कहा- ‘और देख! यह नाखूनों की सुर्खी सूख-सी गई है। इसे उठाकर बाहर फेंक दे, और वह जो क्रीम की शीशी हैं उनमें बाल गिर गया है वह भी उठाकर बाहर फेंक दे।’
रागिनी ने बढ़कर सुर्खी की शीशी और क्रीम उठा ली, आशा ने सैण्डल पहने और फिर चौंककर बोली- ‘अरे-यह सैण्डलों पर पॉलिश की है। जरा भी चमक न आई।’
‘ज…ज… जी मालकिन! म-मुरली जी कहते हैं इसका चमड़ा अच्छा नहीं है, इन पर चमक नहीं आएगी।’
‘अच्छा देख, रैक में से दूसरे सैण्डल निकाल-।’
रागनी ने दूसरे सैण्डल निकालकर आशा के पांव के पास रख दिए। आशा ने फिर कहा- ‘और इन सैण्डलों को उठाकर बाहर फेंक दे।’
रागनी ने सैण्डल उठाए और बाहर चली गई।
उसी वक्त नारायणदास कमरे में दाखिल हुए और बोले- ‘आक्खा… कहां जाने की तैयारी है हमारी बेटी की?’
‘तबियत घबरा रही है डैडी! मैं क्लब जाऊंगी-।’
‘जरूर-जरूर-। तबियत न घबराएगी तो क्या होगा? पन्द्रह दिन से कॉलेज नहीं गई। कोठी से कदम तक बाहर नहीं निकाला। हां बेटी- अब इम्तिहान करीब हैं। कॉलेज का क्या रहेगा?’
‘ओ डैडी- मैं उस कॉलेज में अब नहीं पढूंगी।’
‘क्यों बेटी!’
‘डैडी- मुझे अच्छा नहीं लगता। वहां लोग मुझे देखते ही राजन का जिक्र करने लगते हैं। कहते हैं कि राजन ने मेरी वजह से जान दी। अब बताइए, भला इसमें मेरा क्या कसूर है?’
‘तुम्हारा कोई कसूर नहीं बेटी! वे गन्दी नाली के बिलबिलाते हुए कीड़े ऐसे ही होते हैं। बड़े घराने की शरीफ लड़कियों पर डोरे डालने की कोशिश करते हैं। लड़की जाल में फंस गई तो समझो सुनहरी मछली जाल में आ गई। नहीं फंसी तो ख्वामख्वाह बदनाम करते हैं। इन लोगों की प्रकृति से मैं भली-भांति परिचित हूं। बेटी- बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।’
‘मुझे तो बहुत गुस्सा आता है डैडी! अगर वह मुझसे इश्क करता था तो मुझे क्या? वह अपनी मर्जी का मालिक था। मैं अपनी मर्जी की मालिक। भला कोई जानते-बूझते अन्धे कुंए में छलांग लगाता है। जिस आदमी के पास ढंग के कपड़े तक न हों, वह प्यार का दावा करने चला था। न हैसियत देखी, न जोड़-हुं…!’
‘छोड़ो बेटी, जहन्नुम में जाएं बकने वाले, तुम साल-दो-साल के लिए देश से बाहर चली जाओ या किसी हिल स्टेशन पर चली जाओ।’
‘मैं हिल स्टेशन ही जाऊंगी।’
‘ठीक है।’ नारायणदास ने मुस्कराकर कहा- ‘सेठ रघुनाथ का लड़का भी गर्मियां गुजारने हिल स्टेशन जा रहा है। वह अभी-अभी अमरीका से लौटा है। रघुनाथ तुम्हें पसन्द भी करते है। मैं उनसे कह दूंगा कि हिल स्टेशन पर आजकल होटल में जगह न मिलेगी, अपने बंगले में तुम्हारे लिए जगह का प्रबन्ध कर दें। मोहन का साथ रहेगा तो एक-दूसरे को समझ-बूझ भी लेना।’
‘ओ डैडी-ऐसी जल्दी क्या है। मैं अभी शादी नहीं करूंगी।’
‘बेटी! शादी तब ही होगी जब हमारी बेटी चाहेगी, लेकिन लड़का देख लेेने में क्या हर्ज है। रघुनाथ बहुत बड़े सेठ हैं आयरन लड़का देख लेने में क्या हर्ज है। रघुनाथ बड़े सेठ हैं आयरन किंग कहलाते हैं, आयरन किंग! और मोहन, उसने तो आयरन और जवानी का एक बड़ा हिस्सा अमरीका में गुजारा है बस, समझ लो पूरा अमरीकन है। क्या शान है उसकी। एक बार उसकी कार पर हल्की-सी खुरज लग गई थी, झट वह कार उठाकर अपने सैक्रेटरी के नाम कर दी और एक घंटे के अन्दर-अन्दर दूसरी कार कम्पनी से मंगला ली।’
‘ओ-सच डैडी-?’
‘अब मैं अपनी बेटी से झूठ बोलूंगा? सारे शहर के सेठों की नजरें हैं मोहन पर। लड़कियां तो तितलियों की तरह उसके इर्द-गिर्द मंडराती हैं। वह तो रघुनाथ मेरा बहुत पुराना दोस्त है। जाने क्यों वह तुम्हें पसन्द करने लगा है। कहता है मुझे वह चाहिए तो आशा जैसी। और फिर हमारी आशा भी किसी राजकुमारी से कम थोड़ी है। तो फिर टेलीफोन कर दूं रघुनाथ को?’
‘आपकी मर्जी डैडी।’ आशा ने आइने पर नजर डालकर चेहरे पर पफ मारते हुए कहा।
‘यह बात हुई। मैं अभी टेलीफोन किए देता हूं।’
नारायणदास तेजी से बाहर जाने के लिए पलटे और दरवाजे से बाहर निकल गए। आशा ने कुछ ऊंची आवाज में कहा-‘बसन्ती, तो बसन्ती!’
‘आई मालकिन-।’ बाहर से आवाज आई।
‘अरे, ड्राईवर से कह दे गाड़ी निकाले।’
‘अच्छा मालकिन-।’
रागनी खुशी-खुशी भागती हुई मुरली के कमरे में दाखिल हुई। मुरली एक लम्बी-सी पतलून पहनकर उसके पांयचे ऊपर कर रहा था। दांतों में सिगार दबा हुआ था। वह जल्दी से हाथ उठाकर बोला-‘हां…हां…हां वही-बाहर ठहरो!’
‘क्यों-?’ रागिनी घबराकर रुक गई।
‘पहले मैटिंग पर पांव मालिकों की-सी शान दिखाते हो।’
‘आक्खा-तुम तो मालिकों की-सी शान दिखाते हो।’
‘अच्छा-क्या मालिक नहीं हूं तुम्हारा?’
‘अभी नहीं, अभी हमारे फेरे कब हुए हैं?’
‘यह तो अपने मुकद्दर का फेर है।’ मुरली ने लम्बी सांस ली और कोट की आस्तीन भी ठीक करने लगा।
‘यह देखो?’ रागनी ने खुशी-खुशी सैण्डल दिखाते हुए कहा-‘मालकिन ने सैण्डल फेंक देने के लिए कहा है।’
‘देखो-!’ मुरली खुश होकर बोला-‘अब तो तू यह शिकायत नहीं करेगी कि मैं मुझे प्यार नहीं करता।’
‘कौन से तुमने लाकर दिए हैं।’
‘अच्छा जी! अगर मैं इनकी चमक खराब न करता तो क्या तुम्हें मिल जाते? अरे, यह तो मुरली के ही दिमाग का कारनामा है। अब देखो, यह सूट, मुझे बहुत पसन्द था। मालिक ने खासतौर से पसन्द करके सिलवाया था। मैंने इसमें जरा-सा दोष निकाल दिया-और आज-श्री मुरलींसिंह के जिस्म पर बहार दिखा रहा हैं।’
‘फिर वह बड़ी शान से सूट की क्रीज ठीक करके सिगार के कश लेने लगा। रागनी हंसकर जल्दी-जल्दी सैण्डलों में पांव डालने लगी।
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