शक्तिशाली नंद साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह और संघर्ष की घोषणा के दौरान, एक बार अमर अर्थशास्त्री तथा कूटनीतिज्ञ कौटिल्य (चाणक्य) को, एक निर्धन ब्राह्मण के यहाँ शरण लेनी पड़ी। भरपेट भोजन करने के बाद, चाणक्य भूमि पर आसन बिछाकर सोने लगे, परंतु नींद न आयी। तभी मेजबान ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी का शोक- संतप्त वार्तालाप चाणक्य ने सुना। पति कह रहा थाः
“अपनी गायत्री बेटी के लिए सुयोग्य वर अब शायद नहीं मिलेगा सभी यही कहते हैं कि कन्या सांवली, ठिगनी और चेचक के दागों वाली है।”
चाणक्य ने अभी-अभी उसी कन्या के हाथों का बना सुस्वादु भोजन ग्रहण किया था और उसके शील-स्वभाव से वे प्रभा- वित हुए थे।
अगले रोज चाणक्य ने चुपचाप, स्वामीवर्धन नामक एक सुशिक्षित ब्राह्मण कुमार से, उस सुघड़ कन्या का रिश्ता पक्का करके कहाः “जिस युवती के हाथों में पाक-विद्या है और जो शीलता, सरलतापूर्वक अतिथि सत्कार करना जानती। हो, उससे बढ़कर संदर कौन है? सच्चा सौंदर्य स्थायी गुणों में होता है, न कि क्षणिक चकाचौंध में!”
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