विजयनगर के कृष्णदेवराय ने जब राजगुरु व्यासराय के मुख से सन्त पुरन्दरदास के सादगी भरे जीवन और निर्लाेभिता की प्रशंसा सुनी, तो उन्होंने सन्त की परीक्षा लेने की ठानी और एक दिन सेवकों से सन्त को बुलवाकर उनको भिक्षा में चावल डाले। सन्त प्रसन्न हो बोले, “महाराज! प्रतिदिन मुझे इसी तरह कृतार्थ किया करें!”
घर लौटकर पुरन्दरदास ने प्रतिदिन की भाँति भिक्षा की झोली पत्नी सरस्वती देवी के हाथ में दे दी। किन्तु जब वह चावल बीनने बैठी, तो देखा कि उसमें छोटे-छोटे हीरे हैं। उन्होंने तत्क्षण पति से पूछा, “कहाँ से लाये हैं आज भिक्षा?” पति ने जब ‘राजमहल से’ जवाब दिया, तो सन्त-पत्नी ने घर के पास घूरे में वे हीरे फेंक दिये।
अगले दिन जब पुरन्दरदास भिक्षा लेने राजमहल गये, तो सम्राट् को उनके मुख पर हीरों की आभा दिखी और उन्होंने फिर से झोली में चावल के साथ हीरे डाल दिये। ऐसा क्रम एक सप्ताह तक चलता रहा।
सप्ताह के अन्त में राजा ने व्यासराय से कहा, “महाराज! आप कहते थे कि पुरन्दर- जैसा बैरागी दूसरा नहीं है, मगर मुझे तो वे लोभी जान पड़े। यदि विश्वास न हो, तो उनके घर चलिए और सच्चाई को अपनी आँख से देख लीजिए।”
वे दोनों जब सन्त की कुटिया में पहुँचे, तो देखा कि लिपे-पुते आँगन में तुलसी के पौधे के समीप सरस्वती देवी चावल बीन रही हैं। कृष्णदेवराय ने कहा, “बहन! चावल बीन रही हो?
सरस्वती देवी ने कहा, “हाँ भाई! क्या करूँ, कोई गृहस्थ भिक्षा में ये कंकड़ डाल देता है, इसलिए बीनना पड़ता है। ये कहते हैं, भिक्षा देनेवाले का मन न दुखे, इसलिए प्रसन्न मन से भिक्षा ले लेता हूँ। वैसे इन कंकड़ों को चुनने में बड़ा समय लगता है।”
राजा ने कहा, “बहन! तुम बड़ी भोली हो, ये कंकड़ नहीं, ये तो मूल्यवान् हीरे दिखायी दे रहे हैं।” इस पर सरस्वती देवी ने कहा, “आपके लिए ये हीरे होंगे, हमारे लिए तो कंकड़ ही हैं। हमने जब तक धन के आधार पर जीवन व्यतीत किया, तब तक हमारी दृष्टि में ये हीरे थे। पर जब से भगवान् विठोबा का आधार लिया है और धन का आधार छोड़ दिया है, ये हीरे हमारे लिए कंकड़ ही हैं। और बीने हुए हीरों को वह घूरे पर डाल आयी, जहाँ पिछले छह दिन के फेंके गये हीरे चमचमा रहे थे।
यह देख व्यासराय के मुख पर मन्द मुस्कान फैल गयी और सलज्ज कृष्णदेवराय माता सरस्वती के चरणों पर झुक गये।
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