भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
आज के समय में तो कतई नहीं, पर कभी रजनी को साँप से इतना भय लगता था कि साँप की तस्वीर या उसके जिक्र मात्र से ही मानो उसकी देह से रूह अलग हो गयी हो। हाथ-पाँव सुन्न और शरीर बर्फ का ठण्डा गोला बन जाता था। बचपन ने उसे साँप से भय का यह लाइलाज रोग सौंपा था जिससे निजात पाने के लिए उसे बरसों-बरस लगे। लेकिन उस समय इस गुमसुम और मासूम बालिका रजनी को देखकर भला कौन जान सकता था कि यह बच्ची सर्प-दंश से पीड़ित है। साँप की नजदीकी ने बालसुलभ नटखट शैतानियों को परे धकेल कर, उसके अन्तस में परिपक्व हृदयों के हाथ लगने वाली बेचौनियाँ भर दी थीं।
शाम के वक्त जब रजनी की सहेलियाँ उसके घर के बड़े से मेन गेट के उस पार से उचक-उचककर उसे पुकारतीं, तब छोटी बच्ची रजनी दौड़ती हुई रसोईघर में जाती जहाँ उसकी माँ अपनी देवरानियों के साथ रात के भोजन की तैयारी में व्यस्त होतीं। वह अलमारी से अपनी पसन्द का फ्रॉक लाकर अपनी माँ को सौंपते हुए उसे पहनाने की जिद करती और फिर उसे पहन ठुमकती हुई अपनी सहेलियों के साथ पार्क की तरफ चल देती। मगर रात का भोजन निपटने के बाद जब सब अपने-अपने बिछौने लेकर उनींदे और उबासी लेते हुए छत की राह पकड़ते तब रजनी के नजदीक भय का एक बेडौल साया मँडराने लगता। उसके नन्हे से हृदय के भीतर डर का कुकुरमत्ता उग आता। अंधेरा होते ही फिर अपने बिल से बाहर निकल आता वही काला साँप। बिना किसी आवाज के वह रजनी के नजदीक सरक आता और आकर उस बच्ची के सुन्न पड़े हुए ठण्डे शरीर को अपनी देह का शिकार बनाने लगता। पिछले कुछ दिनों से नित्य उसके बगल में जगह बनाने वाले इस साँप ने अपनी आदत के अनुसार रजनी की पीठ पर वार किया।
बच्ची रजनी की देह पर देर रात तक साँप की देह की सरसराहट रेंगती और उसके विकत मँह से फिर वही हिस्स-हिस्स की आवाज आने लगती और वह लगभग मूर्च्छित-सी बिना करवट एक तरफ पड़ी रहती। उसकी बालसुलभ नींद, आकाश में टिमटिमाने वाले अनगिनत सितारों के लम्बे-चौड़े जाल में उलझ जाती। इस बड़ी-सी छत पर सोने वालों में सिर्फ छोटी-सी बच्ची रजनी ही है जिसकी नींद में ख्वाब नहीं, साँप है और साँप की लिजलिजी देह की शूल-सी चुभन है। रोज की तरह दादा के बड़े से घर की बड़ी-सी छत पर सब बेखबर सो रहे हैं, कई गद्दे फर्श पर बिछे हैं और कुछ चारपाइयाँ पंक्तिबद्ध लगी हुई हैं घर के बड़े-बुजुर्गों के लिए। नींद में कोई अपनी खर्राटों से सीटी जैसी आवाजें निकाल रहा है तो किसी के खर्राटे डफली की तरह सुनाई पड़ रहे हैं। कोई बुरे सपनों की गिरफ्त में आकर हलकी चीख जैसी ध्वनियाँ निकाल रहा है तो कोई किसी सपने में डूबकर मन्द-मन्द मुस्करा रहा है। इस बड़े से संयुक्त परिवार में पाये जाने वाले लोगों में सभी गुण-दोष शामिल हैं, सब अपने स्वार्थों की गठरी पर बैठे हैं, सबके अपने-अपने जीवन के उतार-चढ़ाव, खुशियाँ, दुख-दर्द और परेशानियाँ हैं, लेकिन सब एक-दूसरे से इसे साझा कर खुद को हलका कर लेते हैं, मगर रजनी ही है जो अपनी पीड़ा को अपने भीतर ही दबोचे बैठी है। दादा-दादी, ताई-ताऊ उनके तीनों बच्चे, चाचा-चाची उनके चार बच्चे, मम्मी-पापा, रजनी और उसका छोटा भाई। सभी बच्चे बड़ों की चारपाइयों से कुछ दूर के कोने में एक साथ नीचे सोते है और साँप भी।
नौ साल की रजनी बच्चों में सबसे बड़ी है। रजनी के अतिशय भोलेपन और भावुकता का फायदा उठाते हुए साँप ने अपनी जगह बनायी है। हर रात रजनी, साँप को अपनी आत्मा पर ढोती है। पीछे से वार करता साँप भोर होते ही गायब हो जाता है। साँप जाते-जाते अपनी केंचुली वहीं छोड़ जाता है और फिर दिन-भर रजनी को उसकी वह केंचुली डराती-रूलाती है। स्कूल में रजनी की सहेलियाँ रात में देखे सपनों के बारे में बतियातीं, जिनमें अक्सर खूबसूरत परियाँ होती, या फिर वे ढेर सारे बच्चों के साथ बहुत सारे झूलों वाले पार्क में खेल रहे होतीं। एक रजनी ही थी जिसकी नींद में किसी सपने ने अपना घर नहीं बनाया था। उसके लिए तो रात उस डर का नाम था जिसे उसकी अपनी माँ के आँचल का आश्वासन भी दूर नहीं कर सका। रजनी को इस डर से मुक्ति उस समय मिली जब उसके माता-पिता और छोटा भाई दादा के घर को छोड़कर गाँव में आ गये जहाँ उसके शिक्षक पिता का तबादला हुआ था। गाँव एक बडत्रे शहर के साथ लगने के कारण गाँव-सा नहीं दीखता था। रजनी साँप से दूर चली आयी। मगर बरसों उसकी नींद में वही कलमुँहा साँप अपनी केंचुली छोड़ता रहा और वह बरसों तक उसे मुक्ति पाने के मानसिक द्वन्द्व में उलझती रही।
जब-तब साँप उसके वर्तमान में उतर आता, रजनी की स्मृतियों को जहरीला करने। उम्र की परिपक्वता आने के साथ-साथ उसने साँप से दूर जाने के बहुत प्रयत्न किये। वह नये-नये शौक ईजाद करती और उनमें डूबने की कोशिश करती। मगर अब भी यदा-कदा साँप अपनी राह से भटककर उसके कदमों के नजदीक आ धमकता। कितने बरस बीत गये पर उसकी स्मृति में लौटने वाला वह साँप बूढ़ा नहीं हुआ। उसके आने की सरसराहट रजनी के भीतर वही बचपन वाली कँपकँपी छोड़ती रही और रात में अचानक से उसकी नींद खुलती रही।
इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा के लिए महानगर आने पर भी रात के किसी न किसी पहर में जब-तब उतर आता वह साँप तब रात उसके लिए बोझ बन जाती और उसे नींद की गोलियों का सहारा लेना पड़ता। रजनी देख रही थी महानगर का जीवन उसके कस्बेनुमा गाँव के जीवन से कितना अलग था। कहाँ गाँव में दिन ढलने के साथ ही रात के खाने की तैयारी शुरू हो जाती और कहाँ उसके हॉस्टल की लड़कियों के लिए रात जैसे शाम का विस्तार थी, अधिकतर लड़कियाँ सुबह चार-पाँच बजे सोतीं, दस बजे उठतीं और फिर हड़बड़ाते हुए बिना नहाये ही कॉलेज की राह पकड़तीं। अनुशासनरहित अस्त-व्यस्त दिनचर्या में साँस लेती लड़कियाँ अपने-अपने परिवेश की जकड़न से छुटकारा पाकर इस नयी दिनचर्या का भरपूर आनन्द उठा रही थीं। समय पर घर आने के निर्देश और मनचाहे कपड़ों के पहनने की पाबन्दी से दूर मुक्त जीवन में साँस लेती लड़कियाँ और उनके बीच में गाँव से सीधे चली आने वाली रजनी। रजनी को बहुत समय लगा महानगर की लड़कियों के मिजाज से कदमताल करने में।
मगर वह भी बदली और इरादतन बदली, वह अपने आप को इसलिए भी बदल रही थी क्योंकि उसे बहुत दूर जाना था, पुरातन रीति-रिवाजों की दुर्गन्ध से बहुत दूर चले जाना था। उसे जीवन अपनी माँ, नानी, ताई, चाचियों जैसा चुप्पा नहीं बनाना था। यह लड़ाई आसान नहीं थी।
सबसे बड़ी लड़ाई तो खुद को उस बदसूरत साँप की स्मृतियों से दूर धकेलने की थी। धीरे-धीरे उसे पता चला कि हॉस्टल की कई लड़कियों को अपने बचपन में साँपों का सामना करना पड़ा था और साँप भी अजनबी नहीं करीब के परिचित ही थे, इतने करीब कि कोई उनके असली रूप पर आसानी से विश्वास ही न कर सके कि ये करीबी साँप बनकर मासूमों को डस भी सकते हैं और उनके पूरे जीवन में जहर भर सकते हैं। इतना ही नहीं कुछ लड़कियों का सामना तो अजगरों और भेड़ियों से भी हुआ था। उन लड़कियों की कोमल देह पर उन वहशी जानवरों के नाखूनों और दाँतों के निशानों की कल्पना करती ही रजनी भीतर से सिहर उठी थी। कितनी हिम्मती हैं ये लड़कियाँ जो अपने जीवन की नाव को खेते-खेते यहाँ तक चली आयी थीं। उसे भी साँप को मार देना होगा, उसकी स्मृति के फन को कुचल देना होगा। मगर कड़वी स्मृतियाँ भी इतनी आसानी से कहाँ पीछा छोड़ती है।
रजनी के पेइंग गेस्ट हॉस्टल की छत पर डिनर के बाद लड़कियों की सैर शुरू हो जाती है। उसके हॉस्टल में फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने वाली लड़कियाँ ही अधिक हैं, इन फैशनबल लड़कियों की सैर, सैर न होकर कैटवॉक ही अधिक लगती। अपने-अपने फोन पर परिवारवालों के साथ या अपने-अपने बॉयफ्रेंड्स के साथ हँसती-गपियाती, लड़ती-झगड़ती पी.जी. हॉस्टल की इन लड़कियों की सैर में अब रजनी भी शामिल हो चली है। पिछले दिनों रात के भोजन के बाद आधे घण्टे की सैर उसकी दिनचर्या में शामिल हो गयी है।
इस हॉस्टल की मकान मालकिन के पास दो बिल्डिंग्स हैं, जिनकी छते एक साथ है। एक इमारत में हर मंजिल पर फ्लैट हैं और दूसरी इमारत में होटल की तरह कमरे और लम्बा-सा कॉरिडोर। कुछ दिन हुए रजनी ने कॉरिडोरनुमा कमरे से कनकलता के साथ वाली इमारत के तीसरे माले के एक फ्लैट में शिफ्ट किया है। आज भी दोनों इमारतों की छतों पर रोज रात की तरह लड़कियों की टहल की गहमागहमी है। इस चहल-पहल भरे समय में भी रजनी बहुत उदास और खिन्न-सी लग रही है, दोपहर बाद से ही उसका मूड कुछ उखड़ा हुआ है।
जीवन भी एक बार तो दूसरी तरफ करवट लेता है
कनकलता और रजनी में एक पीढ़ी का अन्तर है मगर दोनों के बीच स्नेह की कोंपल उगने में थोडी-सी भी अडचन नहीं आयी। कनकलता को आज भी अच्छे से याद है, उसके रूम में आते ही अपने दोनों कन्धों से दो-चार छोटे-बड़े बैग उतारते हुए रजनी ने कहा था,
‘दीदी जानती हैं मैं अक्सर आपको छत पर टहलते हुए देखती थी। किसी ने बताया कि आप राइटर हो तो मुझे लगा आपके फ्लैट में शान्ति होगी, पढ़ने-लिखने का माहौल होगा। इसलिए मैंने हॉस्टल की मालकिन से कहकर यहाँ शिफ्ट किया।
सुनकर मुस्करा भर दी थी कनकलता।
इस फ्लैट में न जाने कितनी ही पेइंग गेस्ट लड़कियाँ आयीं और गयीं। उँगलियों पर इसका हिसाब-किताब करे तो सबकों याद करना भी मुश्किल है। पूरे दस साल हो गये कनकलता को यहाँ टिके हुए। इस हॉस्टल में वही सबसे पुरानी भूत है।
कनक को भी जैसे कोई चीज, जगह या प्रसंग पकड़ लेता है तो उससे छुटकारा पाना उसे कठिन लगता है। इस हॉस्टल न जैसे उसके पकड़ लिया था, यहाँ की आबोहवा उसे रास आ गयी थी। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। इस जगह से उसके अखबार का दफ्तर भी नजदीक ही है और साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र भी उसके हॉस्टल से अधिक दूर नहीं। कनकलता ने अभी-अभी एक कविता लिखकर पूरी की थी। उसे दिल्ली रेप की पीड़िता ‘निर्भया’ के परिवारवालों द्वारा दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम ‘निर्भया के लिए’ में शामिल होना था।
रजनी ने भी उस कविता को पढ़ने की इच्छा जाहिर की, उसने कविता को सस्वर पढ़ा-
“यह देह की नहीं
आत्मा की बात है
जिसके बारे में ख्यात है-
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः’
यानी आत्मा को कोई शस्त्र या आग नष्ट नहीं कर सकते
हाँ वही आत्मा
जो सूई के छेद के उस पार आसानी से चली जाती है
बर्फीले पर्वत के शिखर पर भी जिसे ठिठुरन नहीं होती
वहीं आत्मा कुछ कर रही है,
ध्यान से सुना
‘जिस तरह मच्छर
तुम्हारी मर्जी के बिना तुम्हारी देह का लहू ले उड़ा
उसी तरह से उस काली रात को भी देखो
जिस चीज में तुम्हारी हामी नहीं
वह एक प्रतिशत भी तुम्हारी नहीं
तुम्हारा तो आने वाला कल है
जिसके सर पर लगी है सुनहरी कलगी
जिसकी नजरें सदा आगे की ओर देखती हैं
कविता पढने के बाद कागज को मेज पर रखकर कछ पल वह ठिठकी खड़ी रही जैसे किसी दूसरी दुनिया में उलझ गयी हो। उसका कोमल चेहरा पत्थर की तरह कठोर हो गया था।
रजनी, क्या सोचने लगी,’ कनकलता ने पूछा।
‘नहीं, कुछ नहीं दीदी,’ उसकी आवाज जैसे गहरे कुएँ से निकली थी।
पर कनकलता ने उस ‘कुछ नहीं’ के भीतर के जहरीले संसार की थोड़ी-बहुत थाह उसी रोज पा ली थी जिसका राज उस उमस भरी रात को खुला जब भोजन के बाद टहलते वक्त रजनी फिर कुछ पेरशान-सी दिखी।
याद है कनकलता को जून माह का वह दिन बेहद गर्म था। पहले से टहल रही थी कनकलता कि अचानक कुछ सोचने में गुम रजनी चुपचाप आकर कनक के विपरीत दिशा में टहलने लगी। अपनी दुनिया से बाहर निकलने पर उसे कनक को घूमते हुए पाया। कनक फोन पर थी, फोन से निपटने के बाद अपने साथ कदमताल करती उदास रजनी को देख उसने तुरन्त ही उसकी उदासी की थाह पा ली थी।
“क्या बात रजनी?”
“कुछ नहीं कनक दीदी।”
“कुछ तो है।”
“मन कुछ ठीक नहीं।”
“क्या हुआ मन को?”
“आज मुझे मेरा बचपन परेशान कर रहा है।”
“बचपन और परेशानी-यह बात समझ में नहीं आयी। बचपन तो मस्ती और हँसी-खुशी का नाम है।” कनक ने रजनी की तरफ चेहरा करते हुए कहाँ रजनी की गर्दन नीचे की तरफ कुछ झुकी हुई थी वह फर्श की तरफ देखते हुए धीरे-धीरे अपने कदम आगे की ओर रख रही थी।
“दीदी, मगर मेरा बचपन ऐसा खुशगवार नहीं रहा।”
कनक के थोड़ा-सा कुरेदने पर ही रजनी ने अपने बचपन में उस साँप की मौजूदगी की बात बता दी और साथ ही आक्रोश में भरकर यह भी कह डाला कि मैं इस बार घर जाऊँगी तो अपनी माँ से पूछंगी कि आपने मुझसे रात को इतनी दूरी क्यों बना ली कि साँप को आने की जगह मिल गयी। आपकी असावधानी ने ही साँप को मेरे जीवन पर लाद दिया। आज भी वह साँप बार-बार मेरी आत्मा से लिपट जाता है।
कनक समझ रही थी रजनी के भीतर का गुस्सा, उसके भीतर की बेचौनी।
“कनक दीदी, आज भी धीरेश के साथ निजी पलों में भी कभी-कभार वह साँप रेंगते-रेंगते सामने आ जाता है और मैं गठरी-सी बन जाती हूँ। कुछ पल रूकने के बाद रजनी आगे बढ़ी, पिछले दिनों मैंने धीरेश को यह सब बताया था जिसे सुनकर वह बहुत हैरान, परेशान और गुस्से से भर गया था। साँप का किस्सा मेरे भीतर एक अजीब-सा आक्रोश भर देता है।”
“लेकिन क्या तुम उस समय किसी के इतने नजदीक नहीं थीं कि अपनी बात किसी से कह सकती,” पूछा कनक ने।
मुझे अपने घर के बड़ों से डर लगता था, कई बार बच्चों की लड़ाई में बड़े भी हिंसक हो उठते थे, और फिर अपने सभी नये-पुराने हिसाब निकालने लगते थे इससे घर के सभी बच्चे बुरी तरह से सहम जाते थे। जाति-पाँति में घोर विश्वास करने वाला परिवार और गाँव हर दूसरे दिन किसी जातिगत झगड़े में शामिल होता।
मेरी सबसे छोटी बुआ का पड़ोस के कुम्हार टोले के लड़के से प्रेम हो गया। एक दिन जब इस ख्बर ने घर में प्रवेश किया तो मेरी दबंग दादी और माँ ने उसके टोले में ही जाकर खूब पिटाई की जिससे वह अधमरा हो गया। उस पर भी पंचों ने लड़के और उसके परिवार को ही सजा दी। हम सब बच्चे ज्यादा कुछ न जानते हुए भी डर गये थे और यह डर मेरे भीतर घर कर गया था कि यदि मैं साँप के बारे में दादी या माँ को बता दूँगी तो साँप की भी वही गति होगी। और मुझे कई बार ख्यालों में साँप के मुँह से निकलता सफेद झाग दिखता और मेरा मन एकदम से कच्चा हो जाता।
कुछ बड़ी होने पर युवा लड़कियों की तरह अपनी देह से मेरा मोह जाता रहा, बनाव-सिंगार के प्रति भी मैं लापरवाह रही। मेरा परिवेश मुझे हर कदम पर संकुचित करने लगा। मुझे लगता था मैं वह गुनाहगार हूँ जिसे अपना ही गुनाह मालूम नहीं। यह कहकर रजनी बेहद उदास हो गयी।
फिर मेरे जीवन में सहपाठी रमेश का आगमन हआ. वह जब मेरे करीब आता मैं भाग खड़ी होती। तब मैं खुद को लेकर इस कदर संशयग्रस्त थी कि मुझे नहीं लगता था कि मैं रमेश जैसे प्रतिभाशाली लड़के के योग्य हूँ। मैं उसे अपने भीतर के जहर से दूर रखना चाहती थी। और मैंने अपने को उससे बहुत दूर कर लिया।
यह महानगर ही था जहाँ पर आकर मैंने खुद को समझा। अपनी देह, अपने मन, अपनी आत्मा को पढ़ना शुरू किया और जीवन में घुलना-मिलना शुरू किया। अब मैं खुद को बिल्कुल अलग इन्सान पाती हूँ। मगर फिर भी कहीं से उदासी का एक काला बादल आकर मुझ पर बरसने लगता है। और सचमुच उस दिन रजनी की उदासी के बादल कनक के लाख दिलासा देने के बाद भी न छुट सके थे।
उस रात रजनी के बचपन ने कनकलता की नींद छीन ली। कई बार उसके सामने रजनी का बाल रूप आया जो साँप से डरकर गठरी-सा बन जाता था। उसके पास कई लोग थे सबके हाथ बंधे हुए थे। आज के समय में जो रजनी है, वह बचपन की उस भयग्रस्त रजनी से कहीं अलग है। कनकलता को भी कभी-कभी लगता है यह वह रजनी नहीं है जो नाइट सूट पहने सकुचाते हुए उसके कमरे में आयी थी। और अनकलता की बनायी चाय का कप जल्दी से सुड़क कर उसकी कविता पढ़ने के साथ ही स्टडी टेबल साफ करके उस पर किताओं को सजाने लग गयी थी। कुछ ही दिनों में कनकलता ने जान लिया था पढ़ाई में औसत से भी नीचे, पर लगन की पक्की रजनी नाम की इस लड़की को, जो अक्सर बड़े जोश में भरकर कहती, ‘कनक दीदी, देखना मैं कुछ ही दिनों में अपना वजन कम कर लूंगी और इस साल इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा भी…।’ वह सुबह-शाम योगा करती और कई घण्टे अपनी स्टडी टेबल पर सिर झुकाये बैठी रहती, पर यह सिलसिला कुछ ही हफ्ते चला। कनक के फ्लैट के दूसरे कमरे में रहने वाली फैशन टेक्नोलॉजी की छात्रा रश्मि के रहन-सहन और उसकी विलासिता से प्रभावित होकर रजनी ने कुछ ऐसी छलाँग लगायी कि सब उस गुमसुम और सहमी-सी रहने वाली पुरानी रजनी को भूल गये। अब तो उसका आईना भी उसे इसी बदले रूप में देखना चाहता है, जिसमें वह खिलखिलाती है। अक्सर रश्मि की तरह ही रजनी की उँगलियों में भी सिगरेट फंसी रहती है, उसके मुँह से झरते डबल मीनिंग जोक्स और फिर बाकी लड़कियों के ठहाके अब कनकलता के आसपास गूंजते हैं।
कई दिनों से कनक देख रही है कि साँप रजनी से दूर है। कल ही रजनी ने कनकलता की सबसे बड़ी बहन की बेटी की शादी में राजस्थान के एक पिछड़े इलाके में बसे गाँव में जाने का प्रस्ताव मंजूर किया है और शादी मे ले जाने वाले कपड़े प्रेस कर रही है। कनकलता के घर में रिश्तेदारों की चहल-पहल थी। सुनीता के हाथों-पैरा पर मेहंदी लगायी जा रही थी। उसके आसपास कई बुजुर्ग व युवा महिलाएँ और बच्चियाँ बैठी हुई थीं और समवेत स्वर में साजों की सरगमों के साथ राजस्थानी विवाह-गीत गा रही थीं-
मेहंदी बाट सिलावटां जी रंग बाट्या रंग आय।
मेहंदी द्यो न जी, बहू गुड्डी दे रे हाथ। मेहंदी राचणी।
मेहंदी द्यो न जी, बहू सुनीता रे हाथ। मेहंदी राचणी।
मेहंदी द्यो न जी, बहू सुशीला दे रे हाथ। मेहंदी राचणी।
हाथों मेहेदी राचणी, चन्द्रबाई रो चूडलो हाथ।
गीत-संगीत, हँसी-चुहल और खानपान के बाद कनकलता और रजनी ने भी अपने दोनों हथेलियों पर आगे और पीछे की ओर मेहंदी लगवायी और सोने ऊपर छत पर आ गयीं। उस घर की बड़ी-सी घत भी रजनी के दादा के घर की छत जैसी थी, वैसे ही बड़े चारपाइयों और बच्चे थोड़ी दूर उस कोने में सोने की तैयारी कर रहे थे। रजनी को अपना कड़वा बचपन याद आ गया और साँप भी। एक सिहरन-सी उसके भीतर दौड़ गयी। रजनी और कनकलता का बिस्तर एक साथ ही लगा था। रजनी को अजनबी जगह में नींद आने में परेशानी होती है उस पर दोनों हथेलियों पर लगी मेहंदी उसे असहज कर रही थी उसका मन हो रहा था कि वह अपने हाथ धो ले, मगर इतनी मेहनत से लगी मेहंदी कैसा गाढा रंग लेकर आयेगी, उसे यह देखना है और ऊपर से कनक दीदी का हाथ न धोने का निर्देश भी है। अचानक उसने देखा एक महीन-सी परछाई कुछ दूर सोयी हुई एक छोटी बच्ची की तरफ आयी और उसके बगल में टिक गयी।
‘ओह फिर वही साँप-एक हलकी चीख के साथ उसने कनक को उठाया, शोर सुनकर कई लोग उठ गये। कोई कुछ कहता इससे पहले ही रजनी पास पड़ा एक डण्डा लेकर उस काले साँप पर पिल पड़ी। तभी कनक के मामा ने रजनी के हाथों से डण्डा ले लिया। पाँव पर मार लगने से साँप साथ लगने वाली छातों को टापता हआ लोप हो गया। उसकी खोजबीन करने गये घर के पुरूष लौट आये, उसी गली में कुछ घरों की दूरी पर रहने वाले नौकर की पहचान के साथ। इस बार साँप को हवालात में जगह मिली, सबने चौन की सांस ली और सब फिर से शादी की गहमागहमी में गुम हो गये। सबसे अधिक सुकून जैसे रजनी महसूस कर रही थी। उस दिन उसने गहरी नींद ली और दोपहर तक सोती रही। शाम को घर के छोटे बच्चों को एक बड़े से गोल दायरे में बिठाकर साँप को मार डाले जाने की कहानी भी सुनायी जिसका मॉरल था कि साँप से कभी डरना नहीं चाहिए और अपने बड़ों को तुरन्त ही इसकी जानकारी देनी चाहिए। वापिस महानगर लौटते समय पूरे रास्ते रजनी के चेहरे पर एक चमक देखी कनकलता ने। आने के तुरन्त बाद ही कनक को एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में तीन महीने कोलकाता रहना था। आज ही महानगर लौटी कनक सफर की थकान उतारने के बाद चाय का कप लेकर बालकनी में बैठी ही थी कि रजनी ने भी एक की उसके नजदीक खींच ली। कनक ने गौर से रजनी के चेहरे को देखा वहाँ पीलापन दिखा। रजनी ने सिगरेट जला ली थी, “कनक दीदी, आपको मालूम है पिछले महीने ही मैंने एबॉर्शन करवाया है।”
सुनते ही कनक धड़ाम से नीचे गिरी
“क्या कह रही है तू।”
“हाँ दीदी, यह सब धीरेश की असावधानी का ही परिणाम है। डॉक्टर ने साफ कहा है, अपने शरीर का खयाल तुम्हें खुद रखना है। इस तरह एबॉर्शन से आगे के वैवाहिक जीवन में तुम्हें खतरा हो सकता है आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए।”
कनक जानती है धीरेश और रजनी के बीच साफ है कि वे शादी नहीं करेंगे। रजनी से पाँच साल छोटा है धीरेश और उसके भाई-बहन भी अविवाहित हैं पहले उनकी शादी होगी और फिर जाति का भी पंगा है। जबकि रजनी की शादी इस साल नही तो अगले साल निश्चित है, मगर रजनी को जब तक हो सके धीरेश का साथ मंजूर है। उससे दस साल बड़ी कनक को नयी पीढ़ी के रिश्तों को लेकर यह लापरवाही काफी अजीब लगती मगर उसने बहुत पहले ही किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप न करने का मन बना लिया था और आज भी वह उसी पर कायम है।
“दीदी, हमारा रिलेशन बहुत साफ है, पर्सनल भी फिजिकल भी। मैं तो कई बार धीरेश से कहती भी हूँ कि मैं अपने पति से सैटिस्फाइड नहीं हुई तो मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी। और हर बार धीरेश थोड़ा डरते हुए कहता है-नहीं, प्लीज ऐसा मत करना।”
हमेशा की तरह अपने निजी जीवन को बिन्दास अन्दाज में शेयर कर रही थी रजनी और कनकलता उसकी बातें सुनकर हमेशा की तरह विस्मित थी-रजनी सचमुच बहुत बदल गयी है। अगले दिन शाम के समय कुछ लिख रही थी तभी करीब एक आहट ने उसका ध्यान भंग किया। कनकलता ने सिर उठाकर देखा-सामने अपने दोनों हाथों में चाय का कप लिए रजनी खड़ी थी।
“लो दीदी चाय, मैंने आपसे बिना पूछे ही बना ली। मुझे पता है चाय के लिए आप कभी मना नहीं करती।”
सुनकर कनक मुस्करायी और उसके हाथों से कप लेकर साइड टेबल पर रख दिया।
“यह क्या लिख रहे हो आप?”
“मेरी फेवरेट इतावली कवयित्री की कविता का अनुवाद किया है अभी।”
“आपकी फेवरेट’, फिर तो पढ़ना होगा, रजनी ने कविता को पढ़ना शुरू किया-
और करो फिर से प्रेम
यौन-क्रिया नहीं, केवल प्रेम
और मेरा इरादा मेरे चेहरे पर हौले-धीमे वेग के
गर्दन पर, पेट पर, पीठ पर,
तुम्हारे दिये चुम्बनों से है
काट डालो ये होंठ, लाँघ डालो सारी हदें अपनी
इन दो हाथों से
और जोड़ो अपनी आँखों में आँखें मेरी
मैं कहना चाहती हूँ समेट लो एक बेहद घनिष्ठ प्रेमालिंगन में
दोनों को कर लो एक
देह के हर हिस्से में व्याप्त हो जायें और टकराने लगें
एक-दूसरे से हमारी आत्माएँ,
एक-दूसरे की खरोंचों पर करें दुलार, संवेग से उतारें
एक साथ
अपने-अपने वस्त्र
जीवन-संकेतों की की दुर्बलताओं पर
चुम्बनों की कर डालें बौछार
जब तक कि ये पल थोड़े
होने लगें गलत
खुश्बू को समेट लें दोनों की साँसें
दोनों के हृदय धड़कें एक ही समय में
चाहती हूँ कि मेरे शरीर पर तुम्हारी उँगलियाँ बना डालें
नक्षत्र
एक ही समय में धड़कें दोनों के हृदय
एक ही लय के साथ यात्रा करें दोनों की आहे
और मुस्कान
अन्त में ईमानदार रहें इन
कुछ पलों के प्रति
जब ये पल नहीं होंगे साथ हमारे
हाँ, प्यार करें हम और करें प्रेम निस्संकोच
चूँकि प्रेम एक कला है और
हम तुम कृतियाँ
कविता खत्म कर डायरी को बन्द करते हुए रजनी, कनकलता को देखकर मुस्कुराते हुए बोली-
“दीदी आप कब से ऐसी बोल्ड कविता पसन्द करने लगे।”
“जब से तेरी सोहबत मिली है मुझे।”
यह सुनते ही जोर से हँसी रजनी और सिगरेट के कश लेते हुए धुएँ के छल्ले बिखराने लगी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
