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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

लाइफ कोच डॉ. निनाद अपने क्लीनिक में बैठे अपनी नई पेशेंट अहाना की फाइल में उलझे थे।

अहाना अपनी ऑफिस कलीग के साथ उनके सामने की कुर्सी पर अपने दोनों हाथों की अँगुलियों को एक दूसरे में फंसाये बैठी दाँयें-बाँये केबिन के चारों ओर नजरें दौड़ा रही थी।

केबिन की एक दीवार पर शर-शैय्या में बिंधे देवव्रत भीष्म और उनके पास खड़े कुछ समझा रहे कृष्ण छवि का मधुर तैलचित्र लगा था। अपलक उस चित्र को निहारता देख, डॉ. निनाद ने मुस्करा कर अहाना से पूछा आपके इष्ट?

हाँ शायद, वैसे मुझे भी ठीक से पता नहीं। जवाब साथ बैठी ऑफिस कलीग अधिश्री ने दिया।

“क्या प्रॉब्लम है आपको?” डॉ. एक बार फिर अहाना की ओर मुखातिब हुए।

उसने डॉ. के प्रश्न का कोई सीधा-सा जवाब न देकर अपनी ही भावदशा में खोय-खोये सी बोली;

“आप पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपिस्ट भी हैं न।”

एक मिनट मौन के बाद उन्होंने कहा;

“हाँ, हूँ तो।”

“कन्हैया ही शायद सबसे पहले पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपिस्ट रहे होंगे।” अहाना बुदबुदाई।

“जी आपने कुछ कहा…?” निनाद को लगा कि अहाना ने कुछ कहा लेकिन अहाना ने मना कर दिया।

“हे! वासुदेव मैं बाणों की शय्या पर किस कारण हूँ जबकि मैं गंगापुत्र भीष्म कभी अपने मन में भी पाप कर्म में लिप्त नहीं हुआ?”

केशव की मुस्कान चौड़ी हो गई उन्होंने कहा “भीष्म तुम आंखें बन्द करो मैं तुम्हें पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपी से तुम्हारे जन्म दिखाता हूँ।”

अहाना डॉ. के कमरे में लगे चित्र के देश-काल में पहुँच गई… लेकिन फिर वही हुआ। बात निकली थी पाप की, पाप से पहुँची गंगा पर, गंगा से पहुँची समुद्र पर, समुद्र से पहुँची बादल पर, बादल से पहुँची वर्षा पर, वर्षा से पहुँची अन्न पर, अन्न से पहुँची मनुष्य पर और मानव से फिर पाप पर… मने लौट के बुद्धू घर को आये।

बात का छोर ही नहीं मिल रहा जहाँ से बात शुरू की जाय। अहाना अपने प्राणिक हीलर के सामने असहाय सी कुर्सी के हत्थे पकड़ कर आगे सरककर बैठी थी।

“मैंने पूछा क्या तकलीफ है आपको?” डॉ. ने फिर अपना प्रश्न दोहराया…

डॉ. का प्रश्न न हो गोया सागर की भारी लहर हो जिसके हरहराते वेग ने उसे दूर ले जाकर अतीत के सुई से नुकीले ग्लेशियरों के बीच पटक दिया हो। और जिसकी नुकीली सुइयाँ दिमाग की नसें चीरती हुई खून जमाये दे रही थीं।

दुनिया में पहले से ही कई तरह के मोल्ड मौजूद हैं मोल्ड से बाहर छटाँक भर भी निकलने की सजा है, सजा-ए-मौत।

वह भी उन दिनों फ्रेम से बड़ी तस्वीर बनना चाहती थी। अपने परों को तोल ही रही थी कि पुरानी पीढ़ी ने नई पीढ़ी के पर कतर उसे पालतू में बदल दिया। उसकी किताबें, उसकी व्याख्यायें, उसकी उसका नजरिया, उसकी प्रगल्भता इन सबको पलटकर उसे सिखाया गया, पहचानना अपना पिंजरा, अपने बर्तन और अपना दाना-पानी… पिंजरे में चहकता कौन है भला… उसमें तो मालिक का सिखाया, रटना होता है…

“डॉ. साहब कुछ पूछ रहे हैं अहाना के बराबर वाली कुर्सी पर बैठी अधिश्री ने अहाना से मद्धम आवाज में कहते हुए कोहनी से टोहका मारा।”

“हम्म्…?” कहकर अहाना चुपचाप अपनी तर्जनी में पड़ी अँगूठी को घुमाने लगी जैसे कहने के लिए शब्द ढूँढ़ रही हो और शब्द न हों गोया खरगोश के सींग हों जो न कभी थे…, न हैं… और न होंगे…

डॉ. निनाद दो पल मौन के बाद अपनी कुर्सी से उठे और अहाना के बाँयी तरफ खाली पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गये।

“अहाना जी…” डॉ. निनाद ने पूरी आत्मीयता से उसे सम्बोधित किया।

अहाना ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसे ऐसे देखा जैसे कोई पंछी चुग्गा देने वाले इंसान को अविश्वास से देखता है। और देखे भी क्यों न क्योंकि पाषाण युग से आज तक जिन्हें मनुष्य ने अपनी भूख के लिए मारा हो वो मनुष्य उसे निस्वार्थ दाना पानी कैसे दे सकता है… अविश्वास की एक लम्बी परम्परा के छोर से बंधे पंछी सी अहाना की प्राणतुला भी डोल गई।

“क्या आप मुझ पर विश्वास करेंगी?” निनाद ने एक बार फिर कोशिश की।

अहाना हाँ और न के असमंजस में आंखें जमीन में गड़ाये बैठी रही।

“अच्छा यह बताइये आप को खाने में क्या पसंद है।” डॉ. ने पूछा…

“जो सबकी पसंद हो…” अहाना ने जैसे शब्द जल्दी से बाहर थूक दिये।

“हम्म… अच्छा आप को क्या कैरी करना अच्छा लगता है, मेरा मतलब आउटफिट्स से है।”

डॉ. शायद उसे सहज करना चाहते थे, तभी ऐसे सवाल जवाब कर रहे हैं, अधिश्री ने मन ही मन सोचा।

“जो सबको पसंद हो।”

इस बार उत्तर इतनी सुस्ती से दिया गया था जैसे बरखा में अलसाई जिजीविषा।

“अरे! आपकी अपनी कोई राय नहीं।” निनाद ने मुस्कराते हुए जैसे चुटकी ली थी। खैर… “क्या आप मुझे अपने बारे में और कुछ बताना चाहेंगी?” निनाद उसकी आँखों में ऐसे झाँक रहा था मानो उसके मन की थाह आँखों में झाँक कर ही पा लेना चाहता हो।

मौन के वीथी के पार बैठी अहाना कुछ देर उसे देखकर नीचे देखने लगी फिर बोली, “हाँ इसीलिए तो मेरी सहेली मुझे आपके पास लेकर आई है।” कुछ क्षण की चुप्पी के बाद उसने कहा, “मैं बहुत सालों से परेशान हूँ। या शायद हमेशा से। मैं एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत हूँ। सास-ससुर, पति, बच्चे सभी हैं परिवार में। पिछले कई सालों से मुझे कई बीमारियाँ हैं। उनका इलाज भी चल रहा है। मैं दवायें खाते-खाते उकता गई हूँ। लेकिन जितनी देर दवा का असर रहता है उतनी देर ही आराम रहता… कहते-कहते अहाना की साँस फूलने लगी।

डॉ. निनाद ने टेबल पर रखा पानी का ग्लास उसकी ओर बढ़ाया और अहाना ने वह सारा पानी एक ही घूँट में खत्म कर दिया।

अहाना को कुछ बेचैन देख डॉ. निनाद ने कहा, “पहले आप रिलैक्स हो जाओ, फिर बात करेंगे और यदि आज आपकी इच्छा न हो तो हम नेक्स्ट मीटिंग में बात करेंगे। आप अगले सन्डे दो बजे आ जाना। यदि कोई प्राब्लम हो तो बतायें?”

अधिश्री और अहाना एक दूसरे को देखने लगीं। उनके चेहरे पर असमंजस छपा था जिसे डॉ. निनाद ने बखूबी पढ़ लिया, लेकिन कुछ बोले नहीं।

“डॉ. आप सन्डे के अलावा कोई और दिन रख लीजिए, अधिश्री ने अधीरता से कहा।”

क्यों कोई खास काम…? डॉ. ने अधिश्री से पूछा।

“नहीं… वो… एक्च्युली… अहाना के घर वालों को यहाँ आने की बात पता नहीं, वो सभी उसे या तो पागल कहते हैं या कि तुम पागल हो रही हो ऐसा कहते हैं और उन्हें जब पता लगेगा कि वह आपसे मिली है तो इसे पागलखाने ही भेज देंगे, इसलिए ये हमारे साथ या अकेले ही ऑफिस टाइम में यहाँ आया करेगी।” अधिश्री ने स्पष्ट किया।

“ठीक है फिर फ्राइडे दोपहर दो बजे ठीक रहेगा…?” उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना डॉ. ने नेक्स्ट पेशेन्ट के लिए रिंग बजा दी।

अहाना और अधिश्री भी उठ गईं।

सावन के बादलों की उमस वाली गर्मी के शुक्रवार को अहाना काली साड़ी में अकेली ही आई थी। धूप के कारण उसका चेहरा लाल हो गया था। उसने स्कूटी क्लीनिक के बाहर बने बोगनवेलिया के शेड के नीचे पार्क की और स्कूटी की सीट उठाकर उसमें से पानी की बोतल निकाल कर खड़े-खड़े ही पूरा पानी पी गई। जबकि उसे पता था कि खड़े होकर पानी पीना नुकसानदायक है। बोतल स्कूटी में रखकर वह डॉ. के केबिन के बाहर पहुँची। दरवाजा बन्द था। दरवाजे पर एक लड़की बैठी थी। अहाना ने उसे बताया कि उसे डॉ. ने आज दो बजे बुलाया था सेशन के लिए।

लड़की ने डॉ. के केबिन से लौटकर कहा, आप अन्दर जा सकती हैं, डॉ. साहब आपका ही इंतजार कर रहे हैं।

अहाना वातानुकूलित केबिन में गई तो सबसे पहले उसे बाहर की उमस भरी गर्मी से राहत मिली जिसके कारण वह बेचैनी महसूस रही थी। डॉ. ने उसे देखते ही बैठने के लिए कहा

अहाना डॉ. के सामने की कुर्सी पर अध-लटकी सी बैठ गई।

“प्लीज रिलैक्स अहाना। आप यहांँ आराम से बैठिए। न ही आपको यहाँ कोई जज करने वाला है। न ही किसी तरह की कोई वर्जना है। इसलिए प्लीज फील फ्री।”

अहाना डॉ. निनाद को देखकर मुस्करा दी और चेयर पर पीछे होकर बैठ गई।

बात का छोर ही नहीं मिल रहा जहाँ से बात शुरू की जाय अहाना अपने प्राणिक हीलर के सामने ही इतनी असहाय हो जाती है या शायद सबके सामने। उसका मन अभी इसी बात पर गुत्थम गुत्था कर रहा था कि उसे यूं गहरी खामोशी में एक मिनट तक देखने के बाद निनाद ने मन्द स्वर में उसका नाम पुकारा… निनाद का स्वर मन्द सप्तक से चढ़ कर कोमल ऋषभ पर आ गया तब जाकर अहाना को लगा कि उसे ही पुकारा जा रहा है।

अहाना… यदि तुम मुझे कुछ बताओगी नहीं तो मैं तुम्हारी मदद कैसे करूँगा।

डबडबा आई आँख के आँसू को आँख की कोर पर ही अँगूठे के नाखून से रोककर हवा में एक तरफ झटक दिया गया। और आंखों की बरौनियों को जल्दी-जल्दी झपकाकर अहाना ने जैसे गीली जमीन पर पंखा धौंक दिया।

निनाद ने उसे बोलने के लिए उत्साहित न पाकर इशारे से अपने पीछे आने को कहा।

वह और निनाद दोनों उस कमरे में आ गए जिसकी हवा में भीनी-भीनी मोगरा की खुशबू घुली थी। एक साइड टेबल पर पानी भरा कांच का प्याला रखा था। उसमें ताजे सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियाँ तैर रहीं थी। पास ही दो खूबसूरत फैन्सी मोमबत्तियाँ जल रहीं थीं।

दरवाजे के ठीक सामने पूरी दीवार पर सहस्रार चक्र (क्राउन चक्रा) का चित्र बना था। एक दीवार पर बांसुरी बजाते छोटे से गजानन मोर मुकुट धरे सुशोभित थे।

कमरे की बाँयी दीवार में बड़ी-सी खिड़की थी जिसे स्लाइडिंग ग्लास से कवर किया गया था। मोटे फोम और रैक्सीन से बना आरामदायक एक्लाइन कमरे के बीचों-बीच रखा था। उसी एक्लाइनर के पास एक रिवॉल्बिंग चेयर और पास ही एक मेज़ पड़ी थी, जिस पर कांच की रंगीन छोटी-छोटी बोतलों में पानी रखा था। एक कोने में एरीका पॉम का मीडियम साइज का प्लांट सुंदर से गमले में रखा था। वह कमरा बहुत ही धीमी बांसुरी के रिलेक्सिंग म्यूजिक से एक अद्भुत अलौकिक संसार का व्यूह रच रहा था।

कमरे में आते ही अहाना को एक सूफियाना-सा अहसास हुआ। डॉ. के निर्देशानुसार अहाना एक्लाइनर पर जा बैठी।

डॉ. उसके पास वाली चेयर पर बैठ गए। डॉ. निनाद उसकी केस फाइल देखने लगे। इसी बीच अहाना रिलेक्सिंग चेयर से उठ कर खिड़की के पास खड़ी हो गई। छत के छज्जे से लटकती घनी क्रीपर्स खिड़की के ऊपरी फ्रेम को छू रही थीं। अहाना ने धीरे से खिड़की पर चढ़ी शीशे की स्लाइडिंग सरका दी। झीनी-झीनी फुहार पड़ रही थी। खिड़की से लगभग छह-सात फुट आगे बाउंड्री वॉल बनी थी। बाउंड्री वॉल बहुत ऊंची न थी। बाहर की हरी-भरी घास ऊंचे-ऊंचे पेड़-पौधे आसमान से बरसते प्यार के संयोग में दिप दिपकर अपनी हरीतिमा में दमक रहे थे।

हाथी, घोड़े, चूहे, बिल्ली, बन्दर, पहाड़, आदमी, औरत की आकृतियों वाले धुंधुआरे बादल नीले आकाश में जहाँ-तहाँ जमा थे। छत और छज्जे के सहारे झूलती क्रीपर्स के छोर पर लटकते जल कण पारे से चमक रहे थे।

अहाना ने गर्दन खिड़की के बाहर निकाली कुछ बूंदें उसकी शंक्वाकार गर्दन के खम पर गिरीं। वह सिहर उठी। उसने अपनी हथेली खिड़की के बाहर फैला दीं। उस पर नन्हीं-नन्हीं बारिश की बूंदें ऐसे गलने लगीं जैसे बर्फ का टुकड़
ा बर्तन के आयतन में।

झीनी फुहार को चेहरे पर महसूसने के लिए उसने कमर से धड़ को थोड़ा और बाहर खींचा। इस समय वह किसी बच्चे के मानिंद उत्फुल्ल थी। अचानक क्रीपर्स के कटे-छटे छोर से कोई लिजलिजी सी चीज रपकती हुई उसकी गर्दन पर गिरकर पीठ के अधर में फंसे ब्लाउज के हुक में अटक गई।

डॉ. निनाद उसका मन पढ़ने की कोशिश में उसी ओर देख रहा था। लेकिन एकाएक अहाना को जोर-जोर से पैर पटकते और बार-बार अपने डीप नेक ब्लाउज की पट्टी को हाथों से झाड़ते देख वह फाइल एक ओर रख जल्दी से उसके पास आया…।

“क्या हुआ, तुम ऐसे पैर क्यों पटक रही हो?” निनाद ने पूछा,

“वो वो मेरी पीठ पर कुछ लिजलिजा सा…” अहाना हकलाते हुए पैरों को पटक कर पीठ से कुछ झाड़ने की कोशिश कर रही थी।

“पीछे घूमो, दिखाओ मुझे।” निनाद ने कहा

अहाना आज्ञाकारी बच्चे की तरह पीछे घूम तो गई, लेकिन रह-रहकर झुरझुरी ले रही थी।

“गीली मिट्टी के कुछ कणों के अलावा तुम्हारी पीठ पर कुछ नहीं है।” निनाद ने कहा लेकिन जैसे उसे अपने कहे पर ही भरोसा न हो। उसकी निगाहें अहाना की साड़ी से फिसलती हुई फर्श पर चली गई जहाँ एक केंचुआ अहाना की चप्पलों से कटकर कई टुकड़ों में बंट गया था।

“तुमने केंचुए के टुकड़े कर दिए।” डॉ. निनाद ने फर्श की ओर देखते हुए कहा,

“केंचुआ, ओह नो मैं ऐसी क्यों हूँ, मैं हमेशा ऐसा क्यों करती हूँ… मेरे भीतर चीजें अरेंज क्यों नहीं होती हैं, मैं इतनी बेतरतीब क्यों हूँ? बड़बड़ाते हुए कभी वह अंगुलियाँ चटकाती कभी साड़ी झटकती कभी पीठ पर से कुछ झटकने का प्रयास करती। कभी झुरझुरी सी लेकर कुर्सी से उठ जाती, कभी बैठ जाती। जब उससे नहीं रहा गया तो वॉश बेसिन पर जाकर उसने अपने हाथ, गला, पीठ, मुँह बार-बार रगड़-रगड़कर धोया।

“अरे! बैठो ऐसा भी क्या है, बरसात के दिनों में केंचुए आम बात है और ये ऐसा कोई विषैला रेप्टाइल नहीं कि कोई संक्रामक बीमारी दे जाये।” निनाद ने कोहनी से उसे पकड़ कर बैठाने की चेष्टा करते हुए कहा।

अहाना ने डॉ. से अपनी कोहनी छुड़ा ली और चुपचाप उस एक्लाइनर पर बैठ गई जो मरीज के उपचार के लिए थी।

डॉ. ने अपना चश्मा निकालकर साइड टेबल पर रखा और खुद की नाक को हौले से सहलाया,

“बोलो अहाना”, डॉ. के स्वर में इस बार आदेश था। अहाना की आंखें चपल हिरनी की भांति दायें-बायें होने लगी। लगा जैसे उससे उन्हीं यादों को रिकॉल करने को कहा जा रहा है, जिसे वह याद नहीं करना चाहती। लेकिन उसे लगा अगर वह नहीं बोली तो सारी जिंदगी बोल नहीं पायेगी।

“डॉ. मुझे बहुत डर लगता है। मुझे किसी बात की समझ और सलीका नहीं। जैसे आज मैंने इतनी धूप में काला रंग पहना है। जब ऑफिस के लिए निकली तो पति ने टोक दिया कि तुम्हें इतनी भी समझ नहीं धूप में काला रंग…? बिलकुल बेवकूफ हो। उनकी बात सुनकर बच्चे हंसने लगे, डैडी जी मूंछों के नीचे से व्यंग्य से मुस्करा रहे थे। हर समय मैं लो फील करती हूँ। मैं कॉफी में चीनी ज्यादा कर देती हूँ। खाने में नमक बराबर नहीं होता। मैं बिस्तर पर भी ठीक नहीं। इस कारण मेरे पति बाहर…। मैं जब सोती हूँ तो मेरे हाथ पांव अकड़ जाते हैं मेरे दाँत भिंद जाते हैं। मैं लोगों के सामने सहज नहीं हो पाती। बाहर निकलने में डर लगता है। कभी-कभी हकलाने लगती हूँ या बहुत सारी लार मुँह में भर जाती है। टंग ट्वीस्ट नहीं होती…। मेरे जांघों से निकलकर पंजों तक की नसों में जलता हुआ पिघला शीशा सा बहता रहता है… बायें हाथ की अनामिका अंगुली से लेकर पूरे हाथ में भी दर्द छिटकता है। कनपटियाँ दर्द से भारी रहती हैं, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। पहले सब ठीक था।”

“हम्म… पहले मतलब…?” डॉ. निनाद ने प्रश्न किया

एक बार फिर चुप्पी साध ली अहाना ने। फिर कुछ सोचकर बोली; “पता नहीं लेकिन माँ से सुना था कि दुल्हनों के संग ऊपरी साये बहुत जल्दी लग जाते हैं…।

शायद कोई आतिशी साया मेरे दुपट्टे के छोर से बंधा मेरी जिंदगी में चला आया पता ही नहीं लगा।

दुःख किसी लम्बवत रेखा-सा जिंदगी में खिंचा ही रहता है। आंखें किसी चतुर बया की तरह आसपास की नैगेटिव बॉडी लैंग्वेजेज की गीली मिट्टी ला लाकर हृदय गह्वर में जमाने के बाद उसमें यादों के जुगनू चिपकाना नहीं भूलती कि यादों की चौंध में आंखें हरदम हर कदम चुंधियाती रहें।”

“अरे! आप तो बहुत अच्छी शायरी भी करती हैं।” निनाद ने हँसकर कहा।

अपने शब्दों की तारीफ सुन अहाना पहली बार मुस्कराई

और आप मुस्कराती हुई भी खूब लगती हैं। डॉ. ने आगे जोड़ा।

अहाना को शायद इतनी तारीफ की आदत नहीं थी इसलिए सकुचा कर खुद में सिमट गई।

दो मिनट के बाद डॉ. ने उससे कहा, तुम्हारी समस्याएं विगत जीवन से रिलेटेड हैं। अगर मैं तुम्हारे अवचेतन तक पहुँच सका तो इलाज आसान हो जायेगा। लेकिन इसके लिए तुम्हारा मुझ पर विश्वास होना जरूरी है…। क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा है…?

अगर भरोसा है तो एक्लाइनर पर लेट जाओ और जो मैं कहूँ उसे ध्यान से सुनो।

अहाना केंचुली चढ़े सांप सी निस्तेज और शिथिल हो गई ऐसा लगा जैसे कि इस एक्लाइनर की पुश्त से रगड़कर ही केंचुल से मुक्ति मिलेगी। उसने चुपचाप आँखें बन्द कर लीं।

डॉ. ने बहुत स्नेह से अहाना के माथे पर अपनी हथेली रख दी और बहुत प्यार से बोले, “अहाना लम्बी गहरी सांस खींचो… और फिर उतनी ही लम्बी गहरी सांस बाहर निकालो… ऐसा करते हुए उसे तुम साक्षी भाव से देखो।…”

डॉ. के हाथ का स्पर्श इतना मृदु था कि अहाना सांसों को देखने की जगह स्पर्श में उलझ गई। काश! ऐसा कोई मखमली स्पर्श उसके जीवन में भी होता…। प्राप्य के सुख से गहरी अप्राप्ति की वेदना उसके चेहरे पर झलकने लगी।

“अहाना मेरी बात सुनो मुझे सहयोग करो नहीं तो मैं तुम्हारी मदद नहीं कर पाऊंगा।” डॉ. निनाद ने जैसे उसका मन पढ़ लिया था।

अहाना को अहसास हुआ कि डॉ. निनाद अपने काम में सिद्धहस्त हैं। वह एहतियात से सांसों को देखने लगी। गहरी तन्द्रा में उतर ही रही थी कि झटके से उठ बैठी।

“क्या हुआ?” डॉ. ने चौंक कर पूछा।

“मुझे लगा जैसे नाभि से कोई चीज खिंची जा रही है।” अहाना कुछ घबराकर बोली।

“ऐसा होता है कभी-कभी। तुम शान्त मन से लेट जाओ और मेरी बातों पर ध्यान दो। मैं दस तक गिनती गिनूँगा और तब तक तुम अपने अचेतन मन से जुड़ जाओगी। इंसान के अचेतन मन में आदि से अन्त तक सबकुछ विद्यमान रहता है तुम्हारी तकलीफों का सिरा भी वहीं कहीं अटका है। निनाद ने कहा।

अहाना की पलकें धीरे-धीरे भारी होती जा रही थीं। एक समय आया जब वह गहरी नींद में जा चुकी थी।

अहाना… अहाना… क्या तुम मुझे सुन पा रही हो, बताओ तुम इस समय क्या देख रही हो?

अहाना…?

“मैं प्रभास क्षेत्र में हिरण नदी के तट पर मृगया की तलाश कर रहा हूँ। विभिन्न छतनार वृक्ष नदी की जल उर्मियों से अभिसार प्रसंग में विनयावत झुके हुए हैं। मैंने भीलों के कपड़े पहन रखे हैं, मैंने एक हरिण को तक कर निशाना लगा दिया है, मैं दौड़कर अपनी मृगया लेने पहुँचा हूँ, लेकिन, यह क्या… मैंने… मैंने तो द्वारकाधीश को ही मृग समझ… हाय मैं पापी… मैं दुरात्मा… ये मैंने क्या किया। मेरे साथी और गांव वाले मुझे घेरकर मार डालना चाहते हैं। श्री कृष्ण के प्रपौत्र व्रजनाथ ने मुझे सूली पर चढ़ाने की आज्ञा दे दी है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़, असहाय और प्राणों के भय से बिंधा हुआ कान्हा को कातर दृष्टि से देख रहा हूँ। वहाँ उपस्थित जनसमूह के मन में मेरे लिए अथाह घृणा है… फफक पड़ी थी अहाना।

डॉ. निनाद ने कहा, “अब तुम जाग जाओ अहाना। सांसें सामान्य करो। अहाना ने कराह के साथ आंखें खोलीं उसकी कनपटियों के पास के बेबी हेयर आंसुओं से भींगे थे चेहरे पर दुर्दांत पीड़ा के भाव खुदे थे। विचलित मन हाहाकार कर रहा था।

डॉ. निनाद ने अहाना के दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर सांत्वना देते हुए कहा, “अभी तुम घर जाओ। अगले सेशन में हम फिर कंटिन्यू करेंगे।”

“अगला सेशन हम अगले शुक्रवार को करेंगे। उस दिन तुम सफेद रंग के कपड़े पहनकर आना।” डॉ. निनाद ने अपने साथ कमरे से बाहर निकलती अहाना से बहुत आत्मीयता से कहा।

“सफेद क्यों?” अहाना ने तनिक आश्चर्य से पूछा।

हां…हां…हां…, डॉ. निनाद ने हल्का-सा ठहाका लगाया। “आप इस सब में मत जाओ। मैं जो कुछ कहता जाऊं आप करती जाओ बस…”

अहाना चुप हो गई।

सफेद सलवार सूट पहन अहाना ने स्कूटी की चाबी उठाई…।

“बारिश आने वाली है बाहर आसमान पर काले बादल छाए हुए हैं और तुम सफेद कपड़े पहन कर ऑफिस जा रही हो।” ऑफिस जाने के लिए तैयार होते पति ने सफेद शर्ट पर ब्लू टाई की नॉट बाँधते हुए क्षुब्ध स्वर में टोका।

“वो… मैं…” अहाना कुछ आगे कहती इससे पहले पति बच्चों का पिता बन बैठा। बोला, “दो दो बच्चों की माँ होकर भी तमीज ढेला भर नहीं आई। बच्चे तो तुम से क्या ही सीखेंगे। कहीं रास्ते में बारिश आ गई तो सारे कपड़े पारदर्शी, फिर करती रहना जिस्म की नुमाइश, लोगों को तो मजा आ जाएगा।”

अहाना सकपका कर अन्दर चली गई बाहर निकली तो गहरा नीला सूट पहने थी।

“अरे! अहाना जी मैंने तो आपको सफेद कपड़ों में आने को कहा था फिर…?”

अहाना आँखें नीची करके मौन बैठी रही।

डॉ. ने कुर्सी से उठते हुए कहा, “कोई नहीं।”

वह और निनाद दोनों उस कमरे में आ गए जहाँ पहले शुक्रवार को थे आज कमरे की हवा में रातरानी की थिरकन थी। शेष सब कुछ पहले जैसा ही था।

“डॉ. ने कुछ सोचते हुए कहा देखो अहाना मैं लाइफ कोच हूँ, मुझे ज्योतिष, रेकी, कलर थैरेपी, वाटर थैरपी, पास्टलाइफ थैरेपी, मनोविज्ञान आदि सभी को टूल्स की तरह यूज करना होता है अपने पेशेन्ट को ठीक करने के लिए। इसलिए मैंने तुम्हें आज सफेद कपड़ों में आने को कहा था। क्योंकि सफेद रंग शुक्र ग्रह का प्रतीक है और मुझे तुम्हारी रेकी में उससे मदद मिलती खैर… अब तुम आँखें बंद कर आराम से लेट जाओ और पिछली बार की तरह डीप ब्रीद करो। और मेरे निर्देश का इंतजार करो।”

कुछ क्षण उपरांत निनाद ने कहा

“अहाना… तुम इस समय क्या देख रही हो?”

“मैं एक बहुत बड़े राजमहल में हूँ। शत्रुघ्न मंथरा को मार रहे हैं। मैं सफेद कपड़ों में सिर झुकाए बैठी रो रही हूँ। अयोध्या के नगरवासी और महल के सभी दास दासियाँ मुझे घृणा की दृष्टि से देख रहे हैं। मेरा ही बेटा भरत मुझे कुलक्षिणी, कलंकिनी कहकर मेरी भर्त्सना कर रहा है। कौशल्या दीदी और सुमित्रा बहन मेरे सामने पड़ते ही रास्ता बदल लेती हैं उर्मिला, श्रुतिकीर्ति, मांडवी मुझसे बात करना तो दूर मुझे देखती तक नहीं। जीवन ढ़ोया नहीं जा रहा। हाय मैं हतभागी…।” करुण क्रन्दन से कमरे का कोना कोना थर्रा उठा।

डॉ. निनाद ने आदेश देकर उस दृश्य को स्थगित किया और कहा, “अब बताओ तुम कहाँ और किस सदी में हो?”

“मैं ईसा पूर्व 483वीं लिखा देख रही हूँ। लोग मुझे चुन्द लोहार पुकार रहे हैं। भंते मेरे घर भिक्षा करने के बाद से बीमार हैं। पूरा विहार और कुशीनगर मुझे मार डालना चाहता है, क्योंकि उन्हें शक है कि मैंने ही भगवान बुद्ध को मार डालने का षड्यंत्र रचा है।”

मैं शपथ उठा रहा हूँ, चीख रहा हूँ, दुःख और ग्लानि के समुन्दर में गोते खा रहा हूँ। लेकिन किसी को मुझसे कोई सहानुभूति नहीं। मैं जी कर क्या करूंगा जब मेरे तथागत ही नहीं रहेंगे। मुझ गरीब का सहारा ही छिना जा रहा। ऊपर से इतनी नफरत बटोर कर मैं जीना भी नहीं चाहता।”

“अब तुम निकलो वहाँ से और इस जीवन में आ जाओ। देखो तुम इतनी बेतरतीब क्यों हो? कहाँ कौन सा पैटर्न बना है जिसकी नुकूश इतने गहरे हैं जो मिटाए नहीं मिट रहे?”

निनाद ने आदेश दिया मेरा और बच्चों की दादी का ऑपरेशन दस दिन के अन्तराल पर हुआ है मेरी पित्त की थैली में तोहमतों के कंकर भरे थे।।। तो फिसल कर गिरने से सास की मौत आई थी।

लेकिन मेरी सास की बेटियों को न जाने क्यों कर लगा कि मुझे टोने-टोटके आते हैं और मैंने उनकी प्यारी माँ को इसकी बदौलत दोजखनशीं करा दिया।

कोई कह रही जहर दिया, तो कोई कह रही टोना, फिर वही युगों-युगों का धिक्कार, वही दुर्निवार अपमान और वही निष्कवच, निष्कलुष मेरी चेतना। मैंने कभी कुछ नहीं किया लेकिन, मेरी चेतना, मेरा आत्मविश्वास सब तहस-नहस हो गया है अब बस, अब और नहीं।”

अहाना हिचकियों से रो रही थी और डॉ. निनाद अहाना को बेबसी से देखते हुए सोच रहे थे कि हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स ने कहा था “कि झूठ को दस बार बोलो तो वह सच हो जाता है।”

और इसके आगे लेखक सुशोभित लिखते हैं कि “और अगर दस लोग झूठ को दस बार बोलें? तब तो वह वस्तुगत यथार्थ की तरह अटल अवश्यम्भावी और अपरिहार्य हो जाता है।”

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’