Sadgati by Munshi Premchand
Sadgati by Munshi Premchand

पंडिताइन- अच्छा, इस वक्त तो आग दिये देती हूँ लेकिन फिर जो इस तरह कोई घर में आएगा, तो उसका मुँह ही जला दूंगी।

दुक्खी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आए? बड़े पवित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूछता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया, मगर मुझे इतनी अकल भी न आयी।

इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकली, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला-पड़ाइन, माता मुझसे बड़ी भूल हो गई कि घर में चला आया। चमार की अक्ल ही तो ठहरी। इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते?

पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लायी थीं। पाँच हाथ की दूरी से घूंघट की आड़ से दुक्खी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुक्खी के सिर पर पड़ गई। जल्दी से पीछे हटकर सिर को झोटे देने लगा। उसके मन ने कहा- यह एक पवित्तर ब्राह्मन के घर को अपवित्र करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके के रुपये मारे जाते हैं, ब्राह्मन के रुपये भला कोई मार तो ले। घर भर का सत्यानाश हो जाए, पाँव गल-गल कर गिरने लगें।

बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट लाया। खटखट की आवाजें आने लगीं।

उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडित जी भोजन करके उठे, तो बोलीं-इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।

पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से समझकर पूछा- रोटियां हैं?

पंडिताइन-दो-चार बच जाएंगी।

पंडित-दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम-से-कम सेर भर चढ़ा जाएगा।

पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं- अरे, बाप रे! सेर भर! तो फिर रहने दो।

पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा-कुछ भूसी-चोकर हो, तो आटे में मिला कर दो दो लिट्टी ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुवार का लिट्ट चाहिए।

पंडिताइन ने कहा- अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।

दुक्खी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ आई थी। कोई आध घंटे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़कर बैठ गया।

इतने में गोंड़ आ गया। बोला- क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलकान होते हो।

दुक्खी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा- अभी गाड़ी भर भूसी ढोना है भाई। गोंड़- कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों कहीं?

दुक्खी- कैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी।

गोंड़- पचने को पच जाएगी, पहले मिले तो। मूछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोए, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी-बहुत मजूरी दे देता है। यह उनसे भी बढ़ गये। उस पर धर्मात्मा बनते हैं।

दुक्खी- धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें, तो आफत आ जाए।

यह कहकर दुक्खी फिर संभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आयी। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आध घंटे तक कस-कसकर कुल्हाड़ी चलायी, पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया- तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाए।