mauni
mauni

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

लगभग सप्ताह भर से गली में लड़कियों और महिलाओं के बीच एक चर्चा तीव्रता से फैल रही थी। इस चर्चा की मुख्य बिंदु थी- मानी।

मानी की माँ को इस विषय में कुछ ज्ञात न हो ऐसा नहीं था क्योंकि उसने ही सर्वप्रथम अपनी बेटी की बात मुख से निकाली थी। इसके अतिरिक्त क्या करती वह, लड़की की पीड़ा न उससे सहन हो रही थी और न समझ में आ रही थी। किसी से तो बात कह कर हल ढूँढना ही था।

पास के एक छोटे स्कूल की मैडम ने आकर कहा- लड़की को डॉक्टर के दिखा दे, खून की कमी से कमजोर हो गयी है। टॉनिक लिखवा लो।

एक पड़ोसन ने कहा- शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे दिया जला।

दूसरी ने कहा- ओझा बुला कर झाड़ा लगवा दे।

अब किस-किस को रोके वह? संकरी गली है, कुल बारह फुट चौड़ी। घर का दरवाजा खुला हो तो सड़क चलते को सब दिखाई, ऊँचा स्वर सुनाई देता है। ऐसे वातावरण में मानी की बात दबी कैसे रहती?

बारह वर्ष की मानी अपनी व्यथा के साथ तमाशा बन कर रह गई। लेकिन आज उसकी माँ ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि बेटी का मुँह खुलवा कर ही रहेगी। मानी ने भी झाड़ फूंक वाली बात सुन ली थी इसलिए वह अंदर की कोठरी से निकल कर बाहरी कमरे में आयी और दीवार से सट कर धरती पर बैठ गयी।

माँ ने उसे देखा, पास जाकर बोली- मानी! कुछ तो बोल। अरी छोरी! हुआ क्या है? मानी कुछ नहीं बोली।

माँ फिर बोली- घबरा क्यों रही है, सब लड़कियों के साथ ऐसे ही होता है। मानी चुप रही।

क्या करे वह? बचपन से ही अपने मन की बात एकदम से नहीं कह पाती। उसकी छोटी-छोटी इच्छाएँ भी अधिकतर पूरी नहीं होती थीं। तब वह इसी तरह दीवार से सट कर, मुँह बंद करके बैठ जाती थी। माँ रूठी लड़की को मनाती रहती, वो नहीं मानती।

पिता कहते- अरी ओ महतारी! तेरी लड़की मानी या न मानी। पिता का यह कथन कि मानी न मानी ऐसा प्रचलित हुआ कि उसका नाम ही ‘मानी’ हो गया। मानी मौन है। बार-बार सोचती है, क्या बोले वह?

माँ फिर मानी के पास आ बैठी और समझाते हुए बोली- लाडो! बोल तो, क्या चाहिए तुझे? आठ दिन से भूखी बैठी है। खाली चाय पानी पर कब तक जिएगी? कुछ तो बोल मेरी गुड़िया!

मानी ने कातर दृष्टि से माँ को देखा और सूखे कंठ से बोली- माँ तू मेरा ब्याह कर दे।

माँ को प्रतीत हुआ कि लड़की का मस्तिष्क चल गया है। कुछ देर वह मानी के भोले से मुख को देखती रही। लड़की के इस मूर्खतापूर्ण उत्तर पर हंस भी न सकी।

धीरे से बोली- ब्याह का मतलब। समझे है तू? गुड्डे-गुड़िया का खेल न है।

मानी ने कहना चाहा- मैं जानती हूँ, यह खेल बहुत दर्द देता है माँ!

माँ ने फिर कहा- तेरे दिमाग में किसने यह बात डाली, किसी से दिल लगा बैठी है क्या मुई?

मानी निरुत्तर रही। उसे जो कहना था, कह दिया। मन और तन की सारी ग्लानि इस एक वाक्य में डुबो कर उसने माँ के सम्मुख उडेल दी। माँ अब क्या करे? पागल-सी हो गयी लड़की को ऐसी दीन अवस्था में मार भी नहीं सकती।

संध्या को पिता के आने से पूर्व मानी उठ कर कोठरी के अंदर चली गई। प्रतिदिन वह वहाँ खटिया पर गुड़मुड़ाकर पड़ी रहती है, उसे नींद नहीं आती। पेट में रह रह कर पीड़ा होती और लावा-सा बहने लगता है। खुले नेत्रों में और कभी निद्रा के झोंके में वह अपने आप को ढूँढने लगती तो उसे अपना गाँव याद आता, साथ ही याद आती- सड़क के किनारे, खेतों के पास बनी झुग्गी के बाहर बैठी छोटी सी मानी। तब गाँव में शहर की ओर जाने वाली सडक पक्की बन रही थी। उसके पिता ठेकेदार के नीचे मजदूरी करते थे। वहां बहुत से पुरुष सिर पर मलवा ढोने और औरतें कच्ची ईंट की रोड़ी तोड़ने का काम करतीं। वहां एक बूढ़े बाबा कभी गाय भैंस तो कभी बकरियों का झुंड चराने के लिए जाते हुए वहाँ से निकलते। बकरियों के हिलते कान मानी को बहुत आनंदित करते, वह बकरियों के पीछे मै, मै करती दूर तक दौड़ती।

एक बार बाबा बोला- छोरी! लौट यहाँ से। बहुत दूर आ गयी है, तेरी माँ बाँट जोहती होगी।

मानी ने कहा- मैं थारे साथ दूर तक जाऊँगी।

बूढ़ा बोला- नहीं आगे ईंटों का भट्टा है। बाहर से आए लोग वहाँ काम करे हैं, तू मत चल।

मानी ने कहा- वहाँ बच्चे भी होंगे।

बूढ़ा बोला- बड़ी उमर के लोग हैं, जाने कैसे हों।

मानी ने पूछा- बड़ी उमर के लोग डरावने होए हैं?

बूढ़े ने मानी को डराने के लिए कहा- और क्या, जाने तुझे भट्टे में डाल दें। वह लौट आयी। घर आकर मानी ने यह बात माँ को बतायी तो वह हँस कर बोली- नहीं री, मेरी बच्ची के कोई हाथ तो लगाए उसका कलेजा चीर दूंगी।

सड़क बनने के बाद, ठेकेदार ने उसके पिता को शहर में मकान बनाने के काम में लगा दिया। अब वह मिस्त्री कहलाने लगा। पैसे भी अधिक मिलने लगे थे। उसका परिवार एक संकरी गली में आकर रहने लगा। माँ ने उसे पास के एक छोटे स्कूल में प्रवेश दिला दिया। कुछ दिन स्कूल जाने के बाद मानी बोली- मैं नहीं जाऊँ पढ़ने, ऐसा क्या स्कूल होए है। ऊपर मैडम का घर, नीचे बच्चे पढ़ें हैं।

माँ बोली- कम फीस वाला अंग्रेजी स्कूल है।

मानी बोली- हमारे गाँव का स्कूल में कितना बड़ा मैदान था, चारों तरफ। पेड़ भी लगे थे।

माँ ने कहा- बहानेबाज! तू वहाँ भी न पढ़ी।

मानी बोली- वो तो वहाँ का मास्टर बहुत खराब था, गाल पे चुटकी काटे कभी कमर पर धौल जमा दे।

बच्ची की नाटकीय ढंग से कही गयी बात सुनकर माँ खिलखिला कर हँस पड़ी। मानी ने यह बात अपनी मौसी को भी बतायी। वह हँसी नहीं बल्कि क्रोधित होकर बोली- तुझे यह बात स्कूल के हेडमास्टर को बतानी थी।

मौसी का यह क्रोध मास्टर से अधिक अपने पति पर था। उसने अपने पति को प्रायः मानी के गाल पर चुटकी काटते और सिर सहलाते देखा था। मानी बड़ी अवहेलना से उसके प्रेम को अस्वीकार करती है। मौसी को बच्ची की यह सहज प्रतिक्रिया लगी। अपने गर्भ के आठवें मास में मौसी को सहारे की बहुत आवश्यकता थी। इसलिए वह मानी को अपने घर लायी। मानी भी बहुत उत्साहित थी। गाँव, शहर और अब उसे दिल्ली जाने का अवसर मिला था। बस में बैठे बैठे मानी ने दिल्ली की चिकनी, चौड़ी सड़क देखीं। उन पर वृक्षों की सुंदर कतार, दौड़ती मोटर कार और सिर से बहुत ऊपर मैट्रो दौड़ती देखी। उसे सब कुछ बहुत अद्भुत लग रहा था। लेकिन बस से उतरने के बाद, मौसी जहां जाकर रुकी वहाँ का दृश्य भिन्न था। वह दिल्ली की एक अवैध बस्ती थी। टूटी सड़कें, छोटे-छोटे मकान और कीचड़ भरी नालियाँ।

मानी ने कहा- यह कैसी दिल्ली है?

मौसी बोली- यह हमारी दिल्ली है।

मानी ने हैरत से पूछा- वो सुंदर वाली दिल्ली किसकी है?

मौसी ने कहा- पैसे वालों की।

दिल्ली की यह सरल व्याख्या मानी की समझ में आ गयी।

मानी मौसी के घर थी। खटिया पर बेसुध पड़ी मानी को मौसी ऊँचे स्वर से पुकार रही थी- उठ मानी! ऐसी भी क्या नींद लड़की, देख सूरज चढ़ आया है। मानी हड़बड़ा कर उठी। उसके उठते ही मौसी घबरा कर पीछे हट गयी- यह क्या हुआ, तुझे पहले मालुम नहीं था? मुझे बताया क्यों नहीं? मानी के पैर काँपने लगे, पेट में भयंकर मरोड़ और सारी टांग खून से लथपथ।

मौसी फिर बोलीं- अच्छा है इस समय घर पर कोई नहीं है वरना बड़ी लज्जा आती। लज्जा शब्द सुनते ही मानी रोने लगी। सारी रात लज्जा की मारी वह आवाज दबाए पड़ी थी। अब मौसी को पता चल गया, मानी उनकी बातों का क्या उत्तर दे? उसने कहना चाहा- मैंने बताया तो था तुम्हारे कमरे में सोते समय, मेरे बदन पर चूहे के पंजे से दौड़ते हैं। तब तुमने ही कहा अंदर खटोले पर सोने को। लेकिन यह बात वह बोल न सकी। मौसी ने गर्म पानी देकर उसे स्नान करने को कहा। चाय के साथ दर्द निवारक गोली दी। पैड का प्रयोग बताया। मानी सिर झुका कर सब करती रही। एक शब्द नहीं बोली।

दो दिन इसी तरह निकल गए। रक्तस्राव रुकता नहीं था, मानी का मुँह खुलता नहीं था। घबरा कर मौसी, मानी को उसके घर छोड़ गयी। तब से कोठरी में चुपचाप पड़े रहने का मानी का नियम बन गया। उसकी एक रात तड़पते हुए फिर खामोशी से बीत गयी।

सूर्योदय हुआ, धूप के कुछ टुकड़े कमरे के अंदर तक आ गए। घर का दरवाजा अंदर से बंद कर के माँ कोठरी में आयी। कुछ देर सोती हुई मानी को देखती रही। लड़की का पीला पड़ गया मुख देख कर उसकी ममता उमड़ पड़ी। सारी दुश्चिंताओं को एक ओर रख उसने हल्दी और सोंठ डालकर दूध बनाया। बहुत प्रेम से मानी को उठाकर मुँह हाथ धुलाए फिर उसे दूध दिया। मानी एक सांस में दूध पी गयी। लड़की का कंठ तर हो गया है, यह जानने पर लाड़ करते हुए बोली- तू ब्याह करने को कह रही है, बता किससे करूं तेरी शादी?

मानी बोली- मौसा से।

यह शब्द सुनते ही माँ का शरीर शिथिल होकर धरती पर इस तरह टिक गया मानो उसमें समा जाना चाहती हो। अविश्वसनीय रूप से अधिक भयंकर था मानी का कथन। इस बात को कहते समय उसके चेहरे पर लज्जा का कोमल भाव नहीं था। बस आत्मस्वीकृति से उपजी ग्लानि के कारण एक थरथराहट उसके पूरे शरीर में व्याप्त थी।

माँ कटु स्वर से बोली- क्या बोल गयी है, जाने है तू?

मानी बोली- हाँ माँ! उस रात मौसा यही कहे था कि मानी मैं तुझे बहुत प्यार करूँ हूँ। तू कित्ती सुंदर है। वो मुझे प्यार करता रहा। मेरा दम घुट गया बोल नहीं पायी, वो सारी रात छोटे से खटोले पर मुझे दबाए पड़ा रहा। और सुबह को माँ मैं ब्याह लायक हो गयी।

जिस रक्तस्राव को लड़की का प्रथम मासिकचक्र समझ रही थी उसका कारण जानकर माँ स्तब्ध थी। मस्तिष्क ने सोचना समझना बंद कर दिया। माँ को मौन देखकर वह भी चुप हो गयी। माँ- बेटी घर के बंद दरवाजे के पीछे, पाषाण की मूर्ति बनी, धरती पर अविचल बैठी रह गयीं।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’