nimantran by munshi premchand
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पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जाकर अपने विशाल उदर पर हाथ फेरते हुए यह पद पंचम स्वर में गाया –

‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम,

दाम मलूका कह गये, सबके दाता राम’

सोना ने प्रफुल्लित होकर पूछा – कोई मीठी ताजी खबर है क्या?

शास्त्री जी ने पैंतरे बदलकर कहा – मार लिया आज! ऐसा ताक कर मारा कि चारों खाने चित्त। सारे घर का नेवता! सारे घर का! वह बढ़-बढ़ कर हाथ मारूंगा कि देखने वाले दंग रह जायेंगे। उदर महाराज अभी से अधीर हो रहे हैं।

सोना – कहीं पहले की भांति अब भी धोखा न हो। पक्का-पोढ़ा कर लिया है न? मोटेराम ने मूंछें ऐंठते हुए कहा – ऐसा असगुन मुंह से न निकालो। बड़े जप-तप के बाद यह शुभ-दिन आया है। जो तैयारियां करनी हों, कर लो।

सोना – वह तो करूंगी ही। क्या इतना भी नहीं जानती? जन्म भर घास थोड़े ही खोदती रही हूं मगर है घर भर का न?

मोटेराम – अब और कैसे कहूं पूरे घर का है। इसका अर्थ समझ में न आया हो, तो मुझसे पूछो। विद्वानों की बात समझना सबका काम नहीं। अगर उनकी बात सभी समझ लें, तो उनकी विद्वता का महत्त्व ही क्या रहे? बताओ, क्या समझी? मैं इस समय बहुत ही सरल भाषा में बोल रहा हूं अगर तुम नहीं समझ सकी। बताओ, ‘विद्वता’ किसे कहते है? ‘महत्त्व’ ही का अर्थ बताओ। घर भर का निमंत्रण देना क्या दिल्लगी है। हां, ऐसे अवसर पर विद्वान लोग राजनीति से काम लेते हैं और उसका वहीं आशय निकालते हैं, जो अपने अनुकूल हो। मुरादपुर की रानी साहब सात ब्राह्मणों को इच्छापूर्ण भोजन कराना चाहती हैं। कौन-कौन महाशय मेरे साथ जायेंगे, यह निर्णय करना मेरा काम है। अलगूराम शास्त्री, बेनीराम शास्त्री, छेदीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेंकूराम शास्त्री, मोटेराम शास्त्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं, तब बाहर कौन ब्राह्मणों को खोजने जाए।

सोना – और सातवां कौन है?

मोटेराम – बुद्धि को दौड़ाओ।

सोना – एक पत्तल घर लेते आना।

मोटेराम – फिर वही बात कही, जिसमें बदनामी हो। छि-छि पत्तल घर लाऊं। उस पत्तल में वह स्वाद कहां, जो जजमान के घर बैठकर भोजन करने में है। सुनो, सातवें महाशय हैं – पंडित सोनाराम शास्त्री।

सोना – चलो, दिल्लगी करते हो। भला, मैं कैसे जाऊंगी।

मोटेराम – ऐसे ही कठिन अवसरों पर तो विद्या की आवश्यकता पड़ती है। विद्वान आदमी अवसर को अवसर सेवक बना लेता है, मूर्ख अपने भाग्य को रोता है। सोनादेवी और सोनाराम शास्त्री में क्या अंतर है, जानती हो? केवल परिधान का अंतर। परिधान का अर्थ समझती हो? परिधान ‘पहनावा’ को कहते हैं। इसी साड़ी को मेरी तरह बांध लो, मेरी मिरजई पहन लो, ऊपर से चादर ओढ़ लो। पगड़ी मैं बांध दूंगा फिर कौन पहचान सकता है?

सोना ने हंसकर कहा – मुझे तो लाज लगेगी।

मोटेराम – तुम्हें करना ही क्या है? बात तो हम करेंगे।

सोना ने मन-ही-मन आने वाले पदार्थों का आनंद लेकर कहा – बड़ा मजा होगा।

मोटेराम – बस, अब विलम्ब न करो। तैयारी करो, चलो।

सोना – कितनी फंकी बना लूं?

मोटेराम – यह मैं नहीं जानता। बस, यही आदर्श सामने रखो कि अधिक-से-अधिक लाभ हो।

सहसा सोनादेवी को एक बात याद आ गई। बोली – अच्छा इन बिछुओं का क्या करूंगी?

मोटेराम ने त्यौरी चढ़ाकर कहा – इन्हें उठाकर रख देना और क्या करोगी?

सोना – जी हां, क्यों नहीं। उतारकर रख क्यों न दूंगी?

मोटे – तो क्या तुम्हारे बिछुए पहनने ही से मैं जी रहा हूं? जीता हूं पौष्टिक पदार्थों के सेवन से। तुम्हारे बिछुओं के पुण्य से नहीं जीता।

सोना – नहीं भाई, मैं बिछुए न उतारूंगी।

मोटेराम ने सोचकर कहा – अच्छा, पहने चलो, कोई हानि नहीं। गोवर्द्धनधारी यह बाधा भी हर लेंगे। बस, पांव में बहुत-से कपड़े लपेट लेना। मैं कह दूंगा, इन पंडितजी को पीलपांव हो गया। क्यों, कैसी सूझी।

पंडिताइन ने पतिदेव को प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देखकर कहा – जन्म भर पढ़ा नहीं है?

संध्या-समय पण्डितजी ने पांचों को बुलाया और उपदेश देने लगे – पुत्रों, कोई काम करने के पहले खूब सोच-समझ लेना चाहिए कि कैसे क्या होगा। मान लो, रानी साहब ने तुम लोगों का पता-ठिकाना पूछना आरम्भ किया, तो तुम लोग क्या उत्तर दोगे? यह तो महान मूर्खता होगी कि तुम सब मेरा नाम लो। सोचो, कितने कलंक और लज्जा की बात होगी। कि मुझ-जैसा विद्वान केवल भोजन के लिए इतना बड़ा कुचक्र रचे। इसलिए तुम सब थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि मेरे पुत्र हो। कोई मेरा नाम न बतलाए। संसार में नामों की कमी नहीं, कोई अच्छा-सा नाम चुनकर बता देना। पिता का नाम बदल लेने से कोई गाली नहीं लगती, यह कोई अपराध नहीं।

अलगू – आप ही न बता दीजिए।

मोटेराम – अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है। हां, इतने महत्त्व का काम मुझे स्वयं करना चाहिए। अच्छा सुनो – अलगू के पिता का नाम है पंडित केशव पांडे, खूब याद कर लो। बेनीराम के पिता का नाम पंडित मंगरू ओझा, खूब याद रखना। छेदीराम के पिता हैं पंडित दमड़ी तिवारी, भूलना नहीं। भवानी, तुम गंगू पांडे बतलाना, खूब याद कर लो। अब रहे फेंकूराम, तुम बेटा बतलाना सेतूराम पाठक। हो गए सब! हो गया सबका नामकरण! अच्छा, अब मैं परीक्षा लूंगा। होशियार रहना। बोलो अलगू, तुम्हारे पिता का नाम क्या है।

अलगू – पंडित केशव पांडे?

बेनीराम, तुम बताओ।

दमडी तिवारी।

छेदी – यह तो मेरे पिता का नाम है।

बेनी – मैं तो भूल गया।

मोटेराम – भूल गए! पण्डित के पुत्र होकर तुम एक नाम भी नहीं याद कर सकते। बड़े दुःख की बात है। मुझे पांचों नाम याद हैं, तुम्हें एक नाम भी याद नहीं। सुनो, तुम्हारे पिता का नाम पण्डित मंगरु ओझा।

पण्डितजी लड़कों की परीक्षा ले ही रहे थे कि उनके परम मित्र पण्डित चिंतामणि जी ने द्वार पर आवाज दी। पण्डित मोटेराम ऐसे घबराए कि सिर पैर की सुधि ही न रही। लड़कों को भगाना ही चाहते थे कि पंडित चिंतामणि अंदर चले आये। दोनों सज्जनों में बचपन में गाड़ी मैत्री थी। दोनों बहुधा साथ-साथ भोजन करने जाया करते थे, और यदि पण्डित मोटेराम अव्वल रहते, तो पंडित चिंतामणि के द्वितीय पद में कोई बाधक न हो सकता था, पर आज मोटेराम जी अपने मित्र को साथ नहीं ले जाना चाहते थे। उनको साथ ले जाना अपने घरवालों में से किसी न किसी एक को छोड़ देना था, और इतना महान आत्मत्याग करने के लिए वे तैयार न थे। चिंतामणि ने यह समारोह देखा, तो प्रसन्न होकर बोले – क्यों भाई, अकेले-ही-अकेले मालूम होता है, आज कहीं गहरा हाथ मारा है।

मोटेराम ने मुंह लटकाकर कहा – कैसी बातें करते हो, मित्र! ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि मुझे कोई अवसर मिला हो और मैंने तुम्हें सूचना न दी हो। कदाचित कुछ समय ही बदल गया, या किसी ग्रह का फेर है। कोई झूठ को भी नहीं बुलाता।

पण्डित चिंतामणि ने अविश्वास के भाव कहा – कोई-न-कोई बात तो मित्र अवश्य है, नहीं तो ये बालक क्यों जमा है?

मोटेराम- तुम्हारी इन्हीं बातों पर मुझे क्रोध आता है। लड़कों की परीक्षा ले रहा हूं। ब्राह्मण के लड़के हैं। चार अक्षर पढ़े बिना इनको कौन पूछेगा।

चिंतामणि को अब भी विश्वास न आया। उन्होंने सोचा, लड़कों से ही इस बात का पता लग सकता है। फेंकूराम सबसे छोटा था। उसी से पूछा – क्या पढ़ रहे हो बेटा। हमें भी सुनाओ। मोटेराम ने फेंकूराम को बोलने का अवसर न दिया। डरे कि यह तो सारा, भण्डा फोड़ देगा। बोले – अभी यह क्या पढ़ेगा। दिन भर खेलता है। फेंकूराम इतना बड़ा अपराध अपने नन्हे से सिर क्यों लेता? बालसुलभ गर्व से बोला – हमको तो याद है, पण्डित सेतूराम पाठक। हम याद भी कर लें, तिस पर भी कहते हैं, हरदम खेलता है?

यह कहते हुए रोना शुरू किया।

चिंतामणि ने बालक को गले लगा लिया और बोले – नहीं बेटा, तुमने अपना पाठ सुना दिया है। तुम खूब पढ़ते हो। यह सेतूराम पाठक कौन हैं, बेटा?

मोटेराम ने बिगड़ कहा – तुम भी लड़कों की बातों में आते हो। सुन लिया होगा किसी का नाम। (फेंकू से) जा, बाहर खेल।

चिंतामणि अपने मित्र की घबराहट देखकर समझ गए कि कोई-न-कोई रहस्य अवश्य है। बहुत दिमाग लड़ाने पर भी सेतूराम पाठक का आशय उनकी समझ में न आया। अपने परम मित्र की इस कुटिलता पर मन में दुखित होकर बोले – ‘अच्छा, आप पाठ पढ़ाइए और परीक्षा लीजिए। मैं जाता हूं। तुम इतने स्वार्थी हो, इसका मुझे गुमान तक न था। आज तुम्हारी मित्रता की परीक्षा हो गई।’

पण्डित चिंतामणि बाहर चले गए। मोटेराम जी के पास उन्हें मनाने के लिए समय न था, फिर परीक्षा लेने लगे।

सोना ने कहा – मना लो, मना लो। रूठे जाते हैं। फिर परीक्षा लेना।

मोटेराम – जब कोई काम पड़ेगा मना लूंगा। निमंत्रण की सूचना पाते ही इनका सारा क्रोध शांत हो जायेगा। हां भवानी, तुम्हारे पिता का क्या नाम है, बोलो।

भवानी – गंगू पांडे।

मोटे! – और तुम्हारे पिता का नाम, फेंकू।

फेंक- – बता तो दिया, उस पर कहते हैं, पढ़ता नहीं।

मोटेराम – हमें भी बता दो।

फेंकू – सेतूराम पाठक तो है।

मोटेराम – बहुत ठीक, हमारा लड़का बड़ा राजा है। आज तुम्हें अपने साथ बैठाएंगे और सबसे अच्छा माल तुम्हीं को खिलाएंगे।

सोना – हमें भी कोई नाम बता दो।

मोटेराम ने रसिकता से मुस्कुराकर कहा – तुम्हारा नाम है पंडित मोहन सरूप सुकुल। सोनादेवी ने लजा कर सिर झुका दिया।