nimantran by munshi premchand
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सोना रानी बैठी पंडित मोटेराम की राह देख रही थी। पति की इस मित्र-भक्ति पर उन्हें बड़ा क्रोध आ रहा था। बड़े लड़की के विषय में तो कोई चिंता न थी लेकिन छोटे बच्चों के सो जाने का भय था। उन्हें किस्से-कहानियां सुना-सुनाकर बहला रही थी कि भंडारी ने आकर कहा – महाराज चलो। दोनों पंडितजी आसन पर बैठ गए, फिर क्या था, बच्चे कूद-कूदकर भोजनशाला में जा पहुंचे। देखा, तो दोनों पंडित दो वीरों की भांति आमने-सामने डटे बैठे हैं। दोनों अपना-अपना पुरुषार्थ दिखाने के लिए अधीर हो रहे थे।

चिंता – भंडारी जी, तुम परोसने में बड़ा विलम्ब करते हो? क्या भीतर जाकर सोने लगते हो?

भंडारी – चुपाई मारे बैठे रहो, जौन कुछ होई, सब आय जाई। घबड़ाये का नहीं होता। तुम्हारे सिवाय और कोई जिवैगा नहीं।

मोटे – भैया, भोजन करने के पहले कुछ देर सुगंध का स्वाद तो लो।

चिंता – अजी सुगंध गया चूल्हे में, सुगंध देवता लोग लेते हैं। अपने लोग तो भोजन करते हैं।

मोटे – अच्छा बताओ, पहले किस चीज पर हाथ फेरोगे?

चिंता – मैं जाता हूं भीतर से सब चीजें एक साथ लिये आता हूं।

मोटे – धीरज रखो भैया, सब पदार्थों को आ जाने दो। ठाकुरजी का भोग तो लग जाय।

चिंता – तो बैठे क्यों हो, तब तक भोग ही लगाओ। एक बाधा तो मिटे। नहीं तो लाओ, मैं चटपट भोग लगा दूं। व्यर्थ देर करोगे।

इतने में रानी आ गईं। चिंतामणि सावधान हो गए। रामायण की चौपाइयां का पाठ करने लगे।

रहा एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।

कोशलेश दशरथ के जाये। हम पितु वचन मानि बन आये।।

उलटि पलटि लंका कपि जारी। कूद पड़ा तब सिधु मझारी।।

जेहि पर जाकर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलेहि न कछु संदेहू।।

जामवंत के वचन सुहाये। सुनि हनुमान हृदय अति भाये।।

पंडित मोटेराम ने देखा कि चिंतामणि का रंग जमता जाता है, तो वे भी अपनी विद्वता प्रकट करने को व्याकुल हो गए। बहुत दिमाग लड़ाया, पर कोई श्लोक, कोई मंत्र, कोई कविता याद न आयी। तब उन्होंने सीधे-सीधे राम-राम का पाठ आरंभ कर दिया।

‘राम भज, राम भज रे मन’ – इन्होंने इतने ऊंचे स्वर में जाप करना शुरू कर दिया कि चिंतामणि को भी अपना स्वर ऊंचा करना पड़ा। मोटेराम और जोर से गरजने लगे। इतने में भंडारी ने कहा – महाराज, अब भोग लगाइए। यह सुनकर उस प्रतिस्पर्द्धा का अंत हुआ। भोग की तैयारियां हुई। बाल-वृन्द सजग हो गया। किसी ने घंटा लिया, किसी ने घड़ियाल, किसी ने शंख, किसी ने करताल और चिंतामणि ने आरती उठा ली। मोटेराम मन में ऐंठ कर रह गए। रानी के सामने जाने का यह अवसर उनके हाथ से निकल गया।

पर यह किसे मालूम था कि विधि-वाम उधर कुछ और भी कुटिल-क्रीड़ा कर रहा है? आरती समाप्त हो गई थी, भोजन शुरू होने को ही था कि एक कुत्ता न जाने किधर से आ निकला। पंडित चिंतामणि के हाथ से लड्डू थाल से गिर पड़ा। पंडित मोटेराम अचकचा कर रह गए। सर्वनाश।

चिंतामणि ने मोटेराम से इशारे में कहा – अब क्या कहते हो, मित्र? कोई उपाय निकालो, यहां तो कमर टूट गई।

मोटेराम ने लंबी सांस खींचकर कहा – अब क्या हो सकता है? यह ससुर आया किधर से?

रानी पास ही खड़ी थी, उन्होंने कहा – अरे, कुत्ता किधर से आ गया? यह रोज बंधा रहता था, आज कैसे छूट गया? अब तो रसोई नष्ट हो गई।

चिंता – सरकार आचार्यों ने इस विषय में… ।

मोटे – कोई हर्ज नहीं है, सरकार, कोई हर्ज नहीं है!

सोना – भाग्य फूट गया। जोहत-जोहत आधी रात बीत गई, तब ई विपत्ति फाट परी।

चिंता – सरकार, स्वान के मुख में अमृत…

मोटे – तो अब आज्ञा हो तो चलें।

रानी – हां और क्या। मुझे बड़ा दुःख है कि इस कुत्ते ने आज इतना बड़ा अनर्थ कर डाला। तुम बड़े गुस्ताख़ हो गए, टॉमी। भंडारी, ये पत्तल उठाकर मेहतर को दे दो।

चिंता – (सोना से) छाती फटी जाती है।

सोना को बालकों पर दया आयी। बेचारे इतनी देर देवोपम धैर्य के साथ बैठे थे। बस चलता तो कुत्ते का गला घोंट देती। बोली – लरकन का तो दोष नहीं परत है। इन्हें काहे नहीं ख्वाय देत कोऊ।

चिंता – मोटेराम महादुष्ट हैं। इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।

सोना – ऐसे तो बड़े विद्वान् बनते रहे हैं। अब काहे नहीं बोलत बनत। मुंह में दही जम गया, जीभै नाहीं खुलत है।

चिंता – सत्य कहता हूं रानी को चकमा दे देता। इस दुष्ट के मारे सब खेल बिगड़ गया। सारी अभिलाषाएं मन में रह गई। ऐसे पदार्थ अब कहां मिल सकते हैं?

सोना सारी मनसई निकस गई। घर ही में गरजै के सैर हैं।

रानी ने भंडारी को बुलाकर कहा – इन छोटे-छोटे तीन बच्चों को खिला दो। ये बेचारे क्यों भूखे मरे। क्यों फेंकूराम, मिठाई खाओगे!

फेंकू – इसीलिए तो आये हैं।

रानी – कितनी मिठाई खाओगे?

फेंकू – बहुत-सी (हाथों से बताकर) इतनी।

रानी – अच्छी बात है। जितनी खाओगे उतनी मिलेगी, पर जो बात मैं पूछूं वह बतानी पड़ेगी। बताओगे न?

फेंकू – हां बताऊंगा, पूछिए।

रानी – झूठ बोले, तो एक मिठाई न मिलेगी। समझ गए।

फेंकू, – मत दीजिएगा। मैं झूठ बोलूंगा ही नहीं।

रानी – अपने पिता का नाम बताओ ।

मोटे – बालकों को हरदम सब बातें स्मरण नहीं रहती। उसने तो आते ही बता दिया था।

रानी – मैं फिर पूछती हूं इसमें आपकी क्या हानि है?

चिंता – नाम पूछने में कोई हर्ज नहीं।

मोटे – तुम चुप रहो चिंतामणि, नहीं तो ठीक न होगा। मेरे क्रोध को अभी तुम नहीं जानते । दबा बैठूंगा, तो रोते भागोगे।

रानी – आप तो व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हैं। बोलो फेंकूराम, चुप क्यों हो? फिर मिठाई न पाओगे।

चिंता – महारानी जी की इतनी दया-दृष्टि तुम्हारे ऊपर है, बता दो बेटा!

मोटे – चिंतामणि जी, मैं देख रहा हूं तुम्हारे अदिन आये हैं। वह नहीं बताता, तुम्हारा साझा – आये वहां से बड़े खैरख्वाह बन के।

सोना – अरे हां, लरकन से ई सब पंवारा से का मतलब । तुमका धरम पर मिठाई देव, न धरम परे न देव। ई का कि बाप का नाम बताओ तब मिठाई देब।

फेंकूराम ने धीरे से कोई नाम लिया। इस पर पण्डितजी ने उसे इतने जोर से डांटा कि उसकी आधी बात मुंह में ही रह गई।

रानी – क्यों डांटते हो, उसे बोलने क्यों नहीं देते? बोलो बेटा।

मोटे – आप हमें अपने द्वार पर बुलाकर हमारा अपमान कर रही है।