nimantran by munshi premchand
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चिंतामणि अपने आंगन में उदास बैठे हुए थे। जिस प्राणी को वह अपने परम हितैषी समझते थे, जिसके लिए वे अपने प्राण तक देने को तैयार रहते थे। उसी ने आज उनके साथ बेवफाई की। बेवफाई ही नहीं की, उन्हें उठाकर दे मारा। पंडित मोटेराम के घर से तो कुछ जाता न था। अगर वे चिंतामणि जी को भी साथ लेते जाते, तो क्या रानी साहब उन्हें दुत्कार देती? स्वार्थ के आगे कौन किसको पूछता है? उन अमूल्य पदार्थों की कल्पना करके चिंतामणि के मुंह से लार टपक पड़ती थी। अब सामने पत्तल आ गई होगी। अब थालों में अमिरतियां लिये भंडारी जी आये होंगे! आह, कितनी सुन्दर, कोमल, कुरकुरी, रसीली अमिरतियां होंगी। अब बेसन के लड्डू आए होंगे। आह, कितने सुडौल, मेवों से भरे हुए, घी से तरातर लड्डू होंगे, मुंह में रखते-ही-रखते घुल जाते होंगे, जीभ भी न डुलानी पड़ती होगी। अहा अब मोहन-भोग आया होगा। हाय रे दुर्भाग्य मैं यहां पड़ा सड़ रहा हूं और वहां यह बहार! बड़े निर्दयी हो मोटेराम, तुमसे इस निष्ठुरता की आशा न थी।

अमिरती देवी बोली – तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? पितृ-पक्ष तो आ ही रहा है, ऐसे-ऐसे न जाने जितने नेवते आयेंगे।

चिंतामणि – आज किसी अभागे का मुंह देखकर उठा था। लाओ तो पत्रा देखूं कैसा मुहूर्त है। अब नहीं रहा जाता। सारा नगर छान डालूंगा, कहीं तो पता चलेगा, नासिका तो दाहिनी चल रही है।

एकाएक मोटर की आवाज आयी। उसके प्रकाश से पंडितजी का सारा घर जगमगा उठा था। वे खिड़की से झांकने लगे, तो मोटे को मोटर से उतरते देखा। एक लम्बी सांस लेकर चारपाई पर गिर पड़े। मन ने कहा कि दुष्ट भोजन करके अब यहां मुझसे बखान करने आया है।

अमिरती देवी ने पूछा – कौन है दाढ़ीजार, इतनी रात को जगावत है?

मोटे – हम हैं, हम! गाली न दो।

अमिरती – अरे दुर मुंहझौंसे, तै कौन है! कहते हैं, हम हैं, हम! को जाने, तैं कौन रे?

मोटे – अरे, हमारी बोली नहीं पहचानती हो? खूब पहचान लो। हम हैं तुम्हारे देवर।

अमिरती – ऐ दुर, तोरे मुंह में कीड़ा लागे। तोर लहास उठे। हमार देवर बनता है, डाढ़ीजार।

मोटे – अरे, हम हैं मोटेराम शास्त्री। क्या इतना भी नहीं पहचानती? चिंतामणि घर में हैं?

अमिरती ने किवाड़ खोल दिया और तिरस्कार भाव से बोली – अरे तुम थे! नाम क्यों नहीं बताते थे? जब इतनी गालियां खा ली, तो बोल निकला। क्या है, क्या?

मोटे – कुछ नहीं चिंतामणि जी को शुभ संवाद देने आया हूं। रानी साहब ने उन्हें याद किया है।

इमरती – भोजन के बाद बुलाकर क्या करेंगी?

मोटे – अजी भोजन कहां हुआ है। मैंने जब इनको विद्या, कर्मनिष्ठ सद्विचार की प्रशंसा की, तब मुग्ध हो गई। मुझसे कहा कि उन्हें भोजन पर लाओ। क्या सो गए?

चिंतामणि चारपाई पर पड़े-पड़े सुन रहे थे। जी में आता था, चलकर मोटेराम के चरणों पर गिर पड़ू। उनके विषय में अब तक जितने कुत्सित विचार उठे थे, सब लुप्त हो गए। ग्लानि का आविर्भाव हुआ। रोने लगे।

.. .यह कहते हुए मोटेराम उनके सामने जाकर खड़े हो गए।

चिंता – तब क्यों न ले गए? जब इतनी दुर्दशा कर लिए, तब आये। अभी तक पीठ में दर्द हो रहा है।

मोटे – अजी, वह तर माल खिलाऊंगा कि सारा दर्द-वर्द भाग जायेगा, तुम्हारे यजमानों को भी ऐसे पदार्थ मयस्सर न हुए होंगे। आज तुम्हें बदकर पछाडूंगा।

चिंता – तुम बेचारे मुझे क्या पछाड़ोगे? सारे शहर में तो कोई ऐसा माई का लाल दिखाई नहीं देता। हमें शनीचर का इष्ट है।

मोटे – अजी, यहां बरसों तपस्या की है। भंडारे-का-भंडार साफ कर दें। और इच्छा ज्यों-की-त्यों बनी रहे। बस, यही समझ लो कि भोजन करके हम खड़े नहीं रह सकते। चलना तो दूसरी बात है। गाड़ी पर लद कर आते हैं।

चिंता – तो यह कौन बड़ी बात है। यहां तो टिकठी पर उठाकर लाए जाते है। ऐसी-ऐसी डकारें लेते हैं कि जान पड़ता है, बम-गोला छूट रहा है। एक बार खुफिया पुलिस ने बम-गोले के संदेह में घर की तलाशी तक ली थी।

मोटे – झूठ बोलते हो। कोई इस तरह नहीं डकार सकता।

चिंता – अच्छा, तो आकर सुन लेगा। डरकर भाग न जाओ तो सही। क्षण में दोनों मित्र मोटर पर बैठे और मोटर चली।

रास्ते में पंडित चिंतामणि को शंका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि मैं पंडित मोटेराम का पिछलग्गू समझा जाऊं और मेरा यथेष्ट सम्मान न हो। उधर पंडित मोटेराम को भी भय हुआ कि कहीं ये महाशय मेरे प्रतिद्वंद्वी न बन जायें और रानी साहब पर अपना रंग जमा लें। दोनों अपने-अपने मंसूबे बांधने लगे। ज्यों ही मोटर रानी के भवन में पहुंची दोनों महाशय उतरे, अब मोटेराम चाहते थे कि पहले मैं रानी के पास पहुंच जाऊं और कह दूं कि पंडित को ले आया, और चिंतामणि चाहते थे कि पहले मैं रानी के पास पहुंचकर अपनी रंग जमा दूं। दोनों कदम बढ़ाने लगे। चिंतामणि हलके होने के कारण जरा आगे बढ़ गए, तो पंडित मोटेराम दौड़ने लगे। चिंतामणि भी दौड़ पड़े। घुड़-दौड़-सी होने लगी। मालूम होता था कि दो गैंडे आगे जा रहे है। अंत को मोटेराम ने हांफते हुए कहा – राजसभा में दौड़ते हुए जाना उचित नहीं।

चिंता – तो तुम धीरे-धीरे आओ न, दौड़ने को कौन कहता है?

मोटे – जरा रुक जाओ, मेरे पैर में कांटा गड़ गया है।

चिंता – तो निकाल लो, तब तक मैं चलता हूं।

मोटे – मैं न कहता, तो रानी तुम्हें पूछती भी न।

मोटेराम ने बहुत कहा, पर चिंतामणि ने एक न सुना। भवन में पहुंचे। रानी साहब बैठी कुछ लिख रही थी और रह-रहकर द्वार की ओर ताक लेती थी कि सहसा पंडित चिंतामणि उनके सामने आ खड़े हुए और यों स्तुति करने लगे –

‘हे हे यशोदे, तू बालकेशव, मुरारनामा…

रानी – क्या मतलब है? अपना मतलब कहो?

चिंता – सरकार को आशीर्वाद देता हूं। सरकार ने इस दास चिंतामणि को निमंत्रित करके जितना अनुग्रसित (अनुगृहीत) किया है, उसका बखान शेषनाग अपनी सहस्र जिह्वा द्वारा भी नहीं कर सकते।

रानी – तुम्हारा ही नाम चिंतामणि है? वे कहां रह गए – पंडित मोटेराम शास्त्री?

चिंता – पीछे आ रहा है, सरकार! मेरे बराबर आ सकता है, भला! मेरा तो शिष्य है।

रानी – अच्छा, तो वे आपके शिष्य हैं।

चिंता – मैं अपने मुंह से अपनी बड़ाई नहीं करना चाहता सरकार। विद्वानों को नम्र होना चाहिए, पर जो यथार्थ है, वह तो संसार जानता है। सरकार, मैं किसी से वाद-विवाद नहीं करता, यह मेरा अनुशीलन (अभीष्ट) नहीं। मेरे शिष्य भी बहुधा मेरे गुरु बन जाते हैं, पर मैं किसी से कुछ नहीं कहता। जो सत्य है, वह सभी जानते हैं।

इतने में पंडित मोटेराम भी गिरते-पड़ते हांफते हुए आ पहुंचे और यह देखकर कि चिंतामणि भद्रता और सभ्यता की मूर्ति बने खड़े हैं, वे देवोपम शांति के साथ खड़े हो गए।

रानी – पंडित चिंतामणि बड़े साधु प्रकृति एवं विद्वान है। आप उनके शिष्य हैं, फिर भी वे आपको अपना शिष्य नहीं कहते।

मोटे – सरकार, मैं इनका दासानुदास हूं।

चिंता – जगतारिणी, मैं इनका चरण रज हूं।

मोटे – रिपुदलसंहारिणी, मैं इनके द्वार पर कुकुर हूं।

रानी – आप दोनों सज्जन पूज्य हैं। एक-से-एक बड़े हुए। चलिए, भोजन कीजिए।