mrtakon-bhoj by Munshi Premchand
mrtakon-bhoj by Munshi Premchand

बड़ों के पास धन होता है, छोटों के पास हृदय होता है। धन से बड़े-बड़े व्यापार होते है, बड़े-बड़े महल बनते हैं, नौकर-चाकर होते हैं, सवारी-शिकारी होती है। हृदय से समवेदना होती है, आँसू निकलते हैं।

उसी मकान से मिली हुई एक साग-भाजी बेचने वाली खटकिन की दुकान थी। वृद्धा, विधवा, निपूती स्त्री थी, बाहर से आग, भीतर से पानी। झाबरमल को सैकड़ों सुनायी और सुशीला की एक-एक चीज उठाकर अपने घर में ले गयी। मेरे घर में रहो बहू। मुरव्वत में आ गई, नहीं तो उसकी मूछें उखाड़ लेती। मौत सिर पर नाच रही है, आगे नाथ, न पीछे पगहा! और धन के पीछे मरा जाता है। जाने छाती पर लादकर ले जाएगा। तुम चलो, मेरे घर में रहो। मेरे यहाँ किसी बात का खटका नहीं। बस, मैं अकेली हूँ। एक टुकड़ा मुझे भी दे देना।

शीला ने डरते-डरते कहा- माता, मेरे पास सेर-भर आटे के सिवा और कुछ है। मैं तुम्हें किराया कहाँ से दूंगी?

बुढ़िया ने कहा- मैं झाबरमल नहीं हूँ बहू, न कुबेरदास हूँ? मैं तो समझती हूँ जिंदगी में सुख भी है, दुःख भी है। सुख में इतरा मत, दुःख में घबराओ मत। तुम्हीं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती हूँ। तुम्हें उस दिन भी देखा था.. जब तुम महल में रहती थीं, और आज भी देख रही हूँ जब तुम अनाथ हो। जो मिज़ाज तब था, यही अब है। मेरे धन्य भाग कि तुम मेरे घर में आओ। मेरी आँखें फूटी हैं, जो तुमसे किराया माँगने जाऊंगी?

इस सांत्वना से भरे हुए सरल शब्दों ने सुशीला के हृदय का बोझ हलका कर दिया। उसने देखा सच्ची सज्जनता भी दरिद्रों और नीचों ही के पास रहती है। बड़ों की दया भी होती है, अहंकार का दूसरा रूप।

इस खटकिन के साथ रहते हुए सुशीला को छह महीने हो गए थे। सुशीला का उससे दिन-दिन स्नेह बढ़ता जाता था। यह जो कुछ पाती, लाकर सुशीला के हाथ में रख देती। दोनों बालक उसकी दो आंखें थीं। मजाल न थी कि पड़ोस का कोई आदमी उन्हें कड़ी आंखों से देख ले। बुढ़िया दुनिया सिर पर उठा लेती। संतलाल हर महीने कुछ न कुछ दे दिया करता था। इससे रोटी-दाल चल जाती थी।

कार्तिक का महीना था, ज्वर का प्रकोप हो रहा था। मोहन एक दिन खेलता- कूदता बीमार पड़ गया और तीन दिन तक अचेत पड़ा रहा। ज्वर इतने जोर का था कि पास खड़े रहने से लपट-सी निकलती थी। बुढ़िया ओझे-सयानों के पास दौड़ती फिरती थी, पर ज्वर उतरने का नाम न लेता था। सुशीला को भय हो रहा था, यह टाइफ़ाइड है। इससे उसके प्राण सूख रहे थे।

चौथे दिल उसने रेवती से कहा- बेटी, तूने बड़े पंचजी का घर तो देखा है। जाकर उनसे कहो- भैया बीमार हैं, कोई डॉक्टर को भेज दे।

रेवती को कहने भर की देर थी। दौड़ती हुई सेठ कुबेरदास के पास गयी।

कुबेरदास- बोले-डॉक्टर की पीस 16 रु. है। तेरी माँ दे देगी?

रेवती ने निराश होकर कहा- अम्मा के पास रुपये नहीं हैं?

कुबेर फिर किस मुँह से मेरे डॉक्टर को बुलाती है। तेरा मामा कहां है? उनसे जाकर कह, सेवा समिति से कोई डॉक्टर बुला ले जाये, नहीं तो खैराती अस्पताल में क्यों नहीं लड़के को ले जाती? या अभी वही पुरानी बू समायी हुई है। कैसी मूर्ख स्त्री है, घर में टका नहीं है और डॉक्टर का हुकुम लगा दिया। समझती होगी, फीस पंच जी दे देंगे। पंच जी क्यों फीस दें? बिरादरी का धन धर्म- कार्य के लिए है, यों उड़ाने के लिए नहीं है।

रेवती माँ के पास लौटी, पर जो कुछ सुना था, यह उससे न कह सकी। घाव पर नमक क्यों छिड़के, बहाना कर दिया। बड़े पंचजी कहीं गये हैं।

सुशीला-तो मुनीम से क्यों नहीं कहा? यहाँ कोई मिठाई खाए जाता था, जो दौड़ी चली आयी?

इसी वक्त संतलाल एक वैद्य जी को लेकर आ पहुँचा।

वैद्य जी भी एक दिन आकर दूसरे दिन न लौटे। सेवा-समिति के डॉक्टर भी दो दिन बड़ी मिन्नतें से आये। फिर उन्हें भी अवकाश न रहा और मोहन की दशा दिनोंदिन बिगड़ती जाती थी। महीना बीत गया, पर ज्वर ऐसा चढ़ा कि एक क्षण के लिए भी ने उतरा। उसका चेहरा इतना सूख गया था कि देखकर दया आती थी। न कुछ बोलता, न कहता, यहाँ तक कि करवट भी न बदल सकता था। पड़े-पड़े देह की खाल फट गई, सिर के बाल गिर गए। हाथ-पाँव लकड़ी हो गए। संतलाल काम से छुट्टी पाता, तो आ जाता, पर इससे क्या होता, तीमारदारी दवा तो नहीं है।

एक दिन संध्या समय उसके हाथ ठंडे हो गए। माता के प्राण पहले ही से सूख गए थे। यह हाल देखकर रोने-पीटने लगी। मिन्नतें तो बहुतेरी हो चुकी थी, रोती हुई मोहन की खाट के सात फेरे लेकर हाथ बाँधकर बोली-भगवन्! यही मेरे जन्म की कमाई है। अपना सर्वस्व खोकर भी मैं बालक को छाती से लगाए हुए संतुष्ट थी, लेकिन यह चोट न सही जाएगी। तुम इसे अच्छा कर दो। इसके बदले मुझे उठा लो। बस, मैं यही दया चाहती हूँ दयामय! संसार के रहस्य को कौन समझ सकता है? क्या हममें से बहुतों का यह अनुभव नहीं कि जिस दिन हमने बेईमानी करके कुछ रकम उड़ाई, उसी दिन उस रकम का दुगुना नुकसान हो गया। सुशीला को उसी दिन रात को ज्वर आ गया था और मोहन का ज्वर उतर गया। बच्चे की सेवा-सुश्रूषा में आधी तो यों ही रह गई थी, इस बीमारी ने ऐसा पकड़ा कि फिर न छोड़ा। मालूम नहीं, देवता बैठे सुन रहे थे या क्या, उसकी याचना अक्षरशः पूरी हुई। पंद्रहवें दिन मोहन चारपाई से उठकर माँ के पास आया और उसकी छाती पर सिर रख रोने लगा। माता ने उसके गले में बांहें डालकर उसे छाती से लगा लिया और बोली- क्यों रोते हो बेटा! मैं अच्छी हो जाऊंगी। अब मुझे क्या चिंता। भगवान पालने वाले हैं। वही तुम्हारे रक्षक हैं। वह तुम्हारे पिता हैं। अब मैं सब तरफ से निश्चित हूँ। जल्द अच्छी हो जाऊंगी।

मोहन बोला-जिया तो कहती है, अम्मा अब न अच्छी होगी।

सुशीला ने बालक का चुंबन लेकर कहा- जिया पगली है, उसे कहने दो। मैं छोड़कर कहीं न जाऊंगी, सदा तुम्हारे साथ रहूँगी। हां, जिस दिन तुम अपराध करोगे, किसी की कोई चीज उठा लोगे, उसी दिन मैं मर जाऊंगी! मोहन ने प्रसन्न होकर कहा- तो तुम मेरे पास से कभी नहीं जाओगी माँ? सुशीला ने कहा-कभी नहीं बेटा, कभी नहीं।

उसी रात को दुख और विपत्ति की मारी हुई यह अनाथ विधवा दोनों अनाथ बालकों को भगवान पर छोड़कर परलोक सिधार गई।

इस घटना को तीन साल हो गए हैं। मोहन और रेवती दोनों उसी वृद्धा के पास रहते हैं। बुढ़िया माँ तो नहीं है, लेकिन माँ से बढ़कर है। रोज मोहन को रात की रखी रोटियाँ खिलाकर गुरुजी की पाठशाला में पहुंचा आती है। छुट्टी के समय जाकर लिवा आती है। रेवती का अब चौदहवां साल है। वह घर का सारा काम- पीसना-कूटना, चौका-बरतन, झाडू-बुहार करती है। बुढ़िया सौदा बेचने चली जाती है तो वह दुकान पर आ बैठती।

एक दिन बड़े पंच सेठ कुबेरदास ने उसे बुला भेजा और बोले- तुझे दुकान पर बैठते शर्म नहीं आती, सारी बिरादरी की नाक कटा रही है? खबरदार, जो कल से दुकान पर बैठी। मैंने तेरे पाणिग्रहण के लिए झाबरमलजी को पक्का कर लिया है।

सेठानी ने समर्थन किया-तू अब सयानी हुई बेटी, अब तेरा इस तरह दुकान पर बैठना अच्छा नहीं। लोग तरह-तरह की बातें करने लगते हैं। सेठ झाबरमल तो राजी ही न होते थे, हमने बहुत कह-सुनकर राजी किया है। बस, समझ ले कि रानी हो जाएगी। लाखों की सम्पत्ति है, लाखों की। तेरे धन्य भाग्य कि ऐसा वर जिला। तेरा छोटा भाई है। उसको भी कोई दुकान करा दी जाएगी।

सेठ-बिरादरी की कितनी बदनामी है!

सेठानी- है ही।

रेवती ने लज्जित होकर कहा- मैं क्या जानूं? आप मामा से कहें?

सेठ (बिगड़ कर)- वह कौन होता है। टके पर मुनीमी करता है। उससे मैं क्या पूछूं? मैं बिरादरी का पंच हूँ। मुझे अधिकार है, जिस काम से बिरादरी का कल्याण देखूँ वह करूँ। मैंने और पंचों से राय ले ली है। सब मुझसे सहमत हैं। अगर तू यों नहीं मानेगी, तो हम अदालती कार्रवाई करेंगे। तुझे खरच-बरच का काम होगा, यह लेती जा।

यह कहते हुए उन्होंने 20 रु. के नोट रेवती की तरफ फेंक दिए।

रेवती ने नोट उछालकर वहीं पुरजे – पुरजे कर डाले और तमतमाए मुख से बोली – बिरादरी ने तब हम लोगों की बात न पूछी, जब हम रोटियों को मोहताज थे। मेरी माता मर गयी, कोई झांकने तक न गया। मेरा भाई बीमार हुआ, किसी वे खबर तक न ली। ऐसी बिरादरी की मुझे परवाह नहीं है।

रेवती चली गई, तो झाबरमल कोठरी से निकल आए। चेहरा उदास था। सेठानी ने कहा- लड़की बड़ी घमंडिन है। आँख का पानी मर गया है।

झाबरमल-बीस रुपये खराब हो गए। ऐसा फाड़ा है कि जुड़ भी नहीं सकता।

कुबेरदास- तुम घबराओ नहीं, मैं इसे अदालत से ठीक करूंगा। जाती कहां है।

झाबरमल- अब तो आपका ही भरोसा है।

बिरादरी के बड़े पंच की बात कहीं मिथ्या हो सकती है? रेवती नाबालिग थी। माता-पिता नहीं थे। ऐसी दशा में पंचों का उस पर पूरा अधिकार था। वह बिरादरी के दबाव में नहीं रहना चाहती है, न चाहे। कानून बिरादरी के अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकता।

संतलाल ने यह माजरा सुना, तो दाँत पीसकर बोले- न जाने इस बिरादरी का भगवान् कब अंत करेंगे।

रेवती- क्या बिरादरी मुझे जबरदस्ती अपने अधिकार में ले सकती है?

संतलाल- हाँ बेटी, धनिकों के हाथ में तो कानून भी है।

रेवती- मैं कह दूँगी कि मैं उसके पास नहीं रहना चाहती।

संतलाल- तेरे कहने से क्या होगा! तेरे भाग्य में यही लिखा था, तो किसका बस है? मैं जाता हूँ बड़े पंच के पास।

रेवती- नहीं मामाजी, तुम कहीं न जाओ। जब भाग्य ही का भरोसा है, तब जो कुछ भाग्य में लिखा होगा, वह होगा।

रात तो रेवती ने घर में काटी। बार-बार निद्रा-मग्न भाई को गले लगाती। यह अनाथ अकेला कैसे रहेगा, यह सोचकर उसका मन कायर हो जाता, पर झाबरमल की सूरत याद करके उसका संकल्प दृढ़ हो जाता।

प्रातःकाल रेवती गंगा-स्नान करने गयी। यह इधर कई महीनों से उसका नित्य का नियम था। आज जरा अँधेरा था; पर यह कोई संदेह की बात न थी। संदेह तब हुआ, जब आठ बज गए और वह लौटकर न आयी। तीसरे पहर सारी बिरादरी में खबर फैल गई-सेठ रामनाथ की कन्या गंगा में डूब गई। उसकी लाश पायी गई।

कुबेरदास ने कहा- चलो, अच्छा हुआ, बिरादरी की बदनामी तो न होगी। झाबरमल ने दुःखी मन से कहा- मेरे लिए अब कोई उपाय कीजिए।

उधर मोहन सिर पीट-पीटकर रो रहा था और बुढ़िया उसे गोद में लिये रो रही थी- बेटा, उस देवी के लिए, क्यों रोते हो। जिंदगी में उसके दुःख- ही-दुःख था। अब वह अपनी माँ की गोद में आराम कर रही है।

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