रेवती- मेरे पास एक पैसा है। मैं उसका दही लिये आती हूँ।
सुशीला- तूने पैसा कहीं पाया?
रेवती- मुझे कल अपनी गुड़ियों की पिटारी में मिल गया था।
सुशीला- लेकिन जल्द आइयो।
रेवती दौड़कर बाहर गयी और थोड़ी देर में एक पत्ते पर जरा-सा दही ले आयी। माँ ने रोटी सेंक कर दे दी। मोहन दही से खाने लगा। आम लड़कों की भांति वह स्वार्थी था। बहन से पूछा भी नहीं ।
सुशीला ने कड़ी आँखों से देखकर कहा- बहन को भी दे दे। अकेला ही खा जाएगा।
मोहन लज्जित हो गया। उसकी आँखें डबडबा आयीं।
रेवती बोली- नहीं अम्मा, मिला ही कितना है। तुम खाओ मोहन, तुम्हें जल्दी ही नींद आती है। मैं तो दाल पक जाएगी, तो खाऊंगी।
उसी वक्त दो आदमियों ने आवाज दी। रेवती ने बाहर आकर देखा। वह सेठ कुबेरदास के आदमी थे। मकान खाली कराने आये थे। क्रोध से सुशीला की आंखें लाल हो गई। बरोठे में आकर कहा- अभी मेरे पति को पीछे हुए एक महीना भी नहीं हुआ, मकान खाली कराने की धुन सवार हो गई। मेरा 50 हजार का घर 30 हजार में ले लिया, पाँच हजार सूद के उड़ाए, फिर भी तस्कीन नहीं होती। कह दो, मैं अभी खाली नहीं करूंगी।
मुनीम ने नम्रता से कहा- बाईजी, मेरा क्या अख्येतार है। मैं तो केवल संदेशिया हूँ। जब चीज दूसरे की हो गई, तो आपको छोड़नी ही पड़ेगी। झंझट करने से क्या मतलब।
सुशीला भी समझ गई, ठीक ही कहता है। गाय हत्या के बल कै दिन खेत चरेगी। नर्म होकर बोली- सेठजी से कहो, मुझे दस-पांच दिन की मोहलत दें। लेकिन नहीं, कुछ मत कहो। क्यों दस-पाँव दिन के लिए किसी का एहसान लूँ? मेरे भाग्य में इस घर में रहना लिखा होता, तो निकलता ही क्यों?
मुनीम ने पूछा- तो कल सवेरे तक खाली हो लाएगा?
सुशीला- हाँ, हां कहती तो हूँ। लेकिन सबेरे तक क्यों, में अभी खाली किए देती हूँ। मेरे पास कौन-सा बड़ा सामान है। तुम्हारे सेठजी का रात भर का किराया मारा जाएगा। जाकर तांगा-वाला लाओ या लाये हो??
मुनीम -ऐसी क्या जल्दी है, बाई! कल सावधानी से खाली कर दीजिएगा।
सुशीला – कल का झगड़ा क्यों रखूँ। मुनीम जी, आप जाइए, ताला लाकर डाल दीजिए। यह कहती हुई सुशीला अंदर गयी, बच्चों को भोजन कराया, एक रोटी आप किसी तरह निगली, बरतन धोए, फिर एक एक्का मँगवाया उस पर अपना मुक्तसर सामान लादा और भारी मन से उस घर से हमेशा के लिए बिदा हो गई।
जिस वक्त वह घर बनवाया था, मन में कितनी उमंगें थी। इसके प्रवेश में कई हजार ब्राह्मणों का भोज था। सुशीला को इतनी दौड़-धूम करनी पड़ी थी कि वह महीने भर बीमार रही। इसी घर में उनके दो लड़के मरे थे। वहीं उसका पति मरा था। मरने वालों की स्मृतियों ने उसकी एक-एक ईंट को पवित्र कर दिया था। एक-एक पत्थर मानो उसके हर्ष से सुखी और उसके शोक से दुःखी होता था। यह घर आज उससे छूटा जा रहा है।
उसने रात एक पड़ोसी के घर में काटी और दूसरे दिल 10 रुपये महीना पर एक गली में दूसरा मकान ले लिया।
इस नए कमरे में इन अनाथों वे तीन महीने जिस कष्ट से काटे, यह समझने वाले ही समझ सकते हैं। भला हो बेचारे संतलाल का। वह दस-पाँच रुपये से मदद कर दिया करता था। अगर सुशीला दरिद्र घर की होती, तो पिसाई करती, कपड़े सिलती, किसी के घर में टहल करती, पर जिन कामों बिरादरी नीचा समझती है उसका सहारा कैसे लेती? नहीं तो लोग कहते, यह सेठ रामनाथ की स्त्री है! उस नाम की भी तो लाज रखनी थी। समाज के चक्रव्यूह से किसी तरह भी तो छुटकारा नहीं होता। लड़की के दो-एक गहने बचे रहे थे। वह भी बिक गए। जब रोटियों के ही लाले थे, तो घर का किराया कहाँ से आता? तीन महीने बाद घर का मालिक, जो उसी बिरादरी का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था और जिसने मृतक भोज में खूब बढ बढ़कर हाथ मारे थे, अधीर हो उठा। बेचारा कितना धैर्य रखता। 30 रुपये का मामला है, रुपये आठ आने की बात नहीं है। इतनी बड़ी रकम कहीं छोड़ी जाती। आखिर एक दिन सेठजी ने आकर लाल-लाल आँखें करके कहा- अगर तू किराया नहीं दे सकती, तो घर खाली कर दे। मैंने बिरादरी के नाते इतनी मुरव्वत की। अब किसी तरह काम नहीं चल सकता।
सुशीला बोली- सेठजी, मेरे पास रुपये होते, तो पहले आपका किराया देकर तब पानी पीती। आपने इतनी मुरव्वत की, इसके .लिए मेरा सिर आपके चरणों पर है, लेकिन अभी मैं बिलकुल खाली हाथ हूं। यह समझ लीजिए कि एक भाई के बाल-बच्चों की परवरिश कर रहे हैं। और क्या कहूँ।
सेठ- चल-चल, इस तरह की बातें बहुत सुन चुका। बिरादरी का आदमी है, तो उसे चूस लो। कोई मुसलमान होता, तो चुपके से महीने-महीने दे देती, नहीं तो उसने निकाल बाहर किया होता। मैं बिरादरी का हूँ इसलिए किराया देने की दरकार नहीं। मुझे माँगना ही नहीं चाहिए। यही तो बिरादरी के साथ करना चाहिए।
इसी समय रेवती भी आकर खड़ी हो गई। सेठजी ने उसे सिर से पाँव तक देखा और तब किसी कारण से बोले- अच्छा, यह लड़की तो सयानी हो गई। कहीं इसकी सगाई की बातचीत नहीं की?
रेवती तुरंत भाग गई। सुशीला ने इन शब्दों में आत्मीयता की झलक पाकर पुलकित भाव से कहा- अभी तो कहीं बातचीत नहीं सेठजी। घर का किराया तक तो अदा नहीं कर सकती, सगाई क्या करूंगी। अभी छोटी भी तो है। सेठजी ने तुरंत शास्त्रों का आधार दिया। कन्याओं के विवाह की यही अवस्था है। धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। किराये की कोई बात नहीं है। हमें क्या मालूम था कि सेठ रामनाथ के परिवार की यह दशा है।
सुशीला- तो आपकी निगाह में कोई अच्छा वर है! यह तो आप जानते ही हैं, मेरे पास लेने-देने को कुछ नहीं है?
झाबरमल- (इन सेठजी का यही नाम था)-लेने-देने का कोई झगड़ा नहीं होगा, बाईजी। ऐसा घर है कि लड़की आजीवन सुखी रहेगी। लड़का भी उसके साथ रह सकता है। कुल का सच्चा, हर तरह से संपन्न परिवार है। हां, वर दोहाजू (दुजबर) है।
सुशीला- उम्र अच्छी होनी चाहिए, दोहाजू होने से क्या होता है।
झाबरमल- उम्र कुछ ज्यादा नहीं, अभी चालीसवाँ ही साल है उसका, पर देखने में अच्छा हृष्ट-पुष्ट है। मर्द की उम्र उसका भोजन है। बस यह समझ लो कि परिवार का उद्धार हो जाएगा।
सुशीला ने अनिच्छा के भाव से कहा- अच्छा, मैं सोचकर जवाब दूँगी। एक बार मुझे दिखा देना।
झाबरमल- दिखाने को कहीं नहीं जाना है, बाई। वह तेरे सामने ही खड़ा है।
सुशीला ने घृणा पूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा। इस पचास साल के बुड्ढे की यह हवस। छाती का मांस लट कर जमीन तक आ पहुँचा है, फिर भी विवाह की धुन सवार है। यह दुष्ट समझता है कि प्रलोभन में पड़कर मैं अपनी लड़की उसके गले बांध दूंगी। बेटी को आजीवन कुंवारी रखूंगी पर ऐसे मृतक से विवाह करके उसका जीवन नष्ट न करूंगी, पर उसने अपने क्रोध को शांत किया। समय का फेर है, नहीं तो ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का साहस ही क्यों होता। बोली- आपकी इस कृपा के लिए आपको धन्यवाद देती हूँ सेठजी, पर मैं कन्या का विवाह आपसे नहीं कर सकती।
झाबरमल- तो, तू समझती है कि तेरी कन्या के लिए बिरादरी में कोई कुमार मिल जायगा?
सुशीला-मेरी लड़की कुंवारी रहेगी।
झाबरमल- और रामनाथजी के नाम को कलंकित करेगी?
सुशीला- तुम्हें मुझसे ऐसी बात करते लाज नहीं आती? नाम के लिए घर या, संपत्ति खोयी; पर कन्या को कुएँ में नहीं डुबा सकती।
झाबरमल- तो मेरा किराया दे दे।
सुशीला- अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।
झाबरमल ने भीतर घुसकर गृहस्थी की एक-एक वस्तु निकालकर गली में फेंक दी। घड़ा टूट गया, मटके टूट गए। संदूक के कपड़े बिखर गए। सुशीला तटस्थ खड़ी आपने अदिन की यह क्रूर क्रीड़ा देखती रही।
घर को यों विध्वंस करके झाबरमल ने घर में ताला डाल दिया और अदालत से रुपये वसूल करने की धमकी देकर चले गए।
